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Tuesday, January 17, 2012

अजब शहर में एक योगी: किरण सेठ

तो तुम्हें शुभा मुद्गल पसंद है.’

शायद जून-जुलाई की कोई दोपहर थी और मैं अपने शोध निर्देशक प्रोफेसर वीर भारत तलवार के कमरे पर किसी काम से गया था.
तलवार जी संगीत के बेहद शौकिन हैं. उनके साधारण लेकिन सुरुचिपूर्ण ड्राइंग रुम में एक तरफ लगे दीवान पर कुछ सीडी बेतरतीब सी बिखरी पड़ी दिखती थी. शुरु-शुरु में मुझे लगता रहा कि शायद जल्दीबाजी की वजह से हो ऐसा, लेकिन धीरे-धीरे देखा कि बिखराव में भी एक अलग अंदाज है.

तलवार जी के पास पापुलर और शास्त्रीय संगीत की सीडी और कैसेट का बेहद ख़ूबसूरत संग्रह है. उस दिन कमरे में आशा भोंसले का गाया कोई फिल्मी कैसेट बज रहा था....मैंने देखा कि बिस्तर पर एक कैसेट शुभा मुद्गल का भी है तो मैंने वही सुनने की फ़रमाइश की थी.

तलवार जी के स्वर में उत्सुकता और थोड़ी खुशी थी...मेरे जेनरेशन से शायद उन्हें यह अपेक्षा ना हो कि शास्त्रीय संगीत में हमारी कोई दिलचस्पी होगी. यह बात क़रीब दस साल पुरानी है.
बहरहाल, उस दिन दिल्ली के एनएसडी में भारत रंग महोत्सव में नाटक देखने गया था. भीड़ के बीच अभिमंच की ओर बढ़ते हुए मेरी नज़र एक जाने-पहचाने चेहरे की तरफ पड़ी.

उस कड़ाके की ठंड में साधारण कठ-काठी का, चश्मा पहने वह सौम्य व्यक्ति नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका रहे थे. मैंने कैमरा निकाल लिया. कैमरे की ओर देख उन्होंने मुस्करा दिया और कहा- आइएगा, आईआईटी में 18 जनवरी को उस्ताद अमजद अली खान का कंसर्ट है!’ 
किरण सेठ पिछले करीब 35 वर्षों से बिना किसी सुर्ख़ियों में रहे युवाओं के संग मिल कर स्पीक मैके को नेतृत्व दे रहे हैं

90 के दशक के मध्य में जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था तब हमारे सालाना जलसे में नृत्यांगना उमा शर्मा आईं थीं. ‘स्पिक मैके (SPIC MACAY) के तहत उनका यह कार्यक्रम था.
पहली बार मैंने तभी स्पिक मैके (सोसाइटी फॉर द प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लैसिकल म्यूजिक एंड कल्चर अमंगस्ट यूथ) के बारे में सुना था.

बचपन में जब ऑल इंडिया रेडियो पर दोपहर में बिस्मिल्लाह खान या सिद्धेश्वरी देवी अपना राग अलापती थीं तब हम रेडियो बंद कर देते थे. तब ना तो संगीत की सुध थी ना समझ. सही मायनों में हमारे लिए शास्त्रीय संगीत का द्वार स्पिक मैके ही ने खोला. साहित्य में अनुराग होने की वजह से संभवत: शास्त्रीय संगीत को जब सुनना शुरु किया तो दिलचस्पी और बढ़ती गई. तब से अब तक दिवंगत बिस्मिलाह खान साहब से लेकर रवि शंकर, गिरिजा देवी और बिरजू महराज आदि को स्पिक मैके के ही कार्यक्रम में लाइव देखा-सुना है. और लगभग दिल्ली में होने वाले हर कार्यक्रम में कभी भीड़ में पीछे दरी को ठीक करते तो कभी तन्मय हो कर संगीत का आनंद लेते किरण सेठ मिले हैं.
उस दिन मैंने कहा कि, 'सर, असल में आपके बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ...' हल्के से मुस्कुराते हुए उन्होनें मुझे स्पिक मैके का एक विजिटिंग कार्डदिया और उस पर अपना फोन नंबर हाथ से लिखते हुए कहा स्पिक मैके के बारे में लिखिए...

