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Sunday, December 12, 2021

ध्रुपद संगीत में लयकारी का सम्मान

 

ध्रुपद के वरिष्ठ गायक अभय नारायण मल्लिक को वर्ष 2019 के लिए राष्ट्रीय कालिदास सम्मान देने की घोषणा पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने की. यह सम्मान शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मिला है. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, पच्चासी वर्षीय मल्लिक बिहार के प्रसिद्ध दरभंगा-अमता घराने से ताल्लुक रखते हैं. ध्रुपद के सिरमौर रामचतुर मल्लिक के शिष्य रहे अभय नारायण मल्लिक इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है. उनके पुत्र संजय मल्लिक भी ध्रुपद के चर्चित गायक थे जिनका इसी वर्ष कोरोना महामारी के दौरान निधन हो गया.

मिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. तेरहवीं पीढ़ी के युवा गायक, विदुर मल्लिक के पोते, समित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 'निराशा के बीच यह सम्मान हमारे लिए खुशी लेकर आया है.' दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री) के ओज पूर्ण गौहर-खंडार वाणी और पंडित विदुर मल्लिक के ठुमरी गायन की चर्चा आज भी होती है. इंटरनेट के प्रसार ने शास्त्रीय संगीत की पहुँच को आसान कर दिया है. कोई भी रसिक चाहे तो रामचतुर मल्लिक, विदुर मल्लिक या उनके पुत्र राम कुमार मल्लिक के गाए ध्रुपद या ठुमरी शैली में विद्यापति के पदों को सुन सकता है.

दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तलवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहर, डागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. खुद मल्लिक ध्रुपद के साथ-साथ ठुमरी और विद्यापति के भक्ति पदों को देश-विदेश में गाते रहे हैं और उनके नाम कई कैसेट/सीडी हैं. वे आकाशवाणी से भी लंबे समय तक जुड़े रहे.

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. मैथिली के कवि विद्यापति लोक भाषा के रचनाकारों में अग्रगण्य हुए. दरभंगा घराने में ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ा, लेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ा, वैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. सुखद रूप से देश-विदेश में पिछले दशकों में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. समित मल्लिक कहते हैं कि युवा वर्ग काफी संख्या में ध्रुपद सीख रहे हैं. कुछ साल पहले हुई मुलाकात में पंडित अभय नारायण मल्लिक ने मुझे बताया था कि ‘खयाल का अति हो गया था!’ 

(रवि रंग, प्रभात खबर, 12.12.21)

Wednesday, July 13, 2016

सद्भाव के सुर

पंडित अभय नारायण मल्लिक के साथ लेखक
ऐसे समय में जब चारों तरफ हिंसा की खबरें हैंहिंसा की तैयारी चल रही हैइस मानसून में राग मल्हार या दरबारी कान्हरा की चर्चा बेमानी-सी लगती है. पर जब राजनीतिचाहे वह सत्ता की हो या धर्म कीलोगों को जोड़ने के बजाय बांटने की हो रही होसदियों से एक व्यापक समाज की पहचान से जुड़ी सांस्कृतिक स्मृति और इतिहास को मिटाने पर तुली होतब संगीत की याद बेतहाशा आती है.

स्मृतियों में डूबा-उतराया मैं पिछले दिनों हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद के एक चर्चित घराने दरभंगा शैली के एक प्रतिनिधि और संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पंडित अभय नारायण मल्लिक से मिलने उनके घर गया. जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर चुकेशरीर से कमजोर मल्लिक के सुर और उनकी बोली-वाणी में मजबूती और मिठास अब भी बरकरार है. राग कान्हरा और राग दीपक की चर्चा करते हुए उनकी आंखों में चमक बढ़ जाती है. पिछले साल बिहार में चुनाव के दौरान जब सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय नेता दरभंगा पहुंच कर इस शहर से दरभंगा मॉड्यूल’ और आतंकवाद के तार जोड़ रहे थेतब मन मायूस हो गया था. दरभंगा या किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान हिंसा या अलगाव से नहीं बन सकती है. हाल में उत्तर प्रदेश में शामली जिले के कैराना में ऐसा ही कुछ होता दिखा है. किराना घराने के सिरमौर उस्ताद अब्दुल करीम खान के साथ कैराना का नाम जुड़ा हैपर राजनीतिक पार्टियों और मीडिया को झूठ-अफवाहों के सिवा कुछ पता नहीं! या फिर जान-बूझ कर एक साजिश के तहत सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिश हो रही है.

बहरहालवर्तमान पीढ़ी भले ही दरभंगा घराने से अपरिचित होमिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. इसे दरभंगा-अमता घराना के नाम से जाना जाता है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. पंडित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. ध्रुपद के श्रेत्र में दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री)पंडित सियाराम तिवारी (पद्म श्री)पंडित विदुर मल्लिक के गायन की चर्चा आज भी होती है. दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तालवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. यह एक उदाहरण है कि राष्ट्र की सीमा भले ही एक-दूसरे को अलगाती हैमगर संगीत एक-दूसरे को जोड़ता रहा है. यही बात रवींद्र संगीत के बारे में भी कही जा सकती है.

दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. गौरतलब है कि ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. पखावज के नामी वादक पंडित रामाशीष पाठक दरभंगा घराने से ही थे.
पं रामचतुर मल्लिक पंडित जी के गुरु थे

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ालेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ावैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. पिछली सदी के शुरुआती दशकों में ध्रुपद की लोकप्रियता में कमी आई. सुखद रूप से एक बार फिर पिछले तीन-चार दशकों से देश-विदेश में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. पंडित अभय नारायण मल्लिक ने बताया कि खयाल का अति हो गया था!

दरभंगा महाराज के दरबार से जुड़ा यह घराना आजादी के बाद भी बिहार में संगीत के सुर बिखेरता रहा. पुराने दौर के लोग याद करते हैं कि 60-70 के दशक में दरभंगालहेरियासराय में होने वाली दुर्गापूजा के दौरान किस तरह पंडित रामचतुर मल्लिक की अगुआई में देश भर के संगीत के दिग्गज अपनी मौसिकी का जादू बिखरते थे. लेकिन बाद के दशकों में जैसे-जैसे बिहार में राजनीतिक माहौल प्रतिकूल होता गयादरभंगा में भी ध्रुपद की परंपरा सिमटने लगी.

इसके बाद धीरे-धीरे दरभंगा से इस घराने का कुनबा देश के विभिन्न शहरों में जमता गया. हालांकि पंडित अभय नारायण मल्लिक अभी भी दरभंगा और अपने गांव अमता को शिद्दत से याद करते हैं. विद्यापति के पद को गाते हुए वे अतीत को याद करने लगते हैं और बताते हैं कि दरभंगा रेडियो स्टेशन में उनके गाए विद्यापति के पद रिकॉर्ड में मौजूद होने चाहिए. उन्होंने याद किया कि उनके गुरु पंडित रामचतुर मल्लिक भी अपनी गायकी के आखिर में विद्यापति के पद ही गाते थे. पंडित मल्लिक के घर से निकलते हुए मुझे बचपन में पढ़ी यह पंक्ति याद आई- यह विशुद्ध साहित्य-संगीतवह गंदी राजनीति!’ 

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 13.07.2016 को प्रकाशित)