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Sunday, September 10, 2023

सरहद पार की दो फिल्में

 


पिछले दिनों एक पाकिस्तानी फिल्म जिंदगी तमाशा को लेकर सोशल मीडिया पर टीका-टिप्पणी दिखी. यूँ तो चार साल पहले ही फिल्म समारोहों में इसे दिखाई गई थीलेकिन सेंसरशिप के कारण इसका प्रदर्शन अटक गया. आखिरकार निर्देशक सरमद खूसट ने यूट्यूब पर रिलीज कर दिया है. इस फिल्म के केंद्र एक अधेड़ पुरुष (राहत) हैं. एक दोस्त के बेटे की शादी के अवसर पर वे एक पुराने गाने पर डांस करते हैंजो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है. घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्तेसामाजिक संबंध इससे किस तरह प्रभावित होते हैंइसे निर्देशक ने बेहद सधे ढंग से फिल्म में दिखाया है. साथ ही राहत के बहाने पाकिस्तानी खुफिया समाज की झलकियाँ यहाँ दिखाई देती है. यहाँ निजताइच्छा-आकांक्षास्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है.

इसी तरह जॉयलैंड’ को पिछले साल95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. यह फिल्म ऑस्कर जीतने में सफल नहीं हुईपर प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहाँ ज्यूरी पुरस्कार मिला था. विभिन्न फिल्म समारोहों में जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले दिनों अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया. युवा निर्देशक सैम सादिक की यह पहली फिल्म हैजहाँ वे संभावनाओं से भरे नज़र आते हैं.

भले ही यह दोनों फिल्में पाकिस्तान में रची-बसी हैलेकिन कहानी भारतीय दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. जिंदगी तमाशा की तरह ही जॉयलेंड के केंद्र में लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. इस परिवार का मुखिया एक विधुर है जिसके दो बेटे और बहुएँ हैं. परिवार को एक पोते की लालसा है. बड़ी बहु की तीन बेटियाँ हैं. छोटा बेटा (हैदर) जो बेरोजगार है उसकी नौकरी एक ‘इरॉटिक थिएटर कंपनी’ में लग जाती है. वहाँ वह एक ट्रांसजेंडर डांसर (बीबा) का सहयोगी डांसर होता है. धीरे-धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित होता है. घर में छोटे बेटे की बहु (मुमताज) की नौकरी छुड़वा दी जाती है. घुटन और इच्छाओं के दमन से उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है.

यह फिल्म भी घर-परिवार के इर्द-गिर्द हैपर किरदारों की इच्छा-आकांक्षा से लिपट कर लैंगिक राजनीतिस्वतंत्रता और पहचान का सवाल उभर कर  सामने आता है. चाहे वह घर का मुखिया होउसका बेटा होबहु हो या थिएटर कंपनी की डांसर बीबा. फिल्म में एक संवाद है-मोहब्बत का अंजाम मौत है!’. सामंती परिवेश में प्रेम एक दुरूह व्यापार हैबेहद संवेदनशीलता के साथ निर्देशक ने इसे फिल्म में दिखाया है.

ट्रांसजेंडर की पहचान और अधिकार को लेकर मीडिया में बहस होने लगी है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. फिल्म में अलीना खान ने ट्रांसजेंडर डांसरबीबाकी भूमिका विश्वसनीय ढंग से निभाई है. फिल्म में कोई विलेन नहीं है. पितृसत्ता यहाँ प्रतिपक्ष की भूमिका में है. सवाल बहुत सारे हैंजवाब कोई नहीं. यहाँ किसी तरह का उपदेश या प्रवचन नहीं है. कलाकारों का अभिनय बेहद प्रशंसनीय है. ये फिल्में विषय-वस्तु का जितनी कुशलता से निर्वाह करती हैउसी कुशलता से परिवेशभावनाओं और तनाव को भी उकेरती है. 