पिछले दिनों मैं मिथिला पेंटिंग को लेकर एक शोध के सिलसिले में मधुबनी गया था. वहाँ जब मिथिला पेंटिंग की एक चर्चित कलाकार महासुंदरी देवी से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि पिछले साल से स्पिक मैके के तहत देश के विभिन्न भागों से कुछ बच्चे एक महीने मेरे पास रहने आ रहे हैं. वे मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को सीखते-समझते हैं.
आईआईटी दिल्ली में वर्ष 1979 में स्पिक मैके की एक बेहद छोटे स्तर पर विधिवत शुरुआत की गई. इन वर्षों में इसका विस्तार देश-विदेश के विभिन्न महानगरों, छोटे शहरों, कॉलेजों और स्कूलों में बढ़ता चला गया. 
स्पिक मैके यह एक ऐसा आंदोलन बन गया है जो अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पर स्पिक मैके की वेब साइट पर जब आप नजर डालेंगे तो आज भी वहाँ किरण सेठ की चर्चा या उनका परिचय शायद ही कहीं मिले!

पेशे से शिक्षक किरण सेठ इस अजब शहर में एक निष्काम योगी की तरह हैं जो भारतीय संगीत और संस्कृति का अलख युवाओं के बीच जगाए हुए अपने काम में मस्त हैं. कबीर ने ठीक ही लिखा है… मन मस्त हुआ फिर क्या बोले?’
(जनसत्ता, 20 जनवरी 2012 को समांतर स्तंभ में फिर क्या बोले शीर्षक से प्रकाशित, तस्वीर:किरण सेठ)

Friday, June 10, 2011

किसका देश


पिछले दिनों 'भारत माता की जय' के नारे खूब सुनाई दिए. काले दाढ़ी वाले बाबा, गेरुआ वस्त्र में योगी और गांधी टोपी पहने समाज के अलंबरदार इस जयकारे के अगुआ थे. 
पता नहीं जीवन के आखिर दिनों में मकबूल फिदा हुसैन इन नारों को सुन रहे थे कि नहीं. यदि सुन रहे थे तो क्या सोच रहे होंगे वे?
 
हाल ही में उन्होंने एक पेंटिग बनाई थी जिसमें भारत माता भ्रष्टाचार के दानव का नाश कर रही है. 
हुसैन की बनाई भारत माता की एक अन्य तस्वीर से विश्व हिंदू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों के कठमुल्लों को आपत्ति थी और उन्हें इनका विरोध झेलना पड़ा.
बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद मे उनकी गैलरी में तोड़-फोड़ की, घर को निशाना बनाया. 90 के दशक मे जब राजनीति की लड़ाई संस्कृति के हथियारों से लड़ी जाने लगी तो हिंदुत्व की नई परिभाषा भी गढ़ी गई. हुसैन की पेंटिंग पर सवाल उठने शुरु हुए.
हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीर बनाने को लेकर उन पर कई मुकदमें दर्ज किए गए. गौरतलब है कि ये तस्वीरें उन्होंने 70 के दशक में ही बनाई थी लेकिन उन्हें कटघरे में बीस-पच्चीस साल बाद खड़ा किया गया. यही आखिरकार हुसैन के जीवन के आखिर वक्त में निर्वासन में जीने की वजह भी बनी. 
हुसैन ने पेंटिंग की एक नई भाषा गढ़ी जिसमें आजाद भारत की खुशबू लिपटी है. भारत माता उनकी पेंटिंग में 'विशिष्ट स्वरलहरी' की तरह रही हैं. भारत माता और भारतीयता को वे एक कलाकार के नजरिए और प्रिज्म से देखते थे लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का माला जपने वालों को उनमें कलाकार कम और मुसलमान ज्यादा दिखता था.
वर्ष 2000 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "इतिहास गवाह है कि अपने समय में लोगों की पहचान नहीं होती." हुसैन के बारे में शायद यह किसी भी भारतीय कलाकार से ज्यादा सच है. वे हमारे समय से सबसे ज्यादा चर्चित कलाकार रहे, लेकिन उन्हें पहचानने में ना सिर्फ राज्य और सत्ता बल्कि हमारा कला समाज भी नाकाम रहा.
भारत से उन्हें बेहद प्यार था और भारत की सामासिक संस्कृति उनके चित्रों में झलकती थी. जीवन के आखिरों दिनों में भी वे महाभारत को अपनी पेंटिग में उकेर रहे थे. रामायण पर बनाई उनकी पेंटिग सीरिज भारतीय कला की धरोहर है.
डेढ़ साल की उम्र में माँ की मौत से उपजे बिछोह को वे जिंदगी भर ढूंढ़ते रहे. वह 'भारत माता' हों या 'मदर टरेसा', वे एक माँ की छवि आंकते रहे. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले, भारत माता की जयकार लगाने वाले इसे आजादी की दूसरी लड़ाईबता रहे हैं. आजादी की इस लड़ाई में हुसैन जैसों की कितनी चिंता है उन्हें?
जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुँचे हुसैन को भारतीय राज्यसत्ता ने नकार दिया था. आत्म-निर्वासन के दौरान उन्हें कतर की नागरिकता पेश की गई जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. बार बार देश लौटने की बात करने वाले हुसैन के लिए लंदन के अस्पताल में आखिरी सांसे लेना कितनी भारी रहा होगा, यह निर्वासन में जीने वाला ही समझ सकता है!
क्या यह हुसैन की नियति थी कि उन्हें अपने देश में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई या हमारी बदकिस्मती
(जनसत्ता, समांतर कॉलम में 23 जून 2011 को प्रकाशित)

