Friday, June 10, 2011

किसका देश


पिछले दिनों 'भारत माता की जय' के नारे खूब सुनाई दिए. काले दाढ़ी वाले बाबा, गेरुआ वस्त्र में योगी और गांधी टोपी पहने समाज के अलंबरदार इस जयकारे के अगुआ थे. 
पता नहीं जीवन के आखिर दिनों में मकबूल फिदा हुसैन इन नारों को सुन रहे थे कि नहीं. यदि सुन रहे थे तो क्या सोच रहे होंगे वे?
 
हाल ही में उन्होंने एक पेंटिग बनाई थी जिसमें भारत माता भ्रष्टाचार के दानव का नाश कर रही है. 
हुसैन की बनाई भारत माता की एक अन्य तस्वीर से विश्व हिंदू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों के कठमुल्लों को आपत्ति थी और उन्हें इनका विरोध झेलना पड़ा.
बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद मे उनकी गैलरी में तोड़-फोड़ की, घर को निशाना बनाया. 90 के दशक मे जब राजनीति की लड़ाई संस्कृति के हथियारों से लड़ी जाने लगी तो हिंदुत्व की नई परिभाषा भी गढ़ी गई. हुसैन की पेंटिंग पर सवाल उठने शुरु हुए.
हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीर बनाने को लेकर उन पर कई मुकदमें दर्ज किए गए. गौरतलब है कि ये तस्वीरें उन्होंने 70 के दशक में ही बनाई थी लेकिन उन्हें कटघरे में बीस-पच्चीस साल बाद खड़ा किया गया. यही आखिरकार हुसैन के जीवन के आखिर वक्त में निर्वासन में जीने की वजह भी बनी. 
हुसैन ने पेंटिंग की एक नई भाषा गढ़ी जिसमें आजाद भारत की खुशबू लिपटी है. भारत माता उनकी पेंटिंग में 'विशिष्ट स्वरलहरी' की तरह रही हैं. भारत माता और भारतीयता को वे एक कलाकार के नजरिए और प्रिज्म से देखते थे लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का माला जपने वालों को उनमें कलाकार कम और मुसलमान ज्यादा दिखता था.
वर्ष 2000 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "इतिहास गवाह है कि अपने समय में लोगों की पहचान नहीं होती." हुसैन के बारे में शायद यह किसी भी भारतीय कलाकार से ज्यादा सच है. वे हमारे समय से सबसे ज्यादा चर्चित कलाकार रहे, लेकिन उन्हें पहचानने में ना सिर्फ राज्य और सत्ता बल्कि हमारा कला समाज भी नाकाम रहा.
भारत से उन्हें बेहद प्यार था और भारत की सामासिक संस्कृति उनके चित्रों में झलकती थी. जीवन के आखिरों दिनों में भी वे महाभारत को अपनी पेंटिग में उकेर रहे थे. रामायण पर बनाई उनकी पेंटिग सीरिज भारतीय कला की धरोहर है.
डेढ़ साल की उम्र में माँ की मौत से उपजे बिछोह को वे जिंदगी भर ढूंढ़ते रहे. वह 'भारत माता' हों या 'मदर टरेसा', वे एक माँ की छवि आंकते रहे. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले, भारत माता की जयकार लगाने वाले इसे आजादी की दूसरी लड़ाईबता रहे हैं. आजादी की इस लड़ाई में हुसैन जैसों की कितनी चिंता है उन्हें?
जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुँचे हुसैन को भारतीय राज्यसत्ता ने नकार दिया था. आत्म-निर्वासन के दौरान उन्हें कतर की नागरिकता पेश की गई जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. बार बार देश लौटने की बात करने वाले हुसैन के लिए लंदन के अस्पताल में आखिरी सांसे लेना कितनी भारी रहा होगा, यह निर्वासन में जीने वाला ही समझ सकता है!
क्या यह हुसैन की नियति थी कि उन्हें अपने देश में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई या हमारी बदकिस्मती
(जनसत्ता, समांतर कॉलम में 23 जून 2011 को प्रकाशित)

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