Sunday, February 16, 2025
Sunday, May 26, 2024
मैथिली सिनेमा: एक दुनिया समानांतर
पिछले साल नीरज कुमार मिश्र निर्देशित मैथिली फिल्म ‘समानांतर’ को मैथिली में ‘बेस्ट फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. उल्लेखनीय है कि मैथिली सिनेमा के पचास वर्षों के इतिहास में महज दो फिल्मों को ही यह सम्मान मिला है. इससे पहले वर्ष 2016 में ‘मिथिला मखान’ को मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
पिछले दिनों दिल्ली के हैबिटेट फिल्म समारोह में ‘समानांतर’ फिल्म का प्रदर्शन किया गया. भले ही इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हो, यह फिल्म अभी तक आम लोगों के लिए प्रदर्शित नहीं हुई है. ‘मिथिला मखान’ को भी चार साल के बाद निर्देशक नितिन चंद्रा ने अपने निजी वेबसाइट पर रिलीज किया था.
इस बीच मैथिली में बनी ‘गामक घर’, ‘धुइन’ जैसी फिल्मों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहा गया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इसे रिलीज भी किया गया. यही बात हिंदी में बनी लेकिन मैथिली समाज को घेरे में लेती पार्थ सौरभ की फिल्म ‘पोखर के दुनू पार’ के बारे में भी कही जा सकती है. बहरहाल, ये फिल्में जहां बेरोजगारी, पलायन, जाति से बंटे समाज में प्रेम जैसे मुद्दों को चित्रित करती हैं, वहीं ‘समानांतर’ की दुनिया में हिंसा और पारलौकिक तत्व हैं. प्रसंगवश, पिछले साल रिलीज हुई नितिन चंद्रा की फिल्म ‘जैक्सन हॉल्ट’ में भी हिंसा कहानी के मूल में था. यह देखना सुखद है कि हाल के वर्षों में मैथिली सिनेमा के विषय-वस्तु में विस्तार आया है.
इस फिल्म में चार कहानियों को एक सूत्र में पिरोया गया है. ये चारों कहानियाँ सहरसा के इर्द-गिर्द बसी है. हर कहानी में हिंसा का तत्व है, पर सामाजिक विसंगतियों के समाधान के लिए लेखक-निर्देशक ने एक समानांतर दुनिया रची है. इस दुनिया में राज्य सत्ता, मसलन पुलिस और न्यायालय नहीं दिखते हैं. ऐसे में फिल्म महज एक फंतासी बन कर रह जाती है. एक कहानी में बकायदा ‘भूत’ के रहस्य पर चर्चा है. ऐसा लगता है कि सामाजिक विचलन के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को सजा भी यही भूत देता है!
इस फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद जब मैंने निर्देशक से इस बाबत सवाल किया तो उनका कहना था कि ‘कर्म फल के लिए उन्होंने ‘सुपरनेचुरल’ तत्वों का इस्तेमाल किया है.’ यूँ तो फिल्में किसी भी विषय-वस्तु को परदे पर चित्रित कर सकती है, पर जब कहानियाँ मिथिला जैसे इलाके में अवस्थित हो तब आप ‘कर्म फल’ के नाम पर सामाजिक यथार्थ से मुंह नहीं चुरा सकते. यदि आधुनिक समाज में हिंसा है जो उसकी परिणति और सजा भी आधुनिक मानदंडों के अनुरूप ही होगी. जैसा कि ‘जैक्सन हॉल्ट’ फिल्म में हमने देखा था. इस फिल्म में जहाँ एनएसडी से प्रशिक्षित कलाकार थे ,वहीं ‘समानांतर’ फिल्म में अधिकांश कलाकार ‘एमेच्योर’ है.
मिथिला के भू-भाग को सुंदरता और सादगी से दिखाने में निर्देशक कामयाब रहे हैं. साथ ही इस फिल्म में गाँव-देहात में मौजूद विभिन्न ध्वनियों की बारीकियों को भी खूबसूरती से पकड़ा गया है. आश्चर्य नहीं कि ध्वनि संयोजन के लिए ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित रेसुल पोकुट्टी का नाम भी फिल्म के पोस्टर पर दिखता है. उन्होंने ही इस फिल्म को प्रस्तुत किया है.