Saturday, October 16, 2010

जर्द पत्तों का वन

पिछले साल इन्हीं दिनों हम श्रीनगर में थे. शरद ने शहर में दस्तक दे दी थी. चिनार के पत्ते सुर्ख होने लगे थे. कश्मीर की हमारी यह पहली यात्रा थी. मकसद कश्मीर विश्वविद्यालय में होने वाले एक सम्मेलन में भाग लेना था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हमारे मन में वर्षो से कश्मीर देखने की चाह थी. एक तरफ बचपन से एक कहावत की तरह हम सुनते आ रहे थे कि, 'धरती पर अगर स्वर्ग कहीं है तो यहीं है', दूसरी तरफ नब्बे के दशक में जवान हो रही हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर हिंसा और संघर्ष का पर्याय रहा है. इस द्वैत के बीच कश्मीर हमारी जेहन में आकार लेता रहा.

जम्मू-कश्मीर की कमान युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने हाथों में पिछले साल ही ली थी. फिज़ां में बदलाव की एक उम्मीद थी और इस उम्मीद को सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए उन्होंने दुहराया भी था. लेकिन पिछले तीन महीनों से कश्मीर घाटी में हो रहे 'इंतिफादा' और पुलिस बलों की कार्रवाई लोगों की उम्मीद के लिए जैसे एक बार फिर छलावा साबित हुई है.

इन दिनों मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा है कि दिल्ली में और देश के अन्य भागों में अपनी-अपनी दुनिया में मस्त, सपनों और अरमानों के पीछे भागते हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर के नौजवानों की मौत के क्या मायने हैं? इन सपनों के मारे जाने से क्या कहीं हमारे सपने भी टूटते है या हमारे लिए यह महज एक ख़बर है, एक दुर्घटना. जैसा कि सुदूर किसी अन्य देश में हो रही दुर्घटना या हिंसा की कोई ख़बर आने पर हमारी प्रतिक्रया होती है. हम दुखी होते हैं, पर वह हमारे भावबोध का हिस्सा नहीं बन पाती.

बेंडिक्ट एंडरसन ने लिखा है कि 'राष्ट्र कि परिकल्पना हमारी कल्पना में ही साकार होती है'. यात्रा के दौरान मिले पत्रकार प्रेम शंकर झा ने कहा था कि 'कश्मीर से बाहर रहने वाले आपकी पीढ़ी के लिए कश्मीर की यात्रा अमूमन पहली ही होती है'. एक-दो अपवाद को छोड़ कर मुझे याद नहीं है कि कश्मीर में हुई हिंसा के विरोध का स्वर हमने किसी अन्य विश्वविद्यालय में सुना हो या उनकी चिंताओं को लेकर हमने कभी कोई सार्थक पहल की हो.

सच तो यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों में कश्मीर के लोगों से हमारी पहचान नहीं के बराबर होती है और हम इसे टटोलने की कोशिश भी कभी नहीं करते कि ऐसा क्यों है. इस बार देश की प्रतिष्ठित आईएएस परीक्षा में कश्मीर के एक प्रतियोगी शाह फैसल ने जब पहला स्थान पाया तो सबकी नज़र एकाएक कश्मीरी युवाओं की प्रतिभा की ओर गई. ऐसा ही भाव युवा पत्रकार बशारत पीर की अंग्रेजी में प्रकाशित किताब कर्फ्यूड नाइटकी चर्चा होने पर हमारे मन में हुआ.

