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Sunday, August 03, 2025

संघर्ष से उपजी कला

 



मिथिला चित्र शैली अपने अनोखेपन और बारीकी के लिए देश-दुनिया में प्रतिष्ठित है और कला जगत में खास महत्व रखती है. पिछले दशक में एक बार फिर से देश-दुनिया इस कला की काफी चर्चा हो रही है और कई कलाकार पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हुए हैं. विषयों की विविधता, जीवन-जगत और लोक के संघर्ष का चित्रण इस पारंपरिक कला को समकालीन बनाता रहा है.

वर्ष 1934 में मिथिला क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के दौरान ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने वर्ष 1949 में ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नजर इस लोक कला पर पड़ी थी.

इस कला को लेकर नौ लोगों को अब तक पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, लेकिन इन ग्रामीण महिलाओं के जीवन-वृत्त, संघर्षों के बारे में हिंदी में अभी भी स्तरीय पुस्तकों का अभाव रहा है. कलाप्रेमी और लेखक अशोक कुमार सिन्हा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक-‘आंसुओं के साथ रंगों का सफर’ इस कमी को पूरा करती है. वे इस किताब के बारे में लिखते हैं: “मिथिला पेंटिंग के कुल 25 महिला कलाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के अभिलेखीकरण का प्रयास किया है. पुस्तक में उनके दुख और संघर्ष साथ-साथ उनके सपनों की उड़ान भी है.” जैसा कि स्पष्ट है किताब में जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी, गोदवरी दत्ता, दुलारी देवी, शांति देवी जैसे सिद्ध कलाकारो के अलावे कई जैसे कलाकारों के जीवनवृत्त और उनकी कला का ब्यौरा दिया गया है जिससे कला जगत अपरिचित है. इस लिहाज से इस किताब का महत्व बढ़ जाता है.

वर्ष 2011 में जब महासुंदरी देवी को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई तब मैं उनसे मिलने उनके गांव रांटी गया था. उन्होंने मुझे कहा था: “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” समय के साथ मिथिला कला में पुरुषों और दलित कलाकराों का दखल बढ़ा है. नए-नए समकालीन विषय इसमें जुड़ते गए हैं. शिक्षा के प्रसार से युवा कलाकारों की दृष्टि संवृद्ध हुई है. मिथिला पेंटिंग को 'कोहबर' की चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित करने में इनका काफी योगदान है.

समीक्षक: अरविंद दास

किताब: आंसुओं के साथ रंगों का सफर

प्रकाशक: क्राफ्ट चौपाल

कीमत: 500 रुपए

Sunday, August 18, 2024

संघर्ष से उपजी गोदावरी दत्त की कला

मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त (1930-2024), गंगा देवी, सीता देवी  और महासुंदरी देवी की पीढ़ी की थी. उनके निधन से एक युग का अवसान हो गया. पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित गोदावरी दत्त एक दक्ष गुरु भी थीं. मधुबनी जिले के नजदीक रांटी गाँव में रहकर उन्होंने अनेक कलाकारों को मिथिला कला में प्रशिक्षित किया. उनकी पोती, प्रीति कर्ण जो खुद एक पुरस्कृत कलाकार हैं ने बताया कि वे उनकी भी गुरु थीं और आखिरी समय तक कला को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर रही. प्रीति ने कहा कि मैंने उनकी ही देख-रेख में बचपन से ही पेंटिंग करना सीखा है. उनके साथ मैंने कई कार्यक्रम में हिस्सा लिया.

करीब दस वर्ष पहले जब मैं उनसे मिलने उनके गाँव गया तब उन्होंने मिथिला की प्रसिद्ध कोहबर शैली के बारे में विस्तार से बताया था. प्रसंगवश, उनके घर की अंदरुनी दीवार पर एक विशाल कोहबर का चित्रण है. मिथिला में नव वर-वधू के लिए कोहबर लिखने की कला सदियों पुरानी है.

द्त्त ने इस पारंपरिक कला को अपनी माँ सुभद्रा देवी से सीखा था, जो खुद एक चर्चित कलाकार रही थी. वर्ष 2019 में जब उन्हें पद्मश्री मिला तब मैंने उनसे मैथिली में लंबी बातचीत की थी. उन्होंने बताया था कि मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टच’ को लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.’ उन्होंने कहा था कि यह पेंटिंग आज की नहीं हैये हमारी संस्कृति है. बिना पेंटिंग के मिथिला में शादी-विवाह का कोई काम पूरा नहीं हो सकता.

गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं. रामायणमहाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक होंपर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. दत्त की पेंटिंग की प्रदर्शनियां देश-विदेश के कई शहरों में लगाई गई.

