'सुनूँ क्या सिन्धु! मैं गर्जन तुम्हारा/ स्वयं युगधर्म का हुँकार हूँ मैं! या, 'मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं/ उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं.'
युगधर्म का हुँकार भरने वाली ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखी हैं. ऐसी ही न जाने दिनकर की लिखी कितनी पंक्तियाँ आज आम लोगों के बीच कहावत बन चुकी है.
दिनकर जन्म शताब्दी वर्ष में एक बार फिर से उनके अद्भुत कृतित्व और अनूठे व्यक्तित्व की चर्चा की जा रही है. इसी सिलसिले में पिछले दिनों साहित्यकारों, आलोचकों और नेताओं ने दिल्ली के मावलंकर सभागार में अपने प्रिय कवि को याद किया.
इस समारोह का आयोजन एक ग़ैर सरकारी संगठन राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ स्मृति न्यास ने किया था.
लोकप्रिय कवि
सही मायनों में आधुनिक हिंदी कविता को लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिनकर और हरिवंश राय बच्चन को जाता है. आमजनों की भाषा में कविता लिख कर उन्होंने आम लोगों में हिंदी कविता के प्रति रुचि पैदा की.
यह एक अनोखा संयोग है कि वर्ष 2007 में बच्चन की जन्मशताब्दी मनाई गई और वर्ष 2008 में दिनकर की जन्मशताब्दी मनाई जा रही है.
'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' या, 'रेशमी नगर' दिल्ली के नेताओं पर व्यंग्य कसती, 'रेशमी कलम से भाग्य लेख लिखने वालो, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो क्या? ', जैसी दिनकर की कविताएँ जितनी आम जनता के बीच चर्चित हैं उतनी ही शासक वर्ग के बीच भी.
इस बात का प्रमाण है समारोह में दिनकर की रचनाओं के प्रशंसकों के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं भी मौज़ूदगी.
जन्म शताब्दी समारोह में कांग्रेस के डॉक्टर कर्ण सिंह, भारतीय जनता पार्टी के नेता मुरली मनोहर जोशी और समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह जैसे विभिन्न विचारधाराओं के राजनेताओं को एक साथ मंच पर बैठे देखना और उनसे दिनकर के बारे में सुनना किसी आश्चर्य से कम नहीं था.
इस समारोह का उद्घाटन करते हुए सांसद डॉक्टर कर्ण सिंह ने कहा, "दिनकर न सिर्फ़ हिंदी के बल्कि भारतीय साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं, जब भी भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा तब उनका नाम स्वर्णक्षरों में लिखा जाएगा."
पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने देश में चरमपंथ के बारे में बात करते हुए कहा, " दिनकर आज जीवित होते तो वे आतंकवाद के ख़िलाफ़ निश्चित ही आवाज़ उठाते."
लेकिन समारोह में दिनकर की चर्चा करते-करते समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी के हाल के संबंधों को लेकर टिप्पणी करने से नहीं चूके.
अमर सिंह ने दिनकर की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा कि-
'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,जो तटस्थ है, समय लिखेगा उसका भी अपराध.'
से ही प्रेरणा पाकर वे परमाणु करार के मुद्दे पर तटस्थ नहीं रहे, बल्कि कांग्रेस की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का साथ दिया.
राष्ट्रीय भावनाएँ
दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय भावनाएँ समाहित हैं. पराधीन भारत में जनता के संघर्ष को स्वर देता राष्ट्रीय काव्य उन्होंने जिस उत्कंठा के साथ लिखा, उसी निष्ठा के साथ उन्होंने आज़ाद भारत में जनता के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ भी लिखा.
समारोह में प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा, "दिनकर भारत के सच्चे लोकतंत्र के चिंतक थे. उनकी लिखी किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' भारत की सामासिक संस्कृति का ग्रंथ है न कि हिंदू संस्कृति का."
उन्होंने कहा कि दिनकर के इस जन्मशताब्दी वर्ष में समूचे कृतित्व और व्यक्तित्व पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है.
दिनकर के साहित्य का मूल्यांकन आसान नहीं है. उनकी कविता का पाट काफ़ी फैला हुआ है जिसे किसी एक कोटि में नहीं रखा जा सकता. एक तरफ़ कुरुक्षेत्र जैसे काव्य में जहाँ वे युद्ध और शांति जैसे विचारों से जूझते दिखते हैं और लिखते हैं-
जब तक मनुज मनुज का यह सुख भाग नहीं सम होगा/ शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा. वहीं वे उर्वशी जैसे प्रबंध काव्य में काम और प्रेम के शाश्वत सवालों से रूबरू होते दिखाई देते हैं और 'उर्वशी' के मनोभावों को व्यक्त करते हुए लिखते हैं, 'तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ़ आलिंगन में, मन से किंतु, विषण्ण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
' 'साहित्य के दिनकर'
दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय ज़िले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ.
बिहार में एक शिक्षक के रुप से उन्होंने नौकरी की शुरुआत की, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे और आखिर में राज्यसभा के सदस्य भी बने.
गद्य की उनकी चर्चित किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' पर उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार और वर्ष 1972 में 'उर्वशी' प्रबंध काव्य पर ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया.
इसके अतिरिक्त हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, दिल्ली और हारे को हरिनाम और शुद्ध कविता की खोज आदि प्रमुख कृतियाँ उन्होंने लिखीं.
तिरुपति यात्रा के दौरान 24 अप्रैल 1974 को दिनकर का अचानक देहांत हो गया था.
