Monday, January 14, 2013

चैनलों का संक्रमण काल



सेना प्रमुख कह रहे हैं, समय और स्थान चुन कर जवाब देंगे’. संसद में विपक्ष की नेता कह रही हैं-वो एक सिर लेके गए हैं तो हम दस लेके आएँगे.’  और एक बार फिर से हमारे खबरिया चैनल ललकारते हुए पूछ रहे हैं- आखिर कब तक हम चुप रहेंगे!

जम्मू-कश्मीर की सीमा रेखा पर 8 जनवरी को दो भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या, उनके क्षत-विक्षत शव और एक सैनिक के सिर कलम करने की घटना पर जितना रोष आम जनों में है, उससे कहीं ज्यादा खबरिया चैनल अपने (अंध) राष्ट्रवादी होने का सबूत दे रहे हैं. शुरु में भारत और पाकिस्तान की सरकार सीमा रेखा के गिर्द होने वाली इस गोलीबारी की घटना को ज्यादा तूल नहीं दे रही थी, लेकिन अब ऐसा लगता है कि मीडिया के दबाव में भारतीय राज्य और सत्ता भी उसी स्वर में बात करने को बाध्य है.

खबरिया चैनल सुविधानुसार कुछ तथ्यों को मनमाने ढंग से विश्लेषित कर रहा है और उत्तेजना पैदा कर रहा है. शहीद सैनिकों के साथ बर्बरतापूर्ण और अमानवीय व्यवहार की निंदा होनी चाहिए, पर क्या सवाल भारतीय सत्ता और सैनिकों के व्यवहार पर नहीं होनी चाहिए. वर्ष 2003 में हुए संघर्ष विराम के बाद कई बार सीमा पर गोला-बारी हुई है. खबरों के मुताबिक इससे पहले भारतीय सेना की कार्रवाई में 6 जनवरी को पाकिस्तानी सेना के एक जवान मारे गए थे और फिर पलटवार में दो भारतीय सैनिक शहीद हुए. यहाँ पर यह नोट करना चाहिए कि देश के कुछ बड़े संवाददाताओं (बरखा दत्त) ने कारगिल युद्ध के दौरान नोट किया था कि किस तरह भारतीय सेना भी पाकिस्तानी सैनिकों का सिर कलम कर गौरवान्वित हो रही थी. (कंफेंशन्स ऑफ ए वार रिपोर्टर, हिमाल, जून 2001)

वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद सीमा रेखा पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा था और युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. आजतकजैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी. उसी दौरान (2001-02) हम आईआईएमसी में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. आईआईएमसी के छात्र रहे और तब आज तक के स्टार संवाददाता दीपक चौरसिया हमें लेक्चर देने आए थे. बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूछा कि- आज तक की प्रसिद्धि क्यों इतनी है?’ मैंने कहा था- युद्ध हो ना हो, आप टैंक स्टूडियो में तैनात रखते हैं और यह दर्शकों को लुभाता है!  चौरसिया साहब का चेहरा बुझ गया था. मेरे एक मित्र ने एक चिट बढ़ाई- भाई, आप को शायद नौकरी की जरुरत नहीं होगी, हमें है!

उस वक्त हमें लगता था और मीडिया के जानकार कहते थे कि ये संक्रमण काल है जो कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा. दस वर्ष बाद एक बार फिर आपसी रंजिश में मारे गए दो भारतीय सैनिकों की मौत के बाद भारतीय खबरिया चैनल ने जो भूमिका बांध रखी है उससे साफ है कि यह संक्रमण बदस्तूर जारी है. हां, बदलाव ये आया कि उस वक्त आज तक जैसे एक-दो चैनल थे जबकि आज उसके साथ कुछ और बड़े नाम (अंग्रेजी चैनलों के) जुड़ गए हैं!

भारतीय भाषाई मीडिया पाकिस्तान संबंधी खबरों को राज्य और सत्ता के नजरिए से विश्लेषित करती रही है. भाषाई पत्रकारिता पर राष्ट्रवादी भावनाओं को बेवजह उभारने का आरोप हमेशा लगता रहा है, जो एक हद तक सच भी है. पर अब अंग्रेजी पत्रकारिता खास तौर से खबरिया चैनलों की भाषा और उनके तेवर देख कर लगता है कि अब अंग्रेजी और वर्नाक्यूलर के बीच विभाजक रेखा धीरे-धीरे मिट रही है. 

जाहिर है कि सीमा रेखा पर किसी चैनल का कैमरा नहीं लगा है और संघर्ष के वक्त पत्रकार वहाँ नहीं थे. खबरें विश्वस्त सूत्रों से ही मिलती है, पर विश्लेषण करने को तो हमारे स्वनामधन्य पत्रकार-संपादक स्वतंत्र हैं! कुछ समय पहले नोम चोमस्की ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया से ज्यादा स्वतंत्र है और उन पर सत्ता का दवाब अपेक्षाकृत कम है. संभव है इसमें हमें अतिरंजना लगे, पर जिस तरह से पाकिस्तानी की मीडिया ने इस मसले पर रूख अख्तियार किया है उससे चोमस्की का कहना ठीक लगता है. भारतीय खबरिया चैनलों पर कुछ सत्ता का दवाब है, कुछ बाजार का और कुछ कूठमगज़ ऐसे हैं जो खबरों का विश्लेषण करने की जहमत मोल नहीं लेते. ना ही वे सच कहना चाहते हैं जिसे हम तक पहुँचाने का दावा वे 24 घंटे करते रहते हैं.

2 comments:

Anonymous said...

सही समय पर सही सवाल उठाया है अरविंद भाई आपने. क्या हमारी सेना 'Holy Cow' है? जम्मू कश्मीर के छत्तीससिंहपुरा और उत्त-पूर्व की असंख्य घटनाओं को हम भूल नहीं सकते हैं. लगता है हमारी मीडिया के पास तर्कशक्ति ही नहीं.है.भावनाओं को भुलाने का दौर है, जो जितना भुना सकता है भुना रहा है.
राजेश

Anonymous said...

sundar rachana

Editor
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