जापान स्थित मिथिला म्यूजियम के लिए गोदावरी दत्त ने सात बार जापान की यात्रा की. उन्होंने बताया कि मिथिला पेंटिंग की शैली में उन्होंने जापान स्थित संग्रहालय में 18 फुट लंबा एक त्रिशूल बनाया थाजिसे बनाने में उन्हें छह महीने का वक्त लगा. वहीं पर उन्होंने एक अर्धनारीश्वर की पेंटिंग भी बनाई जिसमें भगवान शंकर के हाथ में त्रिशूल और डमरू है. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन पिछली सदी के साठ के दशक में दिखाया गया है पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है.  उन्होंने कहा था कि  इसे बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था और लोग इसे लिखिया कहते थे.

मिथिला पेंटिंग की अन्य प्रसिद्ध कलाकारों की तरह उनकी जिंदगी भी काफी संघर्षपूर्ण रही. उनके जीवन पर कलाकार नमस्कार’ नाम से एक फिल्म भी बनी है. मिथिला के सामंती समाज में गोदावरी दत्त जैसी स्त्रियों के जीवन का कटु यथार्थ उनकी कल्पना से जुड़ कर इस पारंपरिक कला को असाधारण बनाता रहा है. 

Wednesday, May 25, 2022

गोंड कला के समकालीन रंग मार्फत जनगढ़ सिंह श्याम


समकालीन गोंड कला के क्षेत्र में पद्मश्री दुर्गाबाई व्यामपद्मश्री भज्जू श्याम और वेंकट रमण सिंह श्याम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. इन सम्मानित कलाकारों की एक निजी शैली और विशिष्टता हैजो उनकी चित्रों में दिखाई देती है. व्यक्तिगत संघर्षमेहनत-मजदूरी और पारिवारिक रिश्तों से ये तीनों जुड़े हैं, पर एक तार और है जो इन्हें आपस में जोड़ती है. यह तार गोंड कला के प्रमुख कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम हैंजिन्होंने इस कला को भारतीय  आधुनिक कलाओं के बीच स्थापित किया. तीनों ही जनगढ़ सिंह श्याम को प्रेरणास्रोत मानते हैं.

वर्ष 1962 में मध्यप्रदेश के पाटनगढ़ गाँव में परधान गोंड जनजाति में जन्मे जनगढ़ सिंह श्याम ने वर्ष 2001 में जापान के मिथिला म्यूजियम में आत्महत्या कर ली थीजहाँ वे संग्रहालय के निदेशक टोकियो हासेगावा के निमंत्रण पर पेंटिंग करने गए थे. इस साल उनकी 60वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है और विभिन्न कला दीर्घाओं में उनके सम्मान में गोंड कला की प्रदर्शनी चल रही है.

जिसे हम आज परधान गोंड कला के नाम से जानते हैं वह वर्षों से भित्तिचित्रों के माध्यम से गोंड आदिवासी घरों में प्रचलन में थीपर पिछली सदी के 80 के दशक में जनगढ़ सिंह श्याम कागजी चित्रों और भित्तिचित्रों द्वारा अपने इलाके से बाहर लेकर गए और देश-दुनिया में पहुँचाया. रेखा, बिंदु और चटख रंगों ने जनगढ़ सिंह श्याम की कूची का सहारा पाकर एक नया आयाम ग्रहण किया. गोंड सांस्कृतिक जीवन के केंद्र में रहने वाले लोक देवतामिथकगाथाजीव-जंतुपेड़-पौधे उनके यहाँ परंपरा और आधुनिकता के मिश्रित रंग में आते हैं. वे अपनी आदिवासी कला लेकर दिल्ली, कोलकाता और पेरिस भी गए थे.

जनगढ़ सिंह श्याम के भतीजे वेंकट रमण सिंह श्याम कहते हैं कि वे बचपन से ही प्रतिभाशाली थे. गोंड कला में उन्होंने काफी प्रयोग किए. उनके प्रयोग से इस चित्रकला में एक नया रूपनया आकार उभरा.’  वे कहते हैं कि भोपाल के भारत भवन में आकर चाचा ने पेपर के ऊपर पेंटिंग की, लिथो, इचिंग के क्षेत्र में भी काम किया. प्रिंटिंग विभाग में उन्होंने गोंड देवी-देवताओंकिस्से-कहानियोंअपनी गाथाओं को चित्रित किया. परधान गोंड के यहाँ पारंपरिक रूप से गाथाओं का महत्व रहा है.

