मिथिला या मधुबनी पेटिंग के नाम से प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख कर मन सहसा विद्यापति, बाबा नागार्जुन की कविताओं की ओर भागने लगता है। इन रंगों में मिथिला की लोक संस्कृति रची-बसी है। पिसे हुए चावल, दूध, सिंदूर, और हल्दी के रंगों से मिथिला की औरतें घर की दीवारों पर सदियों से चित्रों को उकेरती रही है। समय के साथ ये चित्र दीवारों से काग़ज पर उतर आये। पहले कोहबर, पूरइन, सामा-चकेवा और देवी-देवता ही इन चित्रों में थे। अब इनमें देश-विदेश की राजनैतिक घटनाएँ और सामाजिक चिंताएँ भी आकार लेती हुई दिखती है। पिछले दशकों में मिथिला पेंटिंग ने अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पर भारत के कलाजगत और कलाप्रेमियों के बीच अब भी यह अपना एक मुकाम तलाश रही है।
सदियों पुराने कला के इस रूप को देश-विदेश की मुख्यधारा में लाने का श्रेय विदेशी विद्वानों और कलाप्रेमियों को जाता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के ब्रिटिश अधिकारी डब्लू. जी. आर्चर 1930 के दशक में तस्वीरों के माध्यम से मिथिला पेंटिंग को पहली बार दुनिया के सामने लाए। मिथिला क्षेत्र में 1934 में आये भीषण भूकंप के दौरान क्षतिग्रस्त मकान की दीवारों पर उन्होनें कोहबर, रेल वगैरह के चित्रों को देखा। 1970 के दशक में अमेरिकी मानवशास्त्री रेमण्ड ओएंस और जर्मनी की इरेका मोसर ने मधुबनी पेंटिंग को मिथिला जा कर देखा-परखा और शोध किया। अमेरिका स्थित एथनिक आर्टस फाउण्डेशन ने दिल्ली के इंडिया हैबीटेट सेंटर में एक प्रदर्शनी ‘मिथिला पेंटिंगः एक कला रूप का विकास’ का आयोजन पिछले महीने ( 14-26 जनवरी) किया था । यह संस्था पिछले पच्चीस सालों से मिथिला पेंटिंग का प्रचार-प्रसार कर रही है। संस्था के अध्यक्ष प्रो. डेविड सेण्टन कहते हैं, “मिथिला पेंटिंग में अपार संभावनाएँ हैं। जरूरत है प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें अनुकूल सुविधाएँ मुहैया कराई जाने की।” इस संस्था ने सन् 2003 में मधुबनी में ‘मिथिला कला संस्थान’ की स्थापना की। यह संस्थान हर साल बीस छात्रों को छात्रवृत्ति दे कर मिथिला पेंटिंग को प्रोत्साहित करता है।
संस्थान के निदेशक चित्रकार संतोष कुमार दास कहते हैं “गंगा देवी और सीता देवी की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद जिस तरह से इस कला को प्रोत्साहन मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। शिक्षा और मूलभूत सुविधायों के अभाव में कलाकार किसी तरह इस पुराने कला रूप को बचाए हुए हैं।” महिलाओं की विशेष उपस्थिति इस पेंटिंग की विशेषता रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा के रूप में इन्होनें इसे बचाए रखा। राँटी की दलित कलाकार उर्मिला देवी कहती हैं “दिक्कत, सब चीजों का दिक्कत है। खेती-बारी कुछ नहीं है। सरकार कोई सहायता नहीं करती है। किसी तरह हम जी रहे है। बिचौलिए को औने-पौने दाम पर हम अपनी कला बेचने को मजबूर हैं।”
इस कला में कायस्थों और ब्राह्मणों की उपस्थिति शुरू से ही रही है पर पिछले कुछ सालों में दलित विशेषकर, दुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी है। ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कछनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को अपनाया है।
मिथिला पेटिंग में अब प्राकृतिक रंगों के बदले एक्रिलिक रंगों का प्रयोग होने लगा है। इससे पेंटिंग के जल्दी बिखरने का खतरा नहीं रहता है। मिथिला के रीति- रिवाजों के साथ अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद , सांप्रदायिकता और भ्रूण हत्या जैसी पेंटिंग को देख कर इसके फैलाव और विकास की झलक मिलती है। पुरूषों की भागेदारी ने इस कला को एक नया तेवर दिया है। पर सवाल है कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित कलाकार किस तरह इस कला को जीवित रख पायेंगे ।
