Monday, January 22, 2018

मैथिली के अजेंडे में पिछड़े-दलित क्यों नहीं

नवभारत टाइम्स
बीसवीं सदी के पहले दशक में यह राय कायम थी कि मैथिली केवल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की भाषा है। मैथिली महासभा (1910) ने इस अवधारणा की पुष्टि की। मैथिली भाषा के प्रचार-प्रसार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए बनाई गई इस सभा में केवल पंजीबद्ध मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों का प्रवेश सुरक्षित था। फिर समाज के हाशिए पर जो लोग थे वे कहां थे, जिनकी भाषा मैथिली थी, जो बहुसंख्यक थे? इस सवाल का जवाब मुख्यधारा के भाषाई इतिहास में नहीं मिलता।
वर्ष 2004 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिया गया, पर दुर्भाग्यवश, इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी यह सवाल उसी रूप में मौजूद है कि मैथिली भाषा-साहित्य में ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की उपस्थिति ही सब जगह क्यों नजर आती है जबकि पूरे मिथिला भू-भाग में यह बोली ओर समझी जाती रही है?
पिछले दिनों पहली बार दिल्ली स्थित एक स्वयंसेवी संस्था ने ‘मचान’ नाम से विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में मैथिली के प्रकाशकों का स्टॉल लगाया। इसे लेकर दिल्ली में रहने वाले मैथिलीभाषियों में काफी उत्साह था। ‘मचान’ ने एक कैलेंडर जारी किया जिसमें मैथिली के साहित्यकारों में 11 ब्राह्मण और एक कायस्थ रचनाकार की चर्चा थी। सवाल है कि क्या मैथिली आधुनिक काल में एक भी गैर द्विज रचनाकार तैयार नहीं कर पाई? माना कि नागार्जुन, राजकमल चौधरी, हरिमोहन झा आदि रचनाकारों की प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता ने मैथिली साहित्य को एक नई धार दी, उसे आधुनिक रंगों में रंगा। पर सवाल यह भी उठता है कि ‘बलचनमा’ (मैथिली) और ‘हरिजन गाथा’ (हिंदी) लिखने वाले नागार्जुन की प्रतिक्रिया इस कैलेंडर को लेकर क्या होती? या ब्राह्मणवाद पर प्रहार करने वाली ‘खट्टर ककाक तरंग’ जैसी अद्वितीय कृति रचने वाले हरिमोहन झा इसे किस रूप में देखते?
इसी मंच से 'मिथिलाक लोक-संसार में पर्यावरण संरक्षण' पर हुई बहस में वक्ताओं में सब एक ही जाति विशेष के विद्वान थे। लोक-संसार की यह चर्चा लोक की अवहेलना करके कैसे हो सकती है? गौरतलब है कि इस विमर्श को ‘मैथिली-भोजपुरी अकादमी’ और ‘नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी)’ का सहयोग प्राप्त था। लोकतांत्रिक भारत में सरकारी सहयोग से हो रहे इस तरह के विमर्शों में हाशिए के समाज की भागीदारी न होना आयोजकों की मंशा पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
प्रसंगवश, इस बार मैथिली के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, भाषा वैज्ञानिक उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ पुस्कृत कविता पुस्तक ‘जहलक डायरी’ की प्रस्तावना में लिखते हैं, ‘पिछले पचास वर्ष के साहित्य जीवन में मैं ऐसे किसी से नहीं मिला जो मैथिली के लिए प्राण समर्पित कर सके…। हमारे पास कोई पोट्टी श्रीरामुलु नहीं हैं।’ इसी संदर्भ में यह भी याद किया जा सकता है कि जिन करीब 50 साहित्यकारों को मैथिली में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है, सभी उच्च जातियों से ही आते हैं।
मैथिली भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने का आंदोलन कई बार उठ कर बैठ गया। यह जन आंदोलन का रूप लेने में असमर्थ रहा है। राजनीतिशास्त्रियों ने इसके कारण के रूप में मैथिल ब्राह्मणों व कर्ण कायस्थों की संस्कृति और गैर ब्राह्मणों और गैर कायस्थों की संस्कृति में फर्क को रेखांकित किया है। कह सकते हैं कि मैथिली भाषा आंदोलन से बाकी मैथिलों का कोई लगाव नहीं है। इतिहासकार पंकज कुमार झा लिखते हैं, ‘आधुनिक काल में, ख़ास कर आजादी के बाद विद्यापति जिस ‘गौरवशाली मैथिल संस्कृति’ के प्रतीक-चिह्न बन कर उभरे हैं उसमें गैर-द्विजों एवं ग्रामीणों की भागीदारी लगभग नगण्य है।’
साहित्य जब राजनीतिक चेतना से शून्य हो जाता है तो किस तरह की परिस्थिति पैदा होती है, उसे राजकमल चौधरी ने अपनी एक कविता ‘कवि परिचय’ में इस तरह व्यक्त किया है: ‘कविता हमर काँचे रहि गेल/एहि जारनि सं उड़ल कहां धधरा/व्यथा कहब ककरा/कथा कहब ककरा/ ’(कविता मेरी कच्ची ही रह गई/इस जलावन से आग की लपटें कहां उठीं/किससे अपनी व्यथा कहें/किससे अपनी कथा कहें)
(नवभारत टाइम्स,संपादकीय पेज पर 22 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

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