उल्लेखनीय है कि उन्हें भारत भवन लाने का श्रेय आधुनिक चित्रकार और भारत भवन में रूपंकर म्यूजियम के निदेशक जगदीश स्वामीनाथन को जाता है. वे 19 साल के जनगढ़ को गाँव से भारत भवन (भोपाल) लेकर आए. वर्ष 1986 में जनगढ़ को मध्यप्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान दिया था. 

प्रसंगवशभील कला के क्षेत्र में पिछले वर्ष पद्मश्री से सम्मानित भूरीबाई को भी स्वामीनाथन ही भारत भवन लेकर आए थे. उन्हें भी शिखर सम्मान मिला था. पद्मश्री मिलने के बाद भूरीबाई ने भी मुझे एक बातचीत के दौरान बताया थाऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं. वे मेरे गुरु भी थे और देव के रूप में भी मैं उनको मानती हूँ. वर्ष 1990 में स्वामीनाथन ने भारत भवन छोड़ दिया था और वर्ष 1994 में उनकी मृत्यु हो गई. जनगढ़ कहते थे कि स्वामीनाथन की मौत के बाद मैं अनाथ हो गया!’.

यह पूछने पर कि जनगढ़ श्याम ने क्यों आत्महत्या कीवेंकट कहते हैं कि जनगढ़ के मन में निराशा थी कि उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. वेंकट ने एस आनंद के साथ मिल कर फाइंडिंग माय वे’  नाम से एक किताब लिखी हैजिसमें उन्होंने वाजिब सवाल उठाया है: ‘किसी ने भी नहीं सोचा कि जनगढ़ जैसा काबिल कलाकार क्यों 12 हजार महीने (300 डॉलर) पगार पर विदेश की धरती पर काम कर रहा थासाथ ही उन्होंने करार कर रखा था कि वहाँ पर की गई चित्रकारी म्यूजियम की संपत्ति होगी.  हालांकि वेंकट लिखते हैं कि जनगढ़ की मौत से गोंड कला जी उठी.

वेंकट कहते हैं कि जनगढ़ की मौत के बाद ही मैंने कलाकार बनने की ठानी. हममें से कइयों ने सोचा कि हम जनगढ़ का स्थान ले सकते हैं.’ इस कला को शुरुआत में क्राफ्ट कह कर खारिज किया गया पर जनगढ़ की कला के साथ इसे समकालीन भारतीय कला की श्रेणी में गिना जाने लगा. आज इस कला की कलाकृतियों को ऊंचे दामों पर खरीदा जा रहा है और इससे कई युवा कलाकार जुड़ें हैं.

इस कला की कई चित्रात्मक किताबें भी आज प्रकाशित है. खास कर भज्जू श्याम की किताबें काफी चर्चित हुई हैं.

समकालीन गोंड कला में रेखांकन का तरीका सब कलाकारों का अलग है. चित्रों में जो पैटर्न और स्ट्रोक है वह अलग दिखता है. इसमें आदिवासी जीवन प्रसंगों के साथ निजी जीवन प्रसंगों की झलक भी दिखती है. हालांकि वेंकट कहते हैं कि आज युवा कलाकार सेमिसर्किल और बिंदी को अपनाने में लगे हैं. वे कहते हैं कि युवा पीढ़ी में इंटरनेट से कॉपी करने पर जोर बढ़ा हैं.

वेंकट कहते हैं कि मिथिला पेंटिंग के प्रसिद्ध कलाकारों की तरह ही गोंड कलाकारों को अपना रूपाकार गढ़ने पर जोर देना चाहिए. सही मायनों में गोंड कला के प्रणेता जनगढ़ श्याम और जनगढ़ कलम के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Tuesday, November 16, 2021

मिथिला पेंटिंग से जुड़ रहा मुस्लिम स्वर

 

ईद मुबारक, सरवरी बेगम

पिछले हफ्ते मिथिला पेंटिंग (मधुबनी पेंटिंग) के क्षेत्र में योगदान के लिए दुलारी देवी को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया तब मैं उनके गाँव रांटी में था. रांटी मधुबनी जिले से बिल्कुल सटा हुआ है. इस गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त को इससे पहले मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. विशेषकरदुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी है. ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को अपनाया है. हाल ही में रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण ने मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को इस कला से जोड़ा है, जिसे रेखांकित किए जाने की जरूरत है.

दुलारी देवी अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से आती हैं. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कुछ समय के बाद उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवीकर्पूरी देवी को चित्र बनाती हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.”  फिर धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्ति चित्र बनाया है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नईकोलकाताबैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.