कश्मीर विश्वविद्यालय में जब मैं कुछ छात्रों से मिला तो मुझे एक अजीब- सी उलझन होने लगी. मेरे अंदर एक अपराध बोध हुआ कि कहीं ना कहीं इनके दुख और वेदना के लिए हम जिम्मेदार हैं. कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों के चेहरे पर आक्रोश, वेदना और हताशा एक साथ दिखी. कोई भी छात्र मुझे ऐसा नहीं मिला जिसके पास दुख और दर्द के किस्से ना हो. किसी के भाई, किसी के पिता-चाचा, तो किसी की बहन के साथ ऐसी अनहोनी घटी थी जिसके बारे में बात करते-करते उनकी आवाज भारतीय राज्य और सत्ता के प्रति तल्ख हो उठती थी.

दिल्ली से गए कुछ दोस्तों के साथ छावनी में तब्दील श्रीनगर में घूमते हुए एक अजीब सी दहशत हमारे मन में थी. गोकि पिछले साल कश्मीर में हिंसा नहीं के बराबर हुई थी और माहौल शांत था लेकिन शांति की इस चादर के नीचे छिपी बेचैनी और गुस्से की झलक हर किसी से बात करने पर मिलती थी. कर्फ़्यू के बिना भी एक अलिखित कर्फ़्यू का माहौल हर जगह था चाहे वह डल झील हो या हजरत बल. हर तरफ लोहे की कंटीली बाड़ और सरकारी बंदूकें सिर उठाए हमारा स्वागत कर रही थी. मैंने अपने जीवन में बस एक बार 1992 के दिसंबर में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद कर्फ़्यू झेला था. किशोर उम्र की वह दहशत आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है.

एक ऑटोवाले से बात करते हुए जब मैंने कश्मीर के हालात के बारे में पूछा तो साफ कश्मीरी जबान में जो कुछ भी उन्होंने कहा उसका तर्जुमा मैंने अपने तई कुछ यों किया- साहब, ये चिनार का पेड़ आप देख रहे हैं... जितने पत्ते इस पेड़ में लगे हैं और जितने नीचे बिखरें हैं उतनी ही दर्द की दास्तान आपको यहाँ मिलेंगी.

पिछले तीन महीनों में पुलिस बलों की गोलीबारी से सौ से ज्यादा मारे गए युवाओं की दास्तान फिर से अलिखित रह गई. हम शायद ही जान पाएँ कभी कि इन युवाओं के सपने क्या थे, प्रेम और कविता को लेकर उनके क्या विचार थे, उनके लिए आजादी का क्या मतलब था. एक बार फिर शरद के आते ही जर्द पत्तों के वन में उनके सपने दफन कर दिए जाएँगे. हमारी दुनिया में, हमारे सपनों में भी क्या किसी टूटे हुए पत्ते की सरसराहट सुनाई देगी?

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 7 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित)

Friday, December 08, 2006

Globalisation and Hindi Media

Unprecedented changes have been taking place, in the last two decades, in the realm of media. Hindi media or regional journalism in India is no exception. Global technologies, which paved the way for Information Revolution, are part and parcel of globalisation process. With the onset of liberalisation, privatisation and globalisation in 1991 in India, Hindi journalism gained a new confidence vis-à-vis its English counterparts. It has become global and local at the same time. It is being published from many regional centers with the help of new found technologies. Now packaging and designing is good. Pages have increased drastically. More supplements are coming out.

If we compare today’s any Hindi newspaper with that of, say fifteen or twenty years ago, we can conclusively say that it is more market oriented. In other words Hindi journalism is an industry now. What media analyst and critic Adorno and Horkhemier had said of culture industry is becoming true for Hindi journalism today, which had played a leading role in India’s independence struggle. Contents are being determined by the prevailing forces of market and advertising departments. Relationship between production departments and editorial board is fast changing.

This paper will analyse the impact of global technologies on Hindi journalism in India, taking Nav Bharat Times, Delhi a prominent Hindi daily, as a case study.

( Abstract of the paper titled"Impact of Global Technologies on Hindi Journalism: A Case Study of Navbharat Times, New Delhi" presented at Media: Policies, Cultures and Futures in the Asia Pacific Region Conference organised by MARG at Curtin University of Technology, Perth, Western Australia on 27-29 November 2006)