Monday, July 17, 2023
Amid a Bollywood Wave, Maithili Films Offer New Perspective on Societal Issues, but Lack Exposure
There are nearly 50 languages in which films are made in India but films produced from Bollywood in Hindi are invariably discussed and debated in the mainstream media. They hog the limelight. We seldom get to know about the movies made in North-Eastern languages or other regional cinema.
Friday, April 29, 2022
मैथिली की पहली फिल्म ‘कन्यादान’
मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:
रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज
(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक
हेतु चलिये रहल छी)
मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (“रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)
हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे, जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा था, पर मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक ‘द्विरागमन’ समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में फिल्म बनी, जो वर्ष 1971 में कन्यादान नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं है, पर बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई.
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी यह फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं है, जैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. उस पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थी, पर हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए. ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.
हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मिथिला का सामाजिक यथार्थ इस फिल्म (उपन्यास) में व्यक्त हुआ है. विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक युवक, सी सी मिश्रा की शादी एक ग्रामीण अशिक्षित युवती, बुच्चीदाई से हो जाती है. स्त्री शिक्षा की अनदेखी, बेमेल विवाह और दहेज की समस्या इसके मूल में है. फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष और संवाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु ने लिखे थे. फिल्म से जुड़े कलाकार गोपाल, चाँद उस्मानी, लता सिन्हा, तरुण बोस आदि की मातृभाषा मैथिली नहीं थी. पर मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की इस फिल्म में एक प्रमुख भूमिका थी. शूटिंग मुंबई और मिथिला में हुई थी और फिल्म में मैथिली और हिंदी का प्रयोग है. स्त्रियों के हास-परिहास, सभागाछी, शादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेला, गोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म के गीत-संगीत में चर्चित लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था.
जैसा कि आम तौर पर साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्मों के साथ होता रहा है, किताब के लेखक निर्देशक के फिल्मांकन से कम ही संतुष्ट होते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि साहित्यकार यह समझ नहीं पाते कि फिल्म में बिंब की भूमिका प्रमुख होती है. जिस रूप में साहित्यकार ने कथा को अपने लेखन में चित्रित किया है, उसी रूप में फिल्म में नहीं ढाला जा सकता है. मसलन ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास का देशकाल आजादी के पहले का समाज है (जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी), जबकि फिल्म लगभग तीस साल के बाद बनी है. हरिमोहन झा ने इस फिल्म के बारे में लिखा है- ‘चित्र जेहन हम चाहैत छलहूँ तेहन नहि बनि सकल (फिल्म हम जैसा चाहते थे वैसा नहीं बन सकी)’. बहरहाल, उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि इस फिल्म ने मैथिली में सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाया और ‘मधुश्रावणी’, ‘ललका पाग’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्में आगे जाकर बनी.
जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ भी बन रही थी जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एलफिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एलफिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआ, में पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है. जाहिर है, बिहार में सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. आजादी के बाद मैथिली-मगही-भोजपुरी में सिनेमा निर्माण भी हुआ, पर बाद में जहां तक सिनेमा के संरक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज उदासीन ही रहा है.
जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती है, भोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.
‘ममता गाबय गीत’ के निर्माण से जुड़े रहे केदार नाथ चौधरी इस फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘अबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-‘अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’. इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? केदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? ‘कन्यादान’ फिल्म में रेणु की छाप फिल्म के संवाद में प्रमुखता से दिखती है. जैसा कि हमने नोट किया फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. जिसे फिल्म का एक पात्र झारखंडी सी सी मिश्रा के साथ बातचीत में ‘कचराही’ (कचहरी में जिस भाषा में गवाही दी जाती हो) बोली कहते हैं. ‘मारे गए गुलफाम’ में भी रेणु लिखते हैं: ‘कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल-खोल गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है किसी से.’