सदियों पुराने कला के इस रूप को देश-विदेश की मुख्यधारा में लाने का श्रेय विदेशी विद्वानों और कलाप्रेमियों को जाता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के ब्रिटिश अधिकारी डब्लू. जी. आर्चर 1930 के दशक में तस्वीरों के माध्यम से मिथिला पेंटिंग को पहली बार दुनिया के सामने लाए। मिथिला क्षेत्र में 1934 में आये भीषण भूकंप के दौरान क्षतिग्रस्त मकान की दीवारों पर उन्होनें कोहबर, रेल वगैरह के चित्रों को देखा। 1970 के दशक में अमेरिकी मानवशास्त्री रेमण्ड ओएंस और जर्मनी की इरेका मोसर ने मधुबनी पेंटिंग को मिथिला जा कर देखा-परखा और शोध किया। अमेरिका स्थित एथनिक आर्टस फाउण्डेशन ने दिल्ली के इंडिया हैबीटेट सेंटर में एक प्रदर्शनी ‘मिथिला पेंटिंगः एक कला रूप का विकास’ का आयोजन पिछले महीने ( 14-26 जनवरी) किया था । यह संस्था पिछले पच्चीस सालों से मिथिला पेंटिंग का प्रचार-प्रसार कर रही है। संस्था के अध्यक्ष प्रो. डेविड सेण्टन कहते हैं, “मिथिला पेंटिंग में अपार संभावनाएँ हैं। जरूरत है प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें अनुकूल सुविधाएँ मुहैया कराई जाने की।” इस संस्था ने सन् 2003 में मधुबनी में ‘मिथिला कला संस्थान’ की स्थापना की। यह संस्थान हर साल बीस छात्रों को छात्रवृत्ति दे कर मिथिला पेंटिंग को प्रोत्साहित करता है।
संस्थान के निदेशक चित्रकार संतोष कुमार दास कहते हैं “गंगा देवी और सीता देवी की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद जिस तरह से इस कला को प्रोत्साहन मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। शिक्षा और मूलभूत सुविधायों के अभाव में कलाकार किसी तरह इस पुराने कला रूप को बचाए हुए हैं।” महिलाओं की विशेष उपस्थिति इस पेंटिंग की विशेषता रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा के रूप में इन्होनें इसे बचाए रखा। राँटी की दलित कलाकार उर्मिला देवी कहती हैं “दिक्कत, सब चीजों का दिक्कत है। खेती-बारी कुछ नहीं है। सरकार कोई सहायता नहीं करती है। किसी तरह हम जी रहे है। बिचौलिए को औने-पौने दाम पर हम अपनी कला बेचने को मजबूर हैं।”
इस कला में कायस्थों और ब्राह्मणों की उपस्थिति शुरू से ही रही है पर पिछले कुछ सालों में दलित विशेषकर, दुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी है। ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कछनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को अपनाया है।
मिथिला पेटिंग में अब प्राकृतिक रंगों के बदले एक्रिलिक रंगों का प्रयोग होने लगा है। इससे पेंटिंग के जल्दी बिखरने का खतरा नहीं रहता है। मिथिला के रीति- रिवाजों के साथ अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद , सांप्रदायिकता और भ्रूण हत्या जैसी पेंटिंग को देख कर इसके फैलाव और विकास की झलक मिलती है। पुरूषों की भागेदारी ने इस कला को एक नया तेवर दिया है। पर सवाल है कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित कलाकार किस तरह इस कला को जीवित रख पायेंगे ।
(राजस्थान पत्रिका,जयपुर से 10 मई 2007 को प्रकाशित)
3 comments:
hi
arvind bhai this is nawaz from lucknow. i am also a research scholor of mass com. lucknow university. main apke lekha se behat muttasir hua. keep it up.
my best wishes with you.
with regards
Nawaz
(nawaz_ahmad@rediffmail.com)
भाई अरविंद
आज आपका ब्लाग देखा तो पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गयी। हिन्दी में भी लिख रहे हैं, देख कर अच्छा लगा।
Blog ke zariye "Sahitya ki Sewa" ke liye SADHUWAD
ANWARUL HASAN
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LUCKNOW
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