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Sunday, December 11, 2022

टेलीविजन न्यूज चैनल के सितारे: रवीश कुमार का इस्तीफा


हिंदुस्तान में टेलीविजन न्यूज चैनल के 'स्टार एंकर' फिल्म सितारे से कम लोकप्रिय नहीं हैं. असल में, टीवी के पास महज एक परदा है जिसके मार्फत पिछले दो दशक से ये एंकर रोज हमारे ड्राइंग रूम में हाजिर होते रहे हैं. टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित टेलीविजन के चर्चित पत्रकार-एंकर रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. पिछले दिनों देश के एक प्रमुख समाचार चैनल एनडीटीवी इंडिया से उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस चैनल से वे करीब पच्चीस वर्षों से जुड़े थे. इस्तीफे के बाद सोशल मीडिया पर रवीश के प्रति लोगों का प्रेम उमड़ पड़ा. साथ ही मीडिया और पूंजी के गठजोड़ को लेकर भी आलोचना हुई. यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भले एक एंकर की भूमिका समाचार चैनल में प्रमुख हो, पर जहाँ ‘स्टार वैल्यू’ से उनका कद बढ़ा वहीं टीवी समाचार उद्योग की निर्भरता भी इन पर बढ़ती चली गई. टीआरपी के पीछे आज जो भागदौड़ दिखती है वह भी इसी से जुड़ी हुई है. एनडीटीवी के पूर्व रिपोर्टर संदीप भूषण ने अपनी किताब ‘द इंडियन न्यूजरूम’ में एनडीटीवी के हवाले से स्टार एंकरों के बारे में विस्तार से लिखा है कि किस तरह इनकी वजह से टीवी उद्योग में आज रिपोर्टर की भूमिका सिमट कर रह गई है. किताब में एनडीटीवी की आलोचना भी शामिल है.

जब हम बीस साल पहले पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे तब टीवी पत्रकार बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई का जोर था. पिछले दशक में अर्णब गोस्वामी, रवीश कुमार चर्चा में रहे. रवीश अपनी रिपोर्टिंग के लिए जाने गए, लेकिन बाद में वे प्राइम टाइम में ही सिमट कर रह गए. निस्संदेह रिपोर्टर की छवि का उन्हें प्राइम टाइम में लाभ हुआ. वर्ष 2014 में सत्ता बदलने के बाद भी रवीश सत्ता से बेलाग सच कहने के साहस के साथ खड़े रहे. यह हिंदी पत्रकारिता की एक उपलब्धि रही, रवीश उसके अगुआ है.

सोशल मीडिया के कोलाहल के बीच एक बात दबी रह गई, जिसका जिक्र जरूरी है. टेलीविजन मीडिया बड़ी पूंजी की मांग करता है. शुरुआती दौर से मीडिया पूंजीवाद का उपक्रम रहा है. मीडिया पर नजर रखने वाले जानते थे कि एनडीटीवी देर-सबेर कर्ज के बोझ से डूबेगी ही, हालांकि पारदर्शिता की बात करने वाले मीडिया की अर्थव्यवस्था की जानकारी लोगों के सामने कम ही आ पाती है.

मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैक्लुहान ने लिखा है कि ‘माध्यम ही संदेश’ है. पिछले दिनों देश के कई प्रमुख टेलीविजन एंकर टीवी उद्योग से अलग होकर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म (यूट्यूब चैनल) पर दिखाई देने लगे हैं. करण थापर, बरखा दत्त, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, आरफा खानम शेरवानी, अभिसार शर्मा आदि की लिस्ट में एक नाम और जुड़ गया है, रवीश का. आने वाले समय में यह नया माध्यम लोकतंत्र के लिए क्या संदेश लेकर आता है, यह देखना रोचक होगा.

Sunday, June 26, 2022

संकट में टेलीविजन समाचार चैनल


टेलीविजन चैनलों पर आपत्तिजनक टिप्पणियों को लेकर टेलीविजन समाचार चैनलों की संस्कृति अक्सर सवालों के घेरे में रहती है. उदारीकरण के बाद देश में सेटेलाइट टेलीविजन चैनलों का अभूतपूर्व विकास हुआ और आज करीब चार सौ समाचार चैनल विभिन्न भाषाओं में मौजूद हैं. सवाल है कि पिछले दशकों में टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रही है? क्या ये चैनल लोकतंत्र में खबरों, बहस-मुबाहिसा के माध्यम से गुणात्मक परिवर्तन लाने में सफल रहे हैं?

