Monday, April 27, 2015

निहत्थे और निरपराध का डर

अपने पीएचडी शोध के दौरान मैंने दिल्ली से निकलने वाले एक अखबार के नामी संपादक से पूछा था कि अखबारों में किसानों, खेती-बाड़ी की खबरें क्यों नहीं होती हैं, जबकि देश की करीब 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों मे रहती है और जीविका का साधन उनके लिए खेती-किसानी ही है. उनका जवाब था: चैन्नई में कंबल और शिमला में हम कूलर नहीं बेच सकते! हम अख़बार दिल्ली से निकाल रहे हैं और हमारा टारगेट ऑडिएंश गाँव के ग़रीब किसान नहीं हैं! जाहिर है राष्ट्रीय मीडिया के सरोकार से किसान या समाज के हाशिए पर रहने वाले ग़ायब हो गए हैं.  यही बात बॉलीवुड में बनने वाली हिंदी फिल्मों के बारे में भी सच है.  इन फिल्मों की विषय-वस्तु बहुसंख्यक भारतीय लोगों से वावस्ता ना होकर शहरी मध्यवर्ग को लक्षित होती है. 

ऐसे में,  पिछले दिनों दिल्ली में आम आदमी पार्टी की एक रैली के दौरान एक किसान की आत्महत्या की ख़बर को मुख्यधारा, खास तौर पर खबरिया चैनलों ने जो अप्रत्याशित जगह दी, वह आश्चर्यचकित करने वाली थी. वैसे  इस ख़बर को ऐसे परोसा गया जैसे कि कुछ अनहोनी घट गई हो! सच तो यह है कि भारत में उदारीकरण के बाद विभिन्न राज्यों में हर साल सैकड़ों की संख्या में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी है. असल में, मीडिया की रुचि किसानों की समस्याओं, सरकार की किसान विरोधी  नीतियों/ भूमि अधिग्रहण विधेयक में ना हो कर गजेंद्र सिंह नामक किसान की आत्महत्या के पीछे सच-झूठ के दावों की पड़ताल करने में और उसके पीछे ‘राजनीतिक साजिश’ तलाशने में ज्यादा रही. एक-दो दिनों की इस बहस के बाद फिर से किसान, खेती-बाड़ी को अखबारों और खबरिया चैनलों से पहले की तरह ही बेदखल कर दिया गया.

इन्हीं दिनों दिल्ली के ‘फैंसी मॉल’ के चुनिंदा सिनेमा घरों में चैतन्य तम्हाणे निर्देशित राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मराठी फिल्म कोर्ट दिखाई जा रही है. फिल्म की कहानी मुंबई के एक गटर में एक सफाई कर्मचारी की मौत की ख़बर से शुरु होती  है. पुलिस का मानना है कि सफाई कर्मचारी को एक दलित कवि-कार्यकर्ता, नारायण कांबले, के क्रांतिकारी गीत से उकसावा मिला था और यह एक आत्महत्या का मामला है. कवि-कार्यकर्ता के ऊपर मुकदमा चलता है, उसे दोषी पाया जाता है और गिरफ्तार कर लिया जाता है. और हम कोर्ट में दी गई दलील और बहस-मुबाहिसे के एक अंतहीन प्रक्रिया से रू-ब-रू होते हैं. गरीब, मज़लूम जनता के प्रतिनिधि दलित कवि-कार्यकर्ता की आवाज़, सफाई कर्मचारी के हक, समाज के हाशिए पर रहने वाले समूहों के जीने के अधिकार और न्याय के सवाल पृष्ठभूमि में ही रह जाते हैं.    

बिना किसी ताम-झाम के ‘कोर्ट’ हमारी संवेदना को गहरे झकझोरती है. पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई मराठी फिल्में अपने कथ्य और कहन में साफगोई और सहजता के लिए जानी गई है. फिर भी यदि हम ‘कोर्ट’ फिल्म  में  चित्रित एक काल्पनिक सिनेमाई वृत्तांत और  संसद भवन से महज कुछ ही फर्लांग की दूरी पर घटी आत्महत्या की एक वास्तविक घटना को एक साथ रख कर देखें तो हमारे समय की भयावहता,  अच्छे दिनों की जुमलेबाजी, यर्थाथ और कल्पना के बीच की विभाजक रेखा आँखों के सामने धुंधली होने लगती है. 

ऐसा लगता है कि करीब सौ साल पहले  फ्रांज काफ्का ने जिस संसार को साहित्य में रचा था—एक ऐसा संसार जो विडंबना, हताशा, मानवीय संत्रास और चारों तरफ फैले घटाटोप को हमारे सामने लाता है,  वह आज भारतीय समाज और मानवीय अनुभवों के ज्यादा नजदीक है.  प्रसंगवश, काफ्का की विश्व प्रसिद्ध कृति ‘द ट्रायल’ के मुख्य पात्र जोसेफ के. से कोर्ट में न्याय पाने की जद्दोज़हद के बारे में बताते हुए एक अन्य पात्र टिटोरिल्ली (Titorelli) पेंटर कहता है: कोर्ट को कभी भी अपने विचार को बदलने के लिए राजी नहीं किया जा सकता. यदि मैं एक कैनवस पर एक पंक्ति में सभी जजों को चित्रित करूँ और तुम अपना पक्ष इसके सामने रखो तो तुम्हें कहीं ज्यादा सफलता मिलेगी, बनिस्बत ईंट-गारे के बने वास्तविक कोर्ट के सामने अपनी दलील रखने के!

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 1 मई 2015 को 'सरोकार का परदा' शीर्षक से प्रकाशित )

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