Sunday, January 24, 2021

नाउम्मीदी के बीच बेहतरीन की तमन्ना


पिछले दिनों जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का ऑनलाइन आयोजन किया गया. इस समारोह में पाकिस्तान के युवा निर्देशक उमर रियाज की एक डॉक्यूमेंट्री- ‘कोई आशिक किसी महबूब से’, भी दिखाई गई. जहाँ फीचर फिल्मों के प्रदर्शन के लिए कई माध्यम हैं वहीं आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन फिल्मकारों के लिए मुश्किल पैदा करता है.

बहरहाल, ‘कोई आशिक किसी महबूब से’ वृत्तचित्र का शीर्षक दक्षिण एशिया के मकबूल और महबूब शायर फैज अहमद फैज की शायरी से उधार लिया गया है. असल में इस डॉक्यूमेंट्री में फैज अहमद फैज की शायरी, गज़ल और उनकी जिंदगी के लम्हों को कैद किया गया है. हालांकि इसमें फैज खुद उपस्थित नहीं है. उनके संस्मरण उनकी बेटियों के हवाले से इस डॉक्यूमेंट्री में आया है. साथ ही पाकिस्तान के चर्चित अदाकार और उर्दू साहित्य को लयात्मक और अपने सस्वर पाठ से चर्चित करने वाले जिया मोहिउद्दीन के हवाले से फैज की उपस्थिति दर्ज होती है.

यह वृत्तचित्र खुद मोहिउद्दीन की जीवन यात्रा भी है. गौरतलब है कि मोहिउद्दीन का प्रशिक्षण लंदन स्थित रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्टस (राडा) से पचास के दशक में हुआ था और तब से वे विभिन्न रूपों में पाकिस्तान और ब्रिटेन के मंच पर अपनी अदाकारी का प्रदर्शन करते रहे हैं. टीवी और सिनेमा से भी उनका जुड़ाव रहा है. करीब तीस साल से वे लाहौर में साल के आखिरी दिन उर्दू साहित्य का पाठ करते रहे हैं, जिसका इंतजार पाकिस्तान के साहित्य प्रेमी बेसब्री से करते हैं. फैज के जन्मशती वर्ष में उन्होंने सिर्फ उन्हीं के नज्मों का पाठ किया.
यह वृत्तचित्र व्यक्ति विशेष से ऊपर उठ कर पाकिस्तानी समाज में उर्दू भाषा, कला और रिवायत की बेकद्री पर एक आलोचनात्मक नजरिया प्रस्तुत करता है. जैसा कि मोहिउद्दीन एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘यहां अदाकारी को फन नहीं समझा जाता है’. काव्य पाठ और पढ़ने के दौरान स्वर के उतार-चढ़ाव पर जोर देते हुए मोहिउद्दीन पूछते हैं- लफ्ज के नीचे जो नहीं कहीं गई बात है, वो क्या है?’ इसी बात को कवि केदारनाथ सिंह अपनी कक्षाओं में कहते थे कि कविता ‘बिटविन द लाइंस’ होती है.
इस डॉक्यूमेंट्री में क्राफ्ट पर काफी ध्यान दिया गया है. बकौल रियाज इसे बनाने में उन्हें सात साल लगे और उनकी मेहनत दिखती भी है. सिनेमैटोग्राफी और कुशल संपादन इस वृत्तचित्र को एक सफल फीचर फिल्म के करीब ले जाता है. पाकिस्तान के आम नागरिकों, चौक-चौराहों के जो दृश्य कैद किए गए हैं वे काव्यात्मक हैं, फैज की कविता के भाव बोध और संवेदना से मेल खाते हैं. साथ ही पुरानी तस्वीरों-फुटेज का इस्तेमाल भी बारीकी से किया गया है.