टेलीविजन स्क्रीन पर वही दिखता है जिसे कैमरा रिकॉर्ड कर सकता है. यहाँ तकनीकी की प्रधानता है, लेकिन कैमरा के पीछे और उसे निर्देशित करने वालों की भूमिका साथ-साथ चलती है. भारत में टेलीविजन समाचार संस्कृति का विकास जिस रूप में हुआ है उसमें खबरों के संग्रहण-प्रसारण से ज्यादा जोर स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा पर है. इसमें जो विषय-वस्तु शामिल होते हैं वे सम-सामयिक मुद्दों से जुड़े होते हैं जिनका ज्यादातर हिस्सा राजनीतिक बहसों को समर्पित होता है.
यहाँ पर एंकरों की भूमिका प्रमुख हो उठती है, हालांकि एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. यह बाजार के भी हित में है. अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश समाचार चैनलों के सरोकार जनता से नहीं जुड़े हैं. इनका ध्यान सूचनाओं, विमर्शों के मार्फत ‘लोक’ को सशक्त करने में नहीं है, जिससे कि वे लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभा सके.
यह सच है कि टेलीविजन की वजह से देश में खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों तक हुई और इससे लोकवृत्त का विस्तार हुआ है. साथ ही एक ऐसा नेटवर्क बना है जिसमें जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के समाचार चैनलों की विषय-वस्तु और भाषा-शैली का विश्लेषण करने से स्पष्ट है कि यहाँ एंकरों, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं, में एक उग्रता,एक आक्रमता दिखती है जो जनसंचार में सहायक नहीं है. जब बात राष्ट्रवाद, धार्मिक सौहार्द या अल्पसंख्यकों के हितों की हो टेलीविजन चैनलों की प्रतिबद्धता नागरिक समाज और लोकतंत्र के प्रति नहीं दिखती है. इनमें एक पेशेवर रवैये का सर्वथा अभाव दिखता है.
बीस साल पहले जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, तब कहा जा रहा था कि टेलीविजन मीडिया अभी शैशव अवस्था में है. यह संक्रमण काल है और कुछ वर्षों में ठीक हो जाएगा. लेकिन पिछले कुछ सालों की प्रवृत्ति पर गौर करें तो लगता है कि यह संक्रमण फैलता ही गया. पहले मुख्य रूप से हिंदी के समाचार चैनल इससे ग्रसित थे, अब अंग्रेजी के चैनल भी इसकी चपेट में आ गए हैं. पहले खबरों के उत्पादन और प्रसारण में भाषाई और अंग्रेजी समाचार चैनलों में एक विभाजक रेखा स्पष्ट दिखती थी, जो तेजी से मिट रही है. ऐसे में टेलीविजन समाचार चैनलों पर विश्वसनीयता का भारी संकट है, जो लोकतंत्र के हित में नहीं है.

Friday, April 15, 2022

टीआरपी के चक्र में टीवी


बीस साल पहले इसी महीने हम
  भारतीय जनसंचार संस्थानदिल्ली से पत्रकारिता में प्रशिक्षण लेकर निकले थे. उन्हीं दिनों बाजार में कई नए निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने की संभावना थीकुछ ने चौबीसों घंटे अपना प्रसारण शुरू कर दिया था. नौकरी को लेकर हम उत्साहित थेपर हम युवा साथियों के मन में टेलीविजन चैनलों की विषय-वस्तुमनोरंजनयुद्धोन्मादआक्रामकता आदि को लेकर अच्छे भाव नहीं थे. अमेरिका में हुए 9/11 आतंकी हमले,  भारतीय संसद पर हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर आया था. उसी दौर में इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय मीडिया में प्रचलन में आए थे और एक समुदाय विशेष की स्टीरियोटाइप छवि टीवी पर दिखाई जा रही थी. बीस साल के बाद भी हमारे भाव बदले नहीं हैंफर्क इतना है कि हमें उस वक्त कहा जाता था कि अभी संक्रमण काल (transition period)’ है जो कुछ महीनों में ठीक हो जाएगाजबकि अब कहते हैं कि टेलीविजन चैनलों के लिए यह संकट काल है. अनायस नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से देश के चर्चित पत्रकार-एंकररवीश कुमारदर्शकों से टेलीविजन चैनल नहीं देखने की बार-बार अपील करते हैं!

