'जनता की आबे पलटनिया हिल्ले रे झकझोड़ दुनिया…', कवि गोरख पांडे की ये पंक्तियाँ दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गाहे बगाहे गूंजती ही रहती है.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से जेएनयू की फिज़ा में ये पंक्तियाँ जिस रुप में सुनाई दे रही है उसमें तल्ख़ी कुछ ज़्यादा ही है.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से जेएनयू की फिज़ा में ये पंक्तियाँ जिस रुप में सुनाई दे रही है उसमें तल्ख़ी कुछ ज़्यादा ही है.
तीन नवंबर को जेएनयू छात्र संघ का चुनाव होना था, लेकिन परिसर में आज रात ‘कल जेएनयू बंद रहेगा’ का नारा सुनाई दे रहा है.
तीन नवंबर को जेएनयू के छात्र दिल्ली स्थित इंडिया गेट पर मानव श्रृखंला बना कर लिंग्दोह समिति की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ अपना विरोध प्रदर्शन करेंगे.
उल्लेखनीय है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जेएनयू को लिंग्दोह कमिटी की सिफ़ारिशों को नहीं मानने का दोषी पाया और तत्काल चुनाव नहीं करवाने का आदेश दिया है.
वर्ष 2007 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लिंग्दोह कमिटि की सिफ़ारिशें सभी विश्वविद्यालयों के लिए अनिवार्य हो गई है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि उम्र सीमा, उम्मीदवारों के दुबारा चुनाव नहीं लड़ने और कक्षा में उपस्थिति से संबंधित शर्तों को जेएनयू के छात्र संघ चुनाव में नहीं माना जा रहा है.
जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व संयुक्त सचिव कविता कृष्णन कहती है "ये सारे मानक महज ब्यौरे हैं जिन्हें लिंग्दोह कमिटी की रिपोर्ट सर्वोच्च और अंतिम नहीं मानती."
ये अलग बात है लिंग्दोही कमिटी की सिफ़ारिश ये भी थी कि सभी विश्विविद्यालयों और कॉलेजों में नियमित छात्र संघ के चुनाव होने चाहिए, लेकिन इस पर कोई बहस कहीं दिखाई नहीं पड़ती है. और तो और दिल्ली विश्विद्यालय में लिंग्दोह समिति की सिफ़ारिशों को तो माना गया, लेकिन यह सिर्फ़ काग़ज़ पर ही सीमित रहा है.
जेएनयू में छात्रसंघ का चुनाव बिना किसी धनबल, बाहुबल के छात्रों के द्वारा करवाया जाता है. यहाँ तक की लिंग्दोह समिति ने भी जेएनयू छात्र संघ को एक मॉडल के रुप में माना और जिसे अन्य विश्वविद्यालय में लागू करने की बात की है.
जेएनयू छात्रसंघ का अपना संविधान है और जिसके मुताबिक पिछले 37 वर्षों से परिसर में एक उत्सव की तरह चुनाव करवाए जाते रहे हैं.
जेएनयू के परिसर के अंदर छात्रों का कहना है कि लिंग्दोह कमिटी की सिफ़ारिशों की आड़ में सत्ता जेएनयू में वाद-विवाद की संस्कृति, लोकतांत्रिक पंरपरा और छात्र आंदोलन को ख़त्म करना चाहती है.
कविता कृष्णन कहती हैं, "यदि जेएनयू छात्र संघ के संविधान को उच्चतम न्यायालय के आदेश या लिंग्दोह कमिटी की सिफ़ारिशों के उल्लंघन के बतौर ही देखा जाता रहा और इन सिफ़ारिशों के मुताबिक देश के तमाम विश्वविद्यालयों में लोकतंत्र की बहाली नहीं हुई तो छात्र यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य होंगे कि लिंग्दोह कमिटी की सिफ़ारिशें कैंपसों में शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक चुनाव के मकसद से नहीं बल्कि सत्ता द्वारा छात्र आंदोलन के दमन के उद्देश्य से लाई गई हैं."
(जेएनयू की दीवार पर विभिन्न छात्र दलों के पोस्टर)
1 comment:
timely comment... i hope you will make it little large - in content and reach... so that those who dont know would also know... because still people dont about this repressive rationale of our honourable SC... i would suggest a piece in Hindi dailies like Bhaskar, Jagran, Amar Ujala, etc
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