जब मोहिउद्दीन फैज की इस नज्म को पढ़ते हैं- आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो/ दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो/ ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो/ राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो, तब पाकिस्तान की राजनीति, मिलिट्री शासन और समाज के हाशिए पर रहने वालों की पीड़ा एक साथ उभर कर सामने आ जाती है.
डॉक्यूमेंट्री के शुरुआत में एक टिप्पणी है- महबूब जिंदगी में बेहतरीन की तमन्ना है और आशिक उस बेहतरीन की तलाश. यह किसी भी कला और कलाकार के लिए हमेशा सच है.

(प्रभात खबर, 24 जनवरी 2021)

Sunday, October 16, 2016

अंग्रेजी टीवी न्यूज़ चैनल का हिंदीकरण

वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा रेखा पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा था और युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. ‘आजतक’ जैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी. उसी दौरान (2001-02) हम भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. हमें तथ्य और सत्य के रिश्ते की बारीकियों को समझाया जा रहा था. सवाल करना, पूछना, कुरेदना, ख़बर की तह तक जाने की सीख दी जा रही थी. असहज तथ्यों को छुपाने की सत्ता की आदत, ख़बर निकालने के गुर, साथ ही सत्ता के साथ एक हाथ की दूरी बरतने की सलाह दी जा रही थी.
उस वक्त आज तक चैनल से जुड़े रहे दीपक चौरसिया व्याख्यान देने आए थे. बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूछा कि- ‘आज तक की प्रसिद्धि क्यों इतनी है?’ मैंने कहा- ‘युद्ध हो ना हो, आप टैंक, मोर्टार स्टूडियो में तैनात रखते हैं और यह आम दर्शकों को लुभाता है. दर्शकों के अंदर की हिंसा को उद्वेलित करता है!’ चौरसिया साहब का चेहरा बुझ गया था. मेरे एक मित्र ने एक चिट बढ़ाई- भाई, आपको शायद नौकरी की जरुरत नहीं होगी, हमें है!
उस वक्त हमें लगता था और मीडिया के जानकार कहते थे कि टेलीविजन मीडिया अपने शैशव अवस्था में है. ये संक्रमण काल है, कुछ वर्षों में यह ठीक हो जाएगा. पंद्रह वर्ष बाद ऐसा लगता है कि हिंदी समाचार चैनलों के इस संक्रमण से अंग्रेजी के चैनल भी संक्रमित हो चुके हैं. अर्णव गोस्वामी और ‘टाइम्स नॉउ’ इसके अगुआ है. और इस बीच अर्णव के कई ‘क्लोन’ तैयार हो चुके हैं.
भारतीय भाषाई मीडिया पर राष्ट्रवादी भावनाओं को बेवजह उभारने का आरोप हमेशा लगता रहा है, जो एक हद तक सच भी है. पर मोदी सरकार के आने के बाद, ‘न्यूज नैशनलिज्म’ के इस दौर में, अंग्रेजी पत्रकारिता खास तौर से खबरिया चैनलों की भाषा और उनके तेवर देख कर लगता है कि अब सामग्री के उत्पादन और प्रसारण के स्तर पर ‘अंग्रेजी और वर्नाक्यूलर’ के बीच विभाजक रेखा मिट गई है. यह अंग्रेजी चैनलों का ‘हिंदीकरण’ है.
ऐसा नहीं है कि सत्ता या बाजार के दबाव मे खबरें अखबारों ना चैनलों से पहले नहीं गिराई जाती थी, पर हाल में जिस तरह से एनडीटीवी ने लचर तर्क देकर पूर्व गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के इंटरव्यू को प्रोमो दिखाने के बाद रोका है, वह स्वतंत्र पत्रकारिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. गौरतलब है कि हमारी पीढ़ी हज़ार कमियों के बावजूद भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता में एनडीटीवी को एक मानक के रूप में देखते बड़ी हुई है. एक-दो अपवाद को छोड़ कर उड़ी में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से भारतीय मीडिया सेना और सत्ता से सवालों से परहेज करता रहा है, उससे लगता है कि आने वालों दिनों में पत्रकारिता सरकारी प्रेस रीलिजों के भरोसे ही चलेगी.
पाकिस्तान और सेना के मामले में भारतीय मीडिया राज्य और सत्ता के नज़रिए से ही ख़बरों को देखने और उन्हें विश्लेषित करने को अभिशप्त लगता है.
जाहिर है कि सीमा रेखा पर किसी चैनल का कैमरा नहीं लगा है और संघर्ष के वक्त पत्रकार वहाँ नहीं थे. खबरें ‘विश्वस्त सूत्रों’ से ही मिलती है, पर विश्लेषण करने, सवाल पूछने को तो हमारे स्वनामधन्य पत्रकार-संपादक स्वतंत्र हैं!
कुछ वर्ष पहले नोम चोमस्की ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया से ज्यादा स्वतंत्र है और उन पर सत्ता का दवाब अपेक्षाकृत कम है. संभव है इसमें हमें अतिरंजना लगे. पर सर्जिकल स्ट्राइक्स के बाद जिस तरह से पाकिस्तानी की मीडिया सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई है, ये सच लगता है.
हाल ही में पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग होने और सेना और राजनेताओं के बीच उभरे मतभेद की खबर डॉन अख़बार के पत्रकार-विश्लेषक सिरिल अलमेइडा ने प्रकाशित की थी. इस पर पाकिस्तानी सरकार-सेना ने जो रुख अपनाया उसकी मजम्मत करने में वहाँ की अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. मसूद अजहर और हाफिज सईद के ऊपर ‘राष्ट्रीय हितों’ को ध्यान में रखते हुए कोई कार्रवाई नहीं करने पर सवाल उठाते हुए ‘द नेशन’ ने लिखा: सरकार और सेना के अलाकमान प्रेस को लेक्चर देने की कि वह किस तरह अपना काम करे, कैसे हिम्मत कर रहे हैं? एक प्रतिष्ठित रिपोर्टर के साथ अपराधी की तरह बर्ताव करने की वे हिम्मत कैसे कर रहे है? कैसे वे हिम्मत कर रहे हैं यह बताने का कि उनके पास एकाधिकार है, योग्यता है यह घोषणा करने का कि पाकिस्तान का ‘नेशनल इंटरेस्ट’ क्या है? 