दुलारी देवी के चित्रांकन की शैली कचनी से मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँआत्म संघर्ष अंकित है. जहां दुलारी देवी पारंपरिक विषयों, रीति-रिवाजोंअनुष्ठान आदि को अपनी पेंटिंग का विषय बनाती हैं, वहीं रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण, शांतनु दास समकालीन विषयों को चित्रित करते हैं. उस दिन रांटी में स्थित अविनाश कर्ण के स्टूडियो- आर्ट बोले, में बिखरी पेंटिंग को देख कर मिथिला पेंटिंग में आ रहे बदलावों की झलक मिली जिससे इस कला के भविष्य के प्रति एक उम्मीद बंधती हैं. मिथिला में महिलाओं को कोहबर, राम-सीता, मछली, नाग आदि विषय परंपरा के रूप में मिली हैं. अविनाश ने जहाँ बचपन से अपने गाँव में मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को देखा है, वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से फाइन आर्टस में विधिवत प्रशिक्षण भी लिया है. इसी तरह शांतनु दास की शिक्षा-दीक्षा का असर उनकी कला पर दिखता है. इससे पहले रांटी के ही चर्चित वरिष्ठ कलाकार, संतोष कुमार दास बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से फाइन आर्टसमें प्रशिक्षण ले चुके थे.

अविनाश इन दिनों एक गैर सरकारी संस्थान आर्टरीच इंडिया और कलाकार सीमा कोहली के सहयोग से एक सामुदायिक परियोजना, अक्स, पर काम कर रहे हैं. आस-पास के गाँव की मुस्लिम लड़कियों को इस प्रोजेक्ट से जोड़ कर उन्होंने मिथिला पेंटिंग को एक नया आयाम दिया है. धर्म और जाति से बंटे समाज में इस तरह की पहल स्वागतयोग्य है. वे कहते हैं कि मुस्लिम लड़कियों के अंदर मिथिला कला को सीखने की ख्वाहिश वर्षों से थी पर उन्हें कोई एवेन्यू नहीं मिल रहा था.’ मधुबनी के नजदीक शेख टोली, गौशाला चौक की मुस्लिम लड़कियाँ मिथिला पेंटिंग में नए-नए विषय लेकर आ रही हैं जिसमें सांप्रदायिक सौहार्द, मुस्लिम समाज में दहेज, स्त्रियों पर होने वाली हिंसा और अन्य सामाजिक मुद्दे प्रमुख हैं.  

यहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मिथिला पेंटिंग में पारंपरिक विषयों से इतर समकालीन मुद्दों को लाने का श्रेय प्रसिद्ध कलाकार, पद्मश्री से सम्मानित, गंगा देवी (1928-1991) को जाता है जिन्होंने पिछली सदी के अस्सी के दशक में अमेरिका की अपनी यात्रा को मधुबनी शैली में चित्रित किया. सीता देवी, गंगा देवी की पीढ़ी के बाद के दशक में, बाजार के फैलने से मिथिला पेंटिंग में क्राफ्ट पर जोर बढ़ा और कलाकार की विशिष्ट छाप गायब होने लगी. इक्कीसवीं सदी में मिथिला पेंटिंग के कला रूप में उत्तरोत्तर विकास दिखा है. मिथिला चित्र शैली में भ्रूण हत्यादहेजअंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे समसामयिक विषय पारंपरिक विषयों के साथ साथ चित्रित किए जाने लगेवर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद संतोष कुमार दास ने सांप्रदायिकता को लेकर गुजरात सीरीज बनाई थी जो काफी चर्चित रही. लोक कला में इस तरह के राजनीतिक-सामाजिक विषय पहले नजर नहीं आते थे. इन दिनों पेंटिंग की अच्छी कीमत भी कलाकारों को मिलने लगी है. पहले औने-पौने दामों पर बिचौलिये मधुबनी के कलाकारों की पेंटिंग बेचते थे.

कुछ साल पहले रांटी के ही शांतनु दास ने हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता अकाल और उसके बाद को अपनी कूची का आधार बनाया. साहित्य को मिथिला पेंटिंग का विषय बनाना एक नया प्रयोग था जिसे काफी सराहना मिली. अविनाश कहते हैं कि यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने.’ ‘आर्ट बोले स्टूडियो में सरवरी बेगम, सलेहा शेख, सजिया बुशरारहमती खातून, शमीमा परवीन की जो पेंटिंग दिखी वह कलात्मक रूप से अभी भले ही परिपक्व न हो, लेकिन विषय-वस्तु का फैलाव, मुस्लिम समुदाय का जुड़ाव इस पेंटिंग के विकसनशील होने का प्रमाण है. किसी भी कला की तरह मिथिला पेंटिंग में नवतुरिया स्वर और नए प्रयोग की जरूरत है, जो सदियों पुराने इस कला को एक नई पहचान दे सकें.