प्रसंगवश, नवेंदु घोष और रेणु की जोड़ी एक बार फिर से ‘मैला आँचल’ उपन्यास पर बनने वाली फिल्म ‘डागदर बाबू’ में साथ आई थी. मन में सहज रूप से यह सवाल उठता है कि नवेंदु घोष, जिन्होंने ‘कन्यादान’ और ‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा लिखी थी, के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म का क्या स्वरूप होता? बिंबो और ध्वनियों के माध्यम से यह फिल्म मैला आँचल कृति को किस तरह नए आयाम में प्रस्तुत करती?70 के दशक के मध्य में यह फिल्म बननी शुरू हुई थी, पर निर्माता और वितरक के बीच अनबन के चलते इसे अधबीच ही बंद करना पड़ा. उस दौर के लोग ‘डागदर बाबू’ की शूटिंग और फिल्म के पोस्टर को आज भी याद करते हैं. रेणु के पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय कहते हैं कि फिल्म के 13 रील तैयार हो गए थे. वे बताते हैं कि ‘मायापुरी’ फिल्म पत्रिका में ‘आने वाली फिल्म’ के सेक्शन में इस फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया था. नवेंदु घोष के पुत्र और फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष कहते हैं कि उस वक्त वे फिल्म संस्थान, पुणे (एफटीआईआई) में छात्र थे और अपने पिता को असिस्ट करते थे. वे दुखी होकर कहते हैं, “बाम्बे लैब में इस फिल्म के निगेटिव को रखा गया था. 80 के दशक में बंबई में आई बाढ़ में वहाँ रखा निगेटिव खराब हो गया... अब कुछ नहीं बचा है.” शूटिंग के दिनों को याद करते हुए शुभंकर घोष नॉस्टैल्जिक हो जाते हैं. वे कहते हैं “काफी खूबसूरत कास्टिंग थी. धर्मेंद्र, जया बच्चन, उत्पल दत्त, पद्मा खन्ना, काली बनर्जी इससे जुड़े थे. जब रेणु की जन्मभूमि फारबिसगंज में इसकी शूटिंग हो रही थी तब धर्मेंद्र-जया को देखने आने वालों का तांता लगा रहता था. कई लोग पेड़ पर चढ़े होते थे.’ फिल्म के प्रसंग में वे आर डी बर्मन के दिए संगीत का जिक्र खास तौर पर करते हैं. वे कहते हैं कि नंद कुमार मुंशी जो इस फिल्म के निर्माता एस.एच. मुंशी के पुत्र हैं, किसी तरह आरडी बर्मन के गीतों को संरक्षित करने में उनकी सहायता करें. घोष कहते हैं कि फिल्म में पंचम ने असाधारण संगीत दिया था, जो मुंशी परिवार के पास ही रह गया. कन्यादन के निर्माता भी एस.एच. मुंशी ही थे. संभव है कि कन्यादान फिल्म का प्रिंट मुंशी परिवार के पास हो. यदि ‘डागदर बाबू’ फिल्म बन के तैयार हो गई होती तो हिंदी सिनेमा की थाती होती. शुभंकर याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता नवेंदु घोष और रेणु अच्छे दोस्त थे. ‘मैला आंचल’ की पॉकेट बुक की प्रति हमेशा अपने पास रखते थे और वर्षों तक उन्होंने उसकी पटकथा पर काम किया था.
‘रेणु’ का जन्मशती वर्ष भी है. जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती है, वहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. रेणु के योगदान का उल्लेख नहीं होता. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा!
सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- ‘सिनेमा से संवाद’ में नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ साहित्य समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पाया? क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुए? उल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनीं, जिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहाल, बॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं.
‘कन्यादान’ फिल्म
में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी
डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान
फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल
अछि. हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक
सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत
की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली
फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व
इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म
संस्कृति की शुरुआत की थी.
मराठी, बांग्ला, असमिया, भोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैं, एक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (गाँव का घर) की खूब चर्चा हुई, पर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि ‘कन्यादान’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्मों के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.
