Thursday, September 29, 2011

आसमान में घन कुरंग

पिछले दिनों लंदन के कुछ इलाकों में हुए भारी दंगों का बादल अब शहर पर से छंट चुका है.
पूरा शहर टेम्स नदी के किनारे सालाना जलसा 'टेम्स समारोह' मनाने के लिए जुटा हुआ है. यह समारोह लंदन शहर के जज्बे को सलाम करने और उसके दिल में बसे टेम्स नदी के प्रति अपना प्यार जताने के लिए मनाया जाता है.
टेम्स के किनारे चिनार के हरे और हल्के पीले पत्ते हवा के झोंके के संग इधर-उधर उड़ते रहते हैं. माहौल चारो तरफ काफी खुशगवार है.

दूर तक लगे झाड़-फानूस, खाने-पीने के खोमचों, सडकों पर नाच-गाने और शोर-शराबे को देख कर ऐसा लगता है कि हम किसी भारतीय शहर में आ गए हैं. लेकिन जहाँ भारत में पर्व-त्योहारों पर ही ऐसा रेला दिखता है, वहीं टेम्स के प्रति अपना हक अदा करने के लिए लंदनवासी इस पर्व का आयोजन करते हैं.
हमने अपनी नदियों को देवी-देवता मान कर उसे पूज्य बना दिया पर प्यार और सम्मान देना कहाँ सीखा!
बहरहाल गर्मी की अब बस छाया भर है और शरद की आहट हवाओं में है. हल्की बूंदा-बांदी और बादल के घिरने से ठंड का एहसास होने लगता है. हालांकि कुछ लोग कमीज में हैं तो कुछ लोग स्वेटर और जैकेट पहने हुए दिखते हैं.
वीक एंड पर पबों में मस्ती और सड़कों पर बीयर की टूटी हुई बोतलें! लेकिन सोमवार की सुबह होते ही ट्यूब स्टेशनों, लंदन के सड़कों की पहचान लाल रंग की दुमंजिली बसों पर काम-काज पर आने-जाने वालों की भीड़ का रेला. हल्की धूप में ट्रैफल्गर स्कवेयर पर सैलानियों की चहल-पहल और रात में सोहो की गलियों की रंगनियाँ! शहर अपनी पूरी रफ्तार में है.
पर इस भीड़ और कोलाहल के बीच भी आर्थिक बदहाली की चर्चा कहीं दबी जुबान में तो कहीं सरगोशी से सुनाई पड़ जाती है.
चर्चित सेंट पाल कैथिडरल और लंदन म्यूजियम के बीच सड़क के एक किनारे स्थित इंडियन क्यूजिन नामक एक रेस्तरां में काम करने वाले महफूज कहते हैं, बड़ा कठिन समय है...अजीब-अजीब लगता है कभी कि किस मुलुक में आ गए हैं हम.
तीस वर्षीय महफूज मूलत: बांग्लादेश के सिलहट के हैं और पिछले चार वर्षों से वे लंदन में हैं.

तलघर और पहले मंजिल पर फैले इस रेस्तरां में महज दो-चार लोग डिनर करते हुए दिखते हैं. करी भले ही भारतीय व्यंजन के रुप में लंदन में चर्चित हो लेकिन ज्यादातर भारतीय रेस्तरां में इसे बनाते बांग्लादेशी मूल के लोग ही हैं.
महफूज कहते हैं, आज कल सब कुछ मंदा चल रहा है. कम ही लोग रेस्तरां में आते हैं..पता नहीं क्यों है ऐसा, पर यह पिछले साल था और फिर इस साल भी है.
महफूज अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहते हैं. बीवी लंदन की नागरिक हैं और अब वे भी लंदन के नागरिक हो गए हैं.
बीवी टीचर थी लेकिन दो बच्चों को संभालने के लिए अभी नौकरी नहीं कर रही है. ऐसे में परिवार पर आर्थिक बोझ आज कल ज्यादा है. वे कहते हैं कि अब तो लगता है कि यहीं के होकर रह गए. अब वापस भी नहीं लौट सकते.
इससे पहले दिन में यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टमिंस्टर में भारतीय मीडिया के लेकर एक कांफ्रेस के दौरान भारतीय मूल के प्रोफेसर और शोधार्थियों से मुलाकात हुई. विश्वविद्यालय में एक युवा रिसर्च एसोशिएट ने कहा दोहरी मंदी की मार झेल रहे हैं हम. आप भारत में ही अच्छे हैं.
ऐसा नहीं कि मंदी की मार सिर्फ लंदन पर है. ग्रीस से लेकर फ्रांस तक इससे जूझ रहा है.
ट्यूब में यात्रा के दौरान मिले ग्रीस के एक शोधार्थी का कहना था, एक कमरे का 650 पाउंड देना पड़ रहा है जिसे हम कुछ छात्र मिल कर शेयर कर रहे हैं. और कमरा क्या है बस रहने लायक जगह है.
ग्रीस के हालात को जानते हुए मुझसे यह पूछने कि हिम्मत नहीं हुई कि किस तरह से वे लंदन में जिंदगी बसर कर रहे हैं. मंदी की मार बेरोजगारों से बेहतर कौन जानता है.
शिशु घन-कुरंग लंदन के आसमान की पहचान हैं. इससे पहले भी 70 और 80 के दशक में लंदन आर्थिक मंदी की मार झेल कर मजबूती से उबरा था. पर इस बार मंदी का घना बादल लंदन के आसमान में फैला दिखता है.
ऐसा लगता है कि लोग गर्मी की तपिश के बाद इस बार शीत के असंतोषको झेलने के लिए मन को मजबूत कर रहे हैं.
(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 6 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

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