 (न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Monday, February 01, 2021

दुलारी देवी और भूरी बाई: संघर्ष से जन्मी कला


मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए मधुबनी जिले के रांटी गाँव की दुलारी देवी को पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है. यूँ तो मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में अब तक छह महिला कलाकारों को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है, पर उनकी कला यात्रा उन्हें एक अलग लीक में ले जाती है. पारंपरिक रूप से मिथिला कला में कायस्थों और ब्राह्मणों की उपस्थिति रही है, पर पिछले कुछ दशकों में दलित कलाकारों का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी हाशिए के समाज से आती हैं. उनकी कला में उनका जीवन अनुभव और संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखता है.


पद्मश्री की घोषणा के बाद जब मैंने उनसे बात किया तो उन्होंने कहा- बहुत कष्ट स गुजरल छी. बहुत संघर्ष में सीखने छी. आई हमरा बहुत खुशी होइय. एते दिन सुनै छलिए. हमर गाम के महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त...बौआ देवी (जितवारपुर) के भेटल रहैन. आई हमरो भेटल ए त आरो खुशी होइए. (बहुत कष्ट से गुजरी हूँ. बहुत संघर्ष में रह कर सीखी. मुझे बहुत खुशी है. पहले सुनती थी कि मेरे गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त...बौआ देवी (जितवारपुर) को पुरस्कार मिला. आज मुझे भी मिला तो और भी खुशी हुई.)


असल में,
मछुआरा जाति में जन्मी दुलारी देवी की ज़िंदगी किसी लोक कथा से मिलती-जुलती है. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कम उम्र में एक लड़की को जन्म दिया जो ज़िंदा नहीं रही. फिर पति के ताने. पंद्रह साल की होते होते उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी को चित्र बनाती हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.”  फिर धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्तिचित्र बनाया  है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नई, कोलकाता, बैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.

 
दुलारी देवी को शब्दों की पहचान भले ना हो, पर रंगों की बखूबी पहचान है जो उनके चित्रों में दिखती है. उनके चित्रांकन की शैली मिथिला पेंटिंग के कचनी शैलीसे मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में मिथिला पेंटिंग की पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँ, आत्म संघर्ष अंकित है. कुछ वर्ष पहले आई उनकी आत्मकथा फालोइंग माइ पेंट ब्रशमें उन्होंने इसे रेखाचित्र के माध्यम से उकेरा है.  


मुझे याद है कि जब मैं रांटी में उनसे मिलने गया तब उनसे एक पेंटिंग खरीदी थी और उनसे कहा था कि अपना नाम लिख दीजिए. पर जब मैंने दिनांक अंकित करने को कहा तब उन्होंने कहा था कि बस मुझे नाम लिखना आता है!


इसी तरह इस साल भीली शैली चित्रकला के लिए चर्चित कलाकार भूरीबाई को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई. उनका जीवन भी दुलारी देवी की तरह ही संघर्ष से भरा रहा है. वह भील जनजाति से आने वाली पहली महिला है जिन्होंने कागज और कैनवास पर अपने अनुभवों  और जातीय स्मृतियों को दर्ज किया है. उनके चित्रों में जीवन के अनुभव जीवंत है. अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भोपाल स्थित भारत भवन के निदेशक थे, तब भूरीबाई की प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया. भूरीबाई वहाँ पर मजदूरी के लिए आई थी. आज भी वह शिद्दत से उन्हें याद करती हैं. वह कहती हैं, ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं. वे मेरे गुरु भी थे और देव के रूप में भी मैं उनको मानती हूँ.

 
भूरीबाई के चित्रों के माध्यम से भीलों का जीवन आधुनिक भारतीय चेतना का हिस्सा बना. दुलारी देवी की तरह ही उनके चित्रों में आत्मकथात्मक रंग भरा है. उन्होंने भी अपनी कहानी दीवारों पर अंकित करने के साथ डॉटेड लाइंसकिताब में कही है. इसमें वह झाबुआ जिले में स्थित अपने गाँव के बारे में रेखांकित करती हैं.  अपने पेंटिंग में वह पारंपरिक पिठौरापर्व के चित्रण के माध्यम से भीलों की संस्कृति को खूबसूरत रंगों से उकेरती हैं. वह कहती हैं कि पिठौरा देव के घोड़े को महिलाएँ नहीं बनाती है. इसे पारंपरिक रूप से पुरुष ही मिल कर बनाते हैं. इस अनुष्ठान से जुड़ी जो अन्य पेंटिंग हैं-मोर, पेड़ और भी बहुत कुछ वह मैं बनाती हूँ.उनके अन्य चित्रों में भीलों का जन-जीवन, पेड़-पौधे, घोड़े-बैल, ढोल-मांदल, गाँव के आस-पड़ोस का अंकन है. 

