खचाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जाकिया ने कार्यक्रम शुरु होने से पहले कहा था, “गाना सुनते हुए यदि मेरी आँखों में आँसू आ जाए तो बुरा मत मानिएगा...’ मैं उसकी ओर देखता, बस चुप रहा.
वर्ष 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था- ‘अ लिजेंड नाइट- म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी’. एक तरह से उनकी ‘लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा’ को हमने उस शाम देखा-सुना. वर्षों बाद दिल्ली में भूपेन हजारिका का लाइव कंसर्ट हुआ था. और मेरे जानिब शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था जिसे उन्होंने असम की एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था.
जब उन्होंने ‘आमि एक जाजाबर’ गाया तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई.
बांग्ला-असमिया मैं बोल नहीं पाता लेकिन मातृभाषा मैथिली से नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ी-बहुत समझ लेता हूँ, लेकिन उस शाम संगीत के रसास्वादन में भाषा जैसे आड़े नहीं आ रही थी.
हाथ में हारमोनियम लिए मंच पर खड़े भूपेन दा की आवाज़ में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी- परिस्थितियाँ कितनी भी विचित्र और प्रतिकूल हो संघर्ष से उस पर विजय पाया जा सकता है.
मेरे बाबा एक लोक गायक थे. पर मुझे वे याद नहीं. उस दिन भूपेन दा को सुन कर मैं अपने बाबा की आवाज सुन रहा था.
उनके गाने की शैली एक कथा-वाचक की तरह थी जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है.
जब उन्होंने ‘हे डोला हे डोला... आके बाके रास्तों पर कांधे लिए जाते हैं राजा-महराजाओं का डोला …’ गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ निश्चय चित्र रुप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित है. शब्द और संगीत से चित्र खींचने की उनकी कला ने उन्हें 'गज गामिनी' फिल्म में मकबूल फिदा हुसैन के करीब लाया. यह दु:संयोग ही है कि वर्ष 2011 में अब हमारे पास इन दो महान कलाकारों की कला हैं और शेष स्मृतियाँ.
कहते हैं कि कोलंबिया में जनसंचार पर अपनी पीएचडी के दौरान भूपेन हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक ‘पॉल रॉबसन’ से हुई. वे रॉबसन के इस कथन से कि ‘संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है’ बेहद प्रभावित हुए थे.
रॉबसन ने अपने चर्चित गाने: ‘ओल्ड मैन रीवर/ डैट ओल्ड मैन रीवर/ ही मस्ट नो समथिंग/ बट डोंट से नथिंग/ ही जस्ट कीप्स रोलिंग/ ही कीप्स रोलिंग अलांग’ में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के माध्यम से व्यक्त किया है.
भूपने दा ने ‘गंगा बहती है क्यों’ के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया. इस गाने के आखिर में जब वे ‘निष्प्राण समाज को तोड़ने’ की गुहार लगाते हैं तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखती. यह गाना मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है.
उनका संगीत काफी हद तक उनकी राजनीति से प्रेरित रहा. लेकिन वे एक ऐसे संस्कृतिकर्मी थे जिन्हें राजनीति की हदबंदियाँ जकड़ नहीं पाई. उनके संगीत में लोक का स्वर हमेशा गूंजता रहा. उनकी लोक चेतना, संघर्ष की चेतना है. कभी ‘बूढ़ा लुइत’ तो कभी ‘गंगा’ इसी का प्रतीक है.
अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से वृहद हिंदी समाज का परिचय 90 के दशक में ‘रुदाली’ फिल्म में गाए उनके गीत ‘दिल हूम हूम करे’ के माध्यम से होता है, जिसे मूल असमिया में वर्षों पहले वे 'बुक हूम हूम करे' के रूप में गा चुके थे. असमिया भाषा जानने वाले बेझिझक कह सकते हैं कि मूल असमिया में इस गाने की तासीर हिंदी से कई गुना ज्यादा है. बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत के फलने-फूलने लिए जगह कहाँ छोड़ी है?
असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीते जी संगीत के इस महान कलाकार की कला महज एक छोटे तबके तक ही सीमित रही.” वे कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहाँ पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा. साथ ही उनका कहना है कि ' देश के बाकी हिस्सों का यह दुर्भाग्य है कि संगीत के इस साधक की कला से वे वंचित हैं.'
बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने ‘गंगा आमार माँ, पद्मा आमार माँ' गाया तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही थी.
ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती हैं जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं. कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे. हमारी आँखे भरी हुई थी पर मन हल्का था.
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में 7 दिसंबर 2011 को प्रकाशित)
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