क्या ऐसी किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद आज हम भारतीय मीडिया से कर सकते हैं? गौरतलब है कि पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीएनएन न्यूज 18 को दिए इंटरव्यू के दौरान कहा था: मीडिया अपना काम करता है, वह करता रहे. और मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों की, सरकार के काम-काज का कठोर से कठोर analysis होना चाहिए, criticism होना चाहिए, वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.
पर लोकतंत्र ठीक से चले इसकी फिक्र किसे है!

Monday, January 14, 2013

चैनलों का संक्रमण काल



सेना प्रमुख कह रहे हैं, समय और स्थान चुन कर जवाब देंगे’. संसद में विपक्ष की नेता कह रही हैं-वो एक सिर लेके गए हैं तो हम दस लेके आएँगे.’  और एक बार फिर से हमारे खबरिया चैनल ललकारते हुए पूछ रहे हैं- आखिर कब तक हम चुप रहेंगे!

जम्मू-कश्मीर की सीमा रेखा पर 8 जनवरी को दो भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या, उनके क्षत-विक्षत शव और एक सैनिक के सिर कलम करने की घटना पर जितना रोष आम जनों में है, उससे कहीं ज्यादा खबरिया चैनल अपने (अंध) राष्ट्रवादी होने का सबूत दे रहे हैं. शुरु में भारत और पाकिस्तान की सरकार सीमा रेखा के गिर्द होने वाली इस गोलीबारी की घटना को ज्यादा तूल नहीं दे रही थी, लेकिन अब ऐसा लगता है कि मीडिया के दबाव में भारतीय राज्य और सत्ता भी उसी स्वर में बात करने को बाध्य है.