 

उनकी रेखाओं और चटख रंगों के चयन में एक सहजता सब जगह दिखती है. यहाँ बिंदियों की प्रधानता है, जो भील जनजाति के जीवन-यापन से जुड़ी है. इन बिंदियों को वह खेती के समय मक्का बोने की स्मृतियों से जोड़ती है. भूरीबाई अपनी कला के संग देश के अनेक हिस्सों सहित अमेरिका भी गई. उनकी सफलता से प्रभावित होकर आज भील समुदाय की बहुत सारी युवतियाँ इस कला से जुड़ी हैं. 

(बीबीसी, 1 फरवरी 2021)

Sunday, August 02, 2020

लोक कला की संघर्ष चेतना: मिथिला पेंटिंग

मिथिला या मधुबनी पेंटिंग एक बार फिर से चर्चा में है. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर मधुबनी शैली में बने मास्क की तस्वीरें खूब साझा की गईं, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ‘मन की बात’ प्रसारण में नोटिस लिया. उन्होंने कहा ‘ये मधुबनी मास्क एक तरह से अपनी परंपरा का प्रचार तो करते ही हैं, लोगों को स्वास्थ्य के साथ रोजगार भी दे रहे हैं.’ कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह मिथिला पेंटिंग पुनर्नवा हुई है, वह इस पेंटिंग की जीवंतता का प्रमाण है.

सच तो यह है कि जब वर्ष 1934 में ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा, वह इस क्षेत्र में आए भीषण भूकंप की त्रासदी के बाद ही संभव हुआ. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नज़र इस लोक कला पर पड़ी थी. हालांकि उन्होंने इस कला के लिए ‘फोक (लोक)’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन साठ के दशक में दिखाया गया है, पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है. पहले इसे ‘बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था.

बाद में अखिल भारतीय हस्त शिल्प बोर्ड, दिल्ली के चित्रकार भास्कर कुलकर्णी ने इस चित्रकला को परखा और प्रोत्साहित किया. उन्होंने साठ के दशक में मधुबनी जाकर निकट के गाँव रांटी, जितवारपुर आदि के पाँच स्त्री कलाकारों को पेंटिग के लिए चुना था. पद्म श्री से सम्मानित रांटी की महासुंदरी देवी ने वर्ष 2012 में मुझे बताया था कि “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” महासुंदरी देवी ने भास्कर कुलकर्णी के लिए आठ चित्र और बनाए थे. उन्होंने कहा था कि शुरुआत में घर वाले इन चित्रों के बदले मिलने वाले पैसे को अच्छी निगाह से नहीं देखते थे पर धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई. सर्वविदित है कि इस कला में शुरुआती दिनों से परंपरा के रूप में ब्राह्मण और कायस्थ परिवार की स्त्रियों की सहभागिता रही. बाद में इस पेंटिंग में दलित महिलाओं का भी योगदान रहा और कचनी, भरनी शैली से इतर गोदना शैली की उपस्थिति दर्ज हुई.

वर्ष 1965-66 के दौरान बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. भास्कर कुलकर्णी ने मिथिला क्षेत्र की महिलाओं को कागज पर चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि आमदनी के स्रोत के रूप में यह कला विकसित हो सके. फिर जगदंबा देवी, गंगा देवी, सीता देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी और गोदावरी दत्त जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से देश और दुनिया का परिचय हुआ. कालांतर में पद्मश्री सहित इन्हें देश के अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया. मिथिला चित्रकला की लोक चेतना संघर्ष की चेतना है और यही वजह है कि जहाँ देश की अन्य लोक और जनजातीय कलाएँ सिमटती गई, मिथिला पेंटिंग अपनी रंगों की विशिष्टता और विषय-वस्तु में अभिनव प्रयोग से देश-दुनिया के कलाप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रही है.


(प्रभात खबर, 2 अगस्त 2020)

Tuesday, March 19, 2019

मिथिला की लिखिया कला


पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला कला की वयोवृद्ध एवं सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त को पद्मश्री से सम्मानित किया. राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल से राष्ट्रपति भवन ने गोदावरी दत्त की तस्वीर शेयर करने के साथ ही लिखा कि पारंपरिक कला को बढ़ावा देने, उभरते कलाकारों को प्रशिक्षित करने और मार्गदर्शन के लिएउन्हें यह सम्मान दिया गया.

मधुबनी जिले के रांटी गांव में रहनेवाली, शिल्प गुरु, गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं.