Sunday, February 27, 2022
धुंध में लिपटा वर्तमान और भविष्य
कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन रहता है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालम, मराठी, असमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. इसी कड़ी में 22वें मुंबई फिल्म समारोह में पिछले दिनों दिखाई गई मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ है. इसे अचल मिश्र ने निर्देशित किया है. इसी समारोह में वर्ष 2019 में इनकी बहुचर्चित मैथिली फिल्म ‘गामक घर (गाँव का घर)’ प्रदर्शित की गई थी. इस बार का समारोह ऑनलाइन आयोजित किया जा रहा है.
Sunday, February 06, 2022
'कन्यादान' के पचास साल
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ दिखी. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए. ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है. मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा (1908-1984) के क्लासिक उपन्यास ‘कन्यादान-द्विरागमन’ पर आधारित और फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म वर्ष 1971 में रिलीज हुई थी. जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी.
Friday, February 04, 2022
मैथिली साहित्य की विशिष्ट रचनाकार लिली रे (1933-2022)
मैथिली साहित्य की अप्रतिम रचनाकार लिली रे का गुरुवार (3 फरवरी) को दिल्ली में निधन हो गया. वे पिछले कुछ वर्षों से पार्किंसन बीमारी से पीड़ित थी. मैथिली साहित्य में एक वर्ग विशेष के पुरुष रचनाकारों का वर्चस्व रहा है. लिली रे ने अपने लेखन से उस वर्चस्व को चुनौती दी, जिसकी अनुगूँज अखिल भारतीय स्तर पर सुनी गई. पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आधुनिक मैथिली साहित्यकार हरिमोहन झा, नागार्जुन और राजकमल चौधरी आदि के रचनाकर्म पर जिस तरह विचार-विमर्श हुआ है, जिस रूप में साहित्य की समीक्षा हुई उस रूप में लिली रे के कथा-साहित्य की नहीं हुई. एक तरह से उनकी उपेक्षा हुई. जबकि मैथिली साहित्य में उन्हें ‘मरीचिका’ उपन्यास के लिए वर्ष 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. बाद में नीरजा रेणु, उषा किरण खान और शेफालिका वर्मा को भी मैथिली में साहित्य अकादमी मिला.
मधुबनी जिले में 26 जवरी 1933 को एक संपन्न परिवार में उनका जन्म हुआ और घर पर ही शिक्षा-दीक्षा हुई. जैसा कि उस
समय प्रचलन था उनकी शादी महज बारह वर्ष की आयु में पूर्णिया जिले में हो गई,
पर उनमें पढ़ने-लिखने की उत्कट आकांक्षा थी.
उन्होंने अपनी आत्मकथा-‘समय के घड़ैत’
में लिखा है: "सबसँ पहिने हमर रचना सब
वैदेही मे कल्पनाशरणक नाम सँ बहराइत छल. वैदेही क सम्पादक छलाह-श्री कृष्णकांत
मिश्र, लालबाग, दरभंगा. प्रथम रचनाक शीर्षक छल-रोगिणी. सब रचना
संभवत: 1954 सँ 1958 केर बीच छपल छल. तदुपरांत, 1978 सँ लिली रेक नाम सँ लिखए लगलहुँ. (सबसे पहले
मेरी रचना सब वैदेही (पत्रिका) में कल्पना शरण के नाम से छपी. वैदेही के संपादक थे
श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. पहली रचना का शीर्षक था-रोगिणी. सब
रचना संभवत: 1954 से 1958 के बीच छपी. उसके बाद वर्ष 1978 से लिली रे नाम से लिखने लगी.”
पहली रचना ‘रोगिणी’
(1955) और ‘रंगीन परदा’ (1956) से ही लिली रे का मैथिली साहित्य में विशिष्ट स्वर सुनाई
देने लगा था. मैथिली स्त्री लेखन में ऐसी परंपरा नहीं थी. ‘रंगीन परदा’ में मिथिला के
सामंती समाज का पाखंड मालती और मोहन के बीच विवाहेतर संबंध के माध्यम से व्यक्त
हुआ. इस कहानी में दामाद और सास के बीच जो शारीरिक संबंध दिखाया गया है उससे
मिथिला के साहित्यक दुनिया में अश्लीलता को लेकर बहस छिड़ गई. लेकिन राजकमल चौधरी जैसे साहित्यकार से लिली रे को
प्रशंसा के पत्र भी मिले थे. उनके कथा साहित्य की स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता के
प्रति सचेष्ट है. ‘रोगिणी’ की गर्भवती विधवा रेनू आत्महत्या के बदले जीवन
को चुनती है.