(बीबीसी हिंदी डॉट काम के लिए, 22 सितंबर 2008)
युगधर्म का हुँकार भरने वाली ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखी हैं. ऐसी ही न जाने दिनकर की लिखी कितनी पंक्तियाँ आज आम लोगों के बीच कहावत बन चुकी है.
दिनकर जन्म शताब्दी वर्ष में एक बार फिर से उनके अद्भुत कृतित्व और अनूठे व्यक्तित्व की चर्चा की जा रही है. इसी सिलसिले में पिछले दिनों साहित्यकारों, आलोचकों और नेताओं ने दिल्ली के मावलंकर सभागार में अपने प्रिय कवि को याद किया.
इस समारोह का आयोजन एक ग़ैर सरकारी संगठन राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ स्मृति न्यास ने किया था.
लोकप्रिय कवि
सही मायनों में आधुनिक हिंदी कविता को लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिनकर और हरिवंश राय बच्चन को जाता है. आमजनों की भाषा में कविता लिख कर उन्होंने आम लोगों में हिंदी कविता के प्रति रुचि पैदा की.
यह एक अनोखा संयोग है कि वर्ष 2007 में बच्चन की जन्मशताब्दी मनाई गई और वर्ष 2008 में दिनकर की जन्मशताब्दी मनाई जा रही है.
'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' या, 'रेशमी नगर' दिल्ली के नेताओं पर व्यंग्य कसती, 'रेशमी कलम से भाग्य लेख लिखने वालो, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो क्या? ', जैसी दिनकर की कविताएँ जितनी आम जनता के बीच चर्चित हैं उतनी ही शासक वर्ग के बीच भी.
इस बात का प्रमाण है समारोह में दिनकर की रचनाओं के प्रशंसकों के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं भी मौज़ूदगी.
जन्म शताब्दी समारोह में कांग्रेस के डॉक्टर कर्ण सिंह, भारतीय जनता पार्टी के नेता मुरली मनोहर जोशी और समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह जैसे विभिन्न विचारधाराओं के राजनेताओं को एक साथ मंच पर बैठे देखना और उनसे दिनकर के बारे में सुनना किसी आश्चर्य से कम नहीं था.
इस समारोह का उद्घाटन करते हुए सांसद डॉक्टर कर्ण सिंह ने कहा, "दिनकर न सिर्फ़ हिंदी के बल्कि भारतीय साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं, जब भी भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा तब उनका नाम स्वर्णक्षरों में लिखा जाएगा."
पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने देश में चरमपंथ के बारे में बात करते हुए कहा, " दिनकर आज जीवित होते तो वे आतंकवाद के ख़िलाफ़ निश्चित ही आवाज़ उठाते."
लेकिन समारोह में दिनकर की चर्चा करते-करते समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी के हाल के संबंधों को लेकर टिप्पणी करने से नहीं चूके.
अमर सिंह ने दिनकर की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा कि-
'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,जो तटस्थ है, समय लिखेगा उसका भी अपराध.'
से ही प्रेरणा पाकर वे परमाणु करार के मुद्दे पर तटस्थ नहीं रहे, बल्कि कांग्रेस की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का साथ दिया.
राष्ट्रीय भावनाएँ
दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय भावनाएँ समाहित हैं. पराधीन भारत में जनता के संघर्ष को स्वर देता राष्ट्रीय काव्य उन्होंने जिस उत्कंठा के साथ लिखा, उसी निष्ठा के साथ उन्होंने आज़ाद भारत में जनता के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ भी लिखा.
समारोह में प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा, "दिनकर भारत के सच्चे लोकतंत्र के चिंतक थे. उनकी लिखी किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' भारत की सामासिक संस्कृति का ग्रंथ है न कि हिंदू संस्कृति का."
उन्होंने कहा कि दिनकर के इस जन्मशताब्दी वर्ष में समूचे कृतित्व और व्यक्तित्व पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है.
दिनकर के साहित्य का मूल्यांकन आसान नहीं है. उनकी कविता का पाट काफ़ी फैला हुआ है जिसे किसी एक कोटि में नहीं रखा जा सकता. एक तरफ़ कुरुक्षेत्र जैसे काव्य में जहाँ वे युद्ध और शांति जैसे विचारों से जूझते दिखते हैं और लिखते हैं-
जब तक मनुज मनुज का यह सुख भाग नहीं सम होगा/ शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा. वहीं वे उर्वशी जैसे प्रबंध काव्य में काम और प्रेम के शाश्वत सवालों से रूबरू होते दिखाई देते हैं और 'उर्वशी' के मनोभावों को व्यक्त करते हुए लिखते हैं, 'तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ़ आलिंगन में, मन से किंतु, विषण्ण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
' 'साहित्य के दिनकर'
दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय ज़िले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ.
बिहार में एक शिक्षक के रुप से उन्होंने नौकरी की शुरुआत की, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे और आखिर में राज्यसभा के सदस्य भी बने.
गद्य की उनकी चर्चित किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' पर उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार और वर्ष 1972 में 'उर्वशी' प्रबंध काव्य पर ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया.
इसके अतिरिक्त हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, दिल्ली और हारे को हरिनाम और शुद्ध कविता की खोज आदि प्रमुख कृतियाँ उन्होंने लिखीं.
तिरुपति यात्रा के दौरान 24 अप्रैल 1974 को दिनकर का अचानक देहांत हो गया था.
(बीबीसी हिंदी डॉट काम के लिए, 22 सितंबर 2008)
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