रामायण, महाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक हों, पर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. वे खुद कहती हैं कि मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टचको लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.

कोहबर, सीता-राम, अर्धनारीश्वर जैसे पारंपरिक विषयों के अलावे मिथिला कला में भ्रूण हत्या, आतंकवाद, खेती जैसे विषय भी पिछले दो दशकों में चित्रित किये गये हैं. यह सैकड़ों साल पुरानी इस कला के विकसनशील होने का प्रमाण है.

पिछली सदी में जब प्रसिद्ध मिथिला कलाकार गंगा देवी ने अमेरिकी प्रवास को अपनी पेंटिंग मे चित्रित किया, आत्मकथात्मक रेखांकन किया, तब कला के पारखियों की नजर इस कला में निहित आधुनिक भाव बोध और संवेदनाओं की ओर गयी.

इसी तरह संतोष कुमार दास ने गुजरात सीरीजबनाकर गुजरात दंगों के दौरान धर्म-हिंसा के गठजोड़ को चित्रित कर इस कला को समकालीन समय और समाज से जोड़ा. आम तौर पर पारंपरिक कला में इस तरह के विषय नहीं देखे जाते.
हाल ही में शांतनु दास ने नागार्जुन की चर्चित कविता अकाल और उसके बादको एक बड़े कैनवस पर मिथिला कला की शैली में चित्रित किया है. नये युवा कलाकारों की शिक्षा-दीक्षा और माइग्रेशनने उनकी सोच और संवेदना का विस्तार किया है, जो इस कला में आज प्रमुखता से दिखायी देता है.

असल में, 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में ही आधुनिक विषय-वस्तु का इस पारंपरिक कला में प्रवेश दिखता है. अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यूजी आर्चर ने मार्गपत्रिका में वर्ष 1949 में जब मैथिल पेंटिंगलेख लिखा, तब उन्होंने इस कला के लिए फोक (लोक) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था.

साथ ही मिथिला क्षेत्र में वर्ष 1934 में आये भूकंप के बाद आर्चर ने जो चित्र उतारी थी, उनमें दीवारों पर मिथिला शैली में रेलगाड़ीका चित्रण मिलता है. जाहिर है, उस समय भी लोग पारंपरिक विषय-वस्तुओं से अलग आधुनिक विषयों को अपनी कलम और कूची का आधार बनाते रहे थे. प्रसंगवश, आज भी पुराने लोग मिथिला कला को लिखियाकहते हैं, पेंटिंग नहीं.


(प्रभात खबर, 19 मार्च 2019 को प्रकाशित)

Saturday, February 02, 2019

बिना पेंटिंग के मिथिला में विवाह पूरा नहीं होता: गोदावरी दत्त

गोदावरी दत्त से बातचीत, नवभारत टाइम्स
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित 89 वर्ष की शिल्पगुरु, मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त को कला के क्षेत्र में पद्मश्री देने की घोषणा हुई है। मधुबनी के नजदीक, रांटी गांव में रहने वाली दत्त की पेंटिंग की प्रदर्शनियां देश-विदेश के कई शहरों में लगाई जा चुकी हैं। उनकी जिंदगी काफी संघर्षपूर्ण रही है। उनके जीवन पर कलाकार नमस्कारनाम से एक फिल्म भी बनी है। प्रस्तुत हैं गोदावरी दत्त से हाल ही में हुई अरविंद दास की लंबी बातचीत के मुख्य अंश:

क्या आपको पद्म पुरस्कार मिलने में देरी हुई?

मुझे पुरस्कार की घोषणा सुन कर बहुत खुशी हुई। खूब उत्साह है। पर मेरे प्रिय-परिजनों को लगता है कि मुझे पहले ही यह पुरस्कार मिल जाना चाहिए था।

अंग्रेज अधिकारी डब्लू. जी. आर्चर ने मार्गपत्रिका में वर्ष 1949 में मैथिल पेंटिंगलेख लिख कर दीवार पर उकेरी जाने वाली इस पारंपरिक कला से दुनिया का परिचय कराया, लेकिन वास्तव में यह पेंटिंग कितनी पुरानी है?