लिली रे के उपन्यास (पटाक्षेप) और कहानियों (बिल टेलर की डायरी) को हिंदी में
अनुवाद करने वाली मैथिली लेखिका विभा रानी ने ठीक ही लिखा है कि “लिली रे की कहानियों में स्थानीय मिथिला के
साथ-साथ देश भर मुखरित है, जो कथा संसार की
सार्वभौमिकता का व्यापक फलक है. दिल्ली से लेकर दार्जिलिंग व सिक्किम तक तथा मजदूर
से लेकर राजदूत तक तथा देशी से लेकर विदेशी तक- सभी इनकी कथाओं के पात्र व कैनवास
में फैले हुए हैं.” लिली रे का
ज्यादातर जीवन मिथिला के परिवेश से बाहर बीता. इस लिहाज से लिली रे का अनुभव संसार
व्यापक है जो उनकी कथा साहित्य के विषय वस्तु के चयन में दिखता है. जहाँ दो खंडों
में फैले ‘मिरीचिका’ उपन्यास में जमींदारी, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेष के साथ जीवन का चित्रण है वहीं
पटाक्षेप (1979) उपन्यास के मूल
में नक्सलबाड़ी आंदोलन है.
प्रसंगवश, वर्ष 1960 के दशक में उनका लेखन मंद रहा, लेकिन फिर ‘पटाक्षेप’ (मिथिला मिहिर
पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन) से लेखन ने जोर पकड़ा. मेरी जानकारी में
नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया
है. बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी. ‘पटाक्षेप’ में बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप, अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों-मजदूरों को तैयार करने की कार्रवाई
पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों की कहानी
है. रबिंद्र लिली रे के पुत्र थे जिनका वर्ष 2019 में निधन हो गया. अपनी आत्मकथा में भी लिली रे नक्सलबाड़ी
आंदोलन में पुत्र रबिंद्र रे (लल्लू) के भाग लेने का जिक्र करती हैं कि किस तरह
लल्लू हताश होकर आंदोलन से लौट आए और फिर अकादमिक दुनिया से जुड़े.
इस उपन्यास का एक पात्र सुजीत कहता है- ‘हमारी पार्टी का लक्ष्य है- शोषण का अंत. श्रमिक वर्ग को
उसका हक दिलाना.’ मानवीय मूल्यों
को चित्रित करने वाला यह उपन्यास आत्मपरक नहीं है. सहज भाषा में, बिना दर्शन बघारे लिली रे ने सधे ढंग से
वर्णनात्मक शैली में उस दौर को संवेदनशीलता के साथ ‘पटाक्षेप’ में समेटा है.
उनकी यथार्थवादी दृष्टि प्रभावित करती है. लिली रे के निधन के साथ ही मैथिली
साहित्य के एक युग का भी पटाक्षेप हो गया.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
Thursday, January 27, 2022
मैथिली सिनेमा के धरोहर की अनदेखी
उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं है, जैसा कि लोग बताते रहे हैं. फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा के उपन्यास-‘कन्यादान’ पर आधारित है जिसमें बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ भी बन रही थी जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं.
‘कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखा था. ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती है, वहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. प्रसंगवश यह रेणु की जन्मशती वर्ष भी है.
सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- ‘सिनेमा से संवाद’ में ठीक ही नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पाया? क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुए? उल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनीं, जिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहाल, बॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं.
‘कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.
मराठी, बांग्ला, असमिया, भोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैं, एक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सच तो यह है कि सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता भी क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ की खूब चर्चा हुई, पर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि मैथिली सिनेमा के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)