ऐसा नहीं कि दस साल पहले कोई अच्छी स्थिति थी. वर्ष 2013 में वरिष्ठ पत्रकार-एंकर करण थापर ने एक आयोजन में कहा था: “टीवी चैनल दरअसलटीआरपी की दौड़ में लगे हैं. बीबीसी स्वायत्त है. वह विज्ञापन के लिए नहीं भागता. अगर आप ‘न्यूज वैल्यू’ से अलग होते हैं तो आपकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है और यह पत्रकारिता नहीं है.” पिछले दिनों टीआरपी घोटाले की मीडिया में खूब चर्चा हुई थी. सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले, सत्य तक पहुँचने की बात करने वाले, लोकतंत्र का खुद को प्रहरी मानने वाले पत्रकार खुद खबर बन गए थे. ऐसे में लोगों के मन में टीआरपी को लेकर सहज जिज्ञासा थी कि टीआरपी का इतिहास क्या हैयह कैसे तय होती हैटीआरपी से कैसे पत्रकारिता प्रभावित होती है? आदि.  वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मुकेश कुमार की हाल ही में प्रकाशित किताब टीआरपीमीडिया मंडी का महामंत्र’ में इन्हीं सवालों का सहजता से जवाब दिया गया है. समकालीन भारतीय समाज और मध्यवर्ग के जीवन में मीडिया की केंद्रीयता हैपर मीडिया के विभिन्न आयामोंविमर्श को लेकर शोधपरक पुस्तकों का सर्वथा अभाव है. यह किताब इस कमी को पूरा करती है.

गौरतलब है कि मुकेश कुमार ने टीआरपी को लेकर पीएचडी शोध कार्य किया है. इसी विषय पर वर्ष 2015 में ‘टीआरपीटीवी न्यूज और बाजार’ (वाणी प्रकाशन) नाम से एक किताब उन्होंने लिखी थी और इन्हीं सवालों को टटोला था. ‘टीआरपीमीडिया मंडी का महामंत्र’ (राजकमल प्रकाशन) टीआरपी घोटाले के संदर्भ में इन्हीं मुद्दों की नए सिरे से पड़ताल करती है.  जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में विज्ञापन (32 हजार करोड़) और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट के आपसी रिश्ते को विश्लेषित किया गया है. टीवी समाचार उद्योग में काम करने के अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं- न्यूज चैनलों में टीआरपी खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं मानी जाती है.” वे इस किताब में टीआरपी को बाजार का औजारहथियार कहते हैं. उनके विश्लेषण के केंद्र में मुख्यत: हिंदी के समाचार चैनल ही हैं.

सवाल है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रहीजनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़ेक्या सूचनाओंविमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत होउदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरु से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेहहाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ हैलेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं. मुकेश कुमार लिखते हैं: “वास्तव में बाजारटीआरपी और पत्रकारिता के बीच का असली खेल शुरु हुआ चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों के आने के बाद. सन 2000 के आसपास यह दौर शुरु हुआ. वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में लगे करीब 44 हजार मीटर के जरिए रेटिंग के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बार्क (Broadcast Audience Research Council) नामक संस्था  टीआरपी देने का काम कर रही है. इस सैंपल को आधार बना कर वह करीब 85 करोड़ दर्शकों (20 करोड़ टीवी-घर) तक पहुँचने, उनके पसंद-नापसंद को जानने का यह दावा करती है और इसी आधार पर चैनलों के बीच विज्ञापनों का बंटवारा होता है. हालांकि टीआरपी घोटाले से पहले और घोटाले के बाद, सैंपल साइज, बार्क की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं. घोटाले की जाँच के दौरान बार्क के पूर्व सीइओ, पार्थो दासगुप्ता की गिरफ्तारी हुई. पुलिस के मुताबिक दासगुप्ता ने माना था कि रिपब्लिक टीवी के संपादक-एंकर अर्णब गोस्वामी ने रेटिंग बढ़वाने के लिए उन्हें लाखों रुपए रिश्वत दिए. इस किताब में लेखक ने बार्क की रेटिंग प्रणाली पर वाजिब सवाल उठाया है.


यह नोट करना समीचीन है कि भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. टेलीविजन की वजह