यह पेंटिंग आज की नहीं है, ये हमारी संस्कृति है। बिना पेंटिंग के मिथिला में शादी-विवाह का कोई काम पूरा नहीं हो सकता। कोहबर लिखने की कला सदियों पुरानी है। शादी के समय कोहबर, पुरहर, पातिल, दशावतार, कमलदह आदि लिखने की परंपरा रही है। पहले इसे बसहा पेपर पर लिखा जाता है। मैंने अपनी मां सुभद्रा देवी से पेंटिंग सीखी। पहले इसे लिखिया कहा जाता था। मेरी माँ, सुभद्रा देवी मेरी कलागुरु भी थीं। जब मैं पांच-छह साल की थी तभी से पेंटिंग बनाने लगी थी। 60 के दशक के आखिरी वर्षों में लोगों ने यह पेंटिंग कागज पर बनाना शुरू किया। बाहर की दुनिया के लिए कागज पर मैंने पहली पेंटिंग 1971 में बनाई थी।

अपनी कौन सी पेंटिंग बनाने में आपका मन सबसे ज्यादा रमा?

मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि कौन सी पेंटिंग बना कर मुझे ज्यादा खुशी मिली। मैंने बहुत ज्यादा पेंटिंग नहीं बनाई है, लेकिन जो भी बनाई वह मन से बनाई है, बहुत स्नेह से बनाई है और मेरी सारी पेंटिंग मुझे पसंद हैं।

जापान के मिथिला म्यूजियम में जो विशाल त्रिशूल आपने बनाया उसके बारे में कुछ बताइए।

(हंसते हुए) मैंने सात बार जापान की यात्रा की है। मैंने वहां पर अर्धनारीश्वर की पेंटिंग बनाई जिसमें भगवान शंकर के हाथ में त्रिशूल है, डमरू है। मिथिला म्यूजियम के टोकियो हासेगेवा को वह पेंटिंग बहुत पसंद आई, मुझे भी अच्छा लगा। हासेगेवा ने कहा कि एक त्रिशूल अलग से बना दीजिए, डमरू अलग से बना दीजिए। मन में एक संशय था कि यह कितना लंबा बनेगा। पर बाबा की कृपा थी कि 18 फुट लंबा वह त्रिशूल जब बनाना शुरू किया तो अनायास उसमें नागफनी, सूर्य-चंद्रमा, ओम डिजाइन में आ गया। बनाने के बाद मेरा मन हल्का हो गया था और उसके बाद मैंने कहा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश सबकी शक्ति इस त्रिशूल में निहित है। वह बहुत ही सुंदर बन गया।

आपकी पेंटिंग में ऐसी कौन सी विशिष्टता है जो आपको दूसरों से अलग करती है?


इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगी। आप इसे खुद देख कर समझ सकते हैं। किसी भी कलाकार में क्या विशिष्टता है यह देखने वालों पर निर्भर करता है।

आपकी कोई नई पेंटिंग जिसके बारे में आप बताना चाहें?

एक पेंटिंग के बारे में बताना चाहूंगी। मैंने अपनी स्मृति से जापान के लोक पर्व का चित्रण किया है। जैसे अपने यहां पर्व-त्योहार होता है वैसा ही इसमें है। अमेरिकी एंथ्रापलॉजिस्ट डेविड सैनटन के कहने पर मैंने यह पेंटिंग बनाई है। काफी महंगी है यह।

पहली पेंटिंग आपकी कितने में बिकी थी?

मेरी पहली पेंटिंग 25 रुपये में बिकी थी। उस समय घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं माना जाता था, यह वर्जित था। रांटी से मैं नजदीक के शहर मधुबनी भी नहीं जा पाती थी। पुरुषों को हम लोगों से मिलने की मनाही थी। मधुबनी में जब 1971 में ललित नारायण मिश्र के सहयोग से हैंडिक्राफ्ट का कार्यालय खुला, तब उसके पहले उप निदेशक एच. पी. मिश्रा बने। वे बहुत ही भले और नेक दिल इंसान थे। वे गांव-गांव घूम कर कलाकारों को ढूंढ कर काम दिया करते थे। मैंने कागज पर बनी अपनी कुछ पेंटिंग उन्हें दी थी।

और सबसे महंगी पेटिंग कितने में बिकी?

कोलकाता स्थित बिड़ला के एक संस्थान ने लगभग पंद्रह वर्ष पहले सवा लाख में मेरी एक पेंटिंग खरीदी थी।

इन पचास वर्षों में मिथिला पेंटिंग की शैली में आपने क्या बदलाव देखा है?

बदलाव तो खूब आया है। जैसे मेरी मां या पद्म श्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टचलिए होती थी। आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है।

नए कलाकारों के लिए क्या संदेश आप देना चाहेंगी?

मैं तो यही कहती हूं कि साहस और धैर्य से काम कीजिए, हिम्मत मत हारिए। इस बार कोई पुरस्कार नहीं मिला, इसलिए मैं काम नहीं करूंगा, ऐसी सोच मन में नहीं आनी चाहिए।

(नवभारत टाइम्स, 2 फरवरी 2019 को प्रकाशित)