खबरिया चैनल सुविधानुसार कुछ तथ्यों को मनमाने ढंग से विश्लेषित कर रहा है और उत्तेजना पैदा कर रहा है. शहीद सैनिकों के साथ बर्बरतापूर्ण और अमानवीय व्यवहार की निंदा होनी चाहिए, पर क्या सवाल भारतीय सत्ता और सैनिकों के व्यवहार पर नहीं होनी चाहिए. वर्ष 2003 में हुए संघर्ष विराम के बाद कई बार सीमा पर गोला-बारी हुई है. खबरों के मुताबिक इससे पहले भारतीय सेना की कार्रवाई में 6 जनवरी को पाकिस्तानी सेना के एक जवान मारे गए थे और फिर पलटवार में दो भारतीय सैनिक शहीद हुए. यहाँ पर यह नोट करना चाहिए कि देश के कुछ बड़े संवाददाताओं (बरखा दत्त) ने कारगिल युद्ध के दौरान नोट किया था कि किस तरह भारतीय सेना भी पाकिस्तानी सैनिकों का सिर कलम कर गौरवान्वित हो रही थी. (कंफेंशन्स ऑफ ए वार रिपोर्टर, हिमाल, जून 2001)

वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद सीमा रेखा पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा था और युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. आजतकजैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी. उसी दौरान (2001-02) हम आईआईएमसी में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. आईआईएमसी के छात्र रहे और तब आज तक के स्टार संवाददाता दीपक चौरसिया हमें लेक्चर देने आए थे. बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूछा कि- आज तक की प्रसिद्धि क्यों इतनी है?’ मैंने कहा था- युद्ध हो ना हो, आप टैंक स्टूडियो में तैनात रखते हैं और यह दर्शकों को लुभाता है!  चौरसिया साहब का चेहरा बुझ गया था. मेरे एक मित्र ने एक चिट बढ़ाई- भाई, आप को शायद नौकरी की जरुरत नहीं होगी, हमें है!

उस वक्त हमें लगता था और मीडिया के जानकार कहते थे कि ये संक्रमण काल है जो कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा. दस वर्ष बाद एक बार फिर आपसी रंजिश में मारे गए दो भारतीय सैनिकों की मौत के बाद भारतीय खबरिया चैनल ने जो भूमिका बांध रखी है उससे साफ है कि यह संक्रमण बदस्तूर जारी है. हां, बदलाव ये आया कि उस वक्त आज तक जैसे एक-दो चैनल थे जबकि आज उसके साथ कुछ और बड़े नाम (अंग्रेजी चैनलों के) जुड़ गए हैं!

भारतीय भाषाई मीडिया पाकिस्तान संबंधी खबरों को राज्य और सत्ता के नजरिए से विश्लेषित करती रही है. भाषाई पत्रकारिता पर राष्ट्रवादी भावनाओं को बेवजह उभारने का आरोप हमेशा लगता रहा है, जो एक हद तक सच भी है. पर अब अंग्रेजी पत्रकारिता खास तौर से खबरिया चैनलों की भाषा और उनके तेवर देख कर लगता है कि अब अंग्रेजी और वर्नाक्यूलर के बीच विभाजक रेखा धीरे-धीरे मिट रही है. 

जाहिर है कि सीमा रेखा पर किसी चैनल का कैमरा नहीं लगा है और संघर्ष के वक्त पत्रकार वहाँ नहीं थे. खबरें विश्वस्त सूत्रों से ही मिलती है, पर विश्लेषण करने को तो हमारे स्वनामधन्य पत्रकार-संपादक स्वतंत्र हैं! कुछ समय पहले नोम चोमस्की ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया से ज्यादा स्वतंत्र है और उन पर सत्ता का दवाब अपेक्षाकृत कम है. संभव है इसमें हमें अतिरंजना लगे, पर जिस तरह से पाकिस्तानी की मीडिया ने इस मसले पर रूख अख्तियार किया है उससे चोमस्की का कहना ठीक लगता है. भारतीय खबरिया चैनलों पर कुछ सत्ता का दवाब है, कुछ बाजार का और कुछ कूठमगज़ ऐसे हैं जो खबरों का विश्लेषण करने की जहमत मोल नहीं लेते. ना ही वे सच कहना चाहते हैं जिसे हम तक पहुँचाने का दावा वे 24 घंटे करते रहते हैं.

Sunday, January 27, 2008

गुल, नज़ूरा और रामचंद पाकिस्तानी




जिन्हें नहीं जानते या जिनसे हमारा परिचय नहीं होता है उनके बारे में हम तरह-तरह के ख़्याल बुनते हैं. ये ख़्याल आम तौर पर नकारात्मक ही होते हैं. और यदि वह शख़्स पाकिस्तान से ताल्लुक़ रखता हो तो हमारा पूर्वाग्रह अपने चरम पर होता है.

पाकिस्तान के बारे में सामान्य ज्ञान को छोड़ कर जो कुछ भी जानकारी हमें भारतीय पॉपुलर मीडिया से मिलती है वह आधी-अधूरी होती है. पाकिस्तान की वही ख़बरें हमारे अख़बारों की सुर्खियाँ बनती हैं जो अमूमन ‘मौत की ख़बरों’ से वाबस्ता होती है या जिससे हमारे राष्ट्र और राष्ट्रीयता को प्रत्यक्षतः किसी तरह का नुकसान पहुँचने की संभावना नहीं रहती है.

पाकिस्तान के मामले में भारतीय मीडिया राज्य और सत्ता के नज़रिए से ही ख़बरों को देखने और उन्हें विश्लेषित करने को अभिशप्त लगता है. किसी भी महीने यदि आप भारतीय अख़बारों पर नज़र डालें तो इस तरह की सुर्खियाँ जो दिसंबर, 2007 में नवभारत टाइम्स, दिल्ली में छपी हैं- पाकिस्तानी क्रूज मिसाइलों का जवाब है हमारे पास , एफएम मौलाना बोला- खून बहाने को तैयार, पाक ने टेस्ट की एटमी मिसाइल आदि, आदि देखने को मिल जाएँगी. और ख़बरिया चैनलों की बात जितनी कम की जाए उतना बेहतर. वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद ‘आजतक’ जैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में जो भूमिका अदा कि थी वह जगज़ाहिर है.

पिछले महीने दक्षिण एशिया के क्षेत्र में संघर्ष निवारण और शांति स्थापना के लिए काम कर रही दिल्ली स्थित एक संस्था विसकाम्प (Women in Security Conflict Management and Peace) के हफ़्ते भर के एक वर्कशाप में जब तक़रीबन 25 युवा पाकिस्तानी शोधार्थियों, ऐक्टिविस्टों से बात-चीत करने और उनके संग उठने-बैठने का मौक़ा मिला तो मीडिया की वज़ह से जो ‘स्टरियोटाइप’ छवि मन में बैठी हुई थी उसमें ज़बरदस्त मोड़ आया.

गुल, नज़ूरा और फ़ैजा की चितांएँ हमसे अलग कहाँ थी. सरमद और गुलाम भाई तो हमारी तरह ही यारबाश हैं. कैसे अर्शी और नाबिआ रात के 10-11 बजे जेएनयू की फिजाओं में इस्लामाबाद के क़ायदे आज़म यूनिवर्सिटी की खुशबू ढूँढ रहीं थी. गुल दिल्ली हाट और ख़ान मार्केट में तो ऐसे तफ़रीह कर रहीं थी जैसे वो कराची या लाहौर में हो. संभव है कि यदि मैं भी लाहौर के बाज़ार में घूमूँ तो मुझे भी कुछ ऐसा ही लगे. कब से सुनता-पढ़ता आ रहा हूँ कि ‘जिन ने लाहौर नहीं वेख्या, वो जमया ही नहीं.’ पर यह कब संभव होगा?

इससे पहले नवंबर 2006 में एक सेमिनार में पाकिस्तान के एक शोधार्थी जवाद सैयद से आस्ट्रेलिया में मुलाक़ात हुई थी. साहित्य-संगीत में रूचि होने के नाते फ़ैज़ की शायरी और फ़रीदा ख़ानम की ग़ज़लों से इश्क तो पुराना था लेकिन किसी पाकिस्तानी नागरिक से पहली बार मेरा मुखामुखम इस तरह हुआ.

मिलते ही ऐसा लगा कि जैसे हम एक-दूसरे को वर्षों से जान रहे हो. उनकी दिलचस्पी मीर, ग़ालिब और फ़ैज में काफ़ी थी. वे कहने लगे कि मेरी उर्दू काफ़ी अच्छी है और मैं कहता रहा कि आपकी हिन्दी. बहरहाल उनसे हुई दोस्ती का सिलसिला जारी है. आजकल वे लंदन में हैं. अपनी ख़तो-किताबत उनसे होते रहती है.

सवाल है कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में कितना जानते हैं? या जो जानते हैं वो कितना सच है, कितना झूठ. ठीक इसी तरह एक आम पाकिस्तानी भारत के बारे में कितना कुछ जानता है जिसमें झूठ-सच दूध-पानी की तरह मिला होता है, जिसे अलगाना मुश्किल है.

राजनीति के अलावे सामाजिक-साँस्कृतिक एक-सी ज़मीन जो दोनों देशों के बीच है उस पर कितनी दूर हम इन साठ सालों में चल पाएँ हैं? दो देशों के बीच चली आ रही राजनीतिक लड़ाई में सबसे ज़्यादा साझी संस्कृति की जो बुनियाद है वही प्रभावित हुई है. क्योंकि राजनीतिक लड़ाई इन्हीं साँस्कृतिक हथियारों से लड़ी जाती रही है.

अमरीकी पत्रिका न्यूज़वीक कहती है कि ‘पाकिस्तान धरती पर सबसे ख़तरनाक जगह है’ और भारतीय मीडिया इस ख़बर को लपक कर कहती है कि हम तो यह कबसे कह रहे थे.

लेकिन ख़बरें और भी हैं, जो पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद की ‘रिलकटेंट फंडामेंटलिस्ट’ जैसी किताबें पढ़ने पर हमें झकझोरती हैं या पाकिस्तानी नागरिकों से रू-ब-रू होने पर हमें पता चलता है.

वर्कशाप में ही प्रसिद्ध पाकिस्तानी फिल्म निर्देशक जावेद जब्बार की अगले महीने रिलीज़ होने वाली फ़िल्म 'रामचंद पाकिस्तानी' की कुछ झलकियाँ देखने को मिली. यह अपने आप में पहली पाकिस्तानी फ़िल्म है जो पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फ़िल्म में अभिनेत्री नंदिता दास समेत कई भारतीय कलाकारों का योगदान है. जावेद कहते हैं कि यह फ़िल्म भारत-पाकिस्तान के लोगों में मन में जो 'स्टरियोटाइप' छवियाँ बैठी हुई है उन्हें तोड़ने की एक कोशिश है. साथ ही वे कहते हैं- Unfamiliarity breeds contempt. यानि यदि मेल-जोल न हो तो एक-दूसरे के प्रति तिरस्कार या अवज्ञा का भाव ही मन में जन्म लेता है.

(पहली तस्वीर में बाएँ से नूरअली, सरमद, अर्शी, आमिर, तारिक, फैज़ा, सहर और हूमेरा. दूसरी तस्वीर में गुलरुख़ के साथ लेखक.जनसत्ता, नई दिल्ली से 15 फरवरी 2008 को दुनिया मेरे आगे कॉलम के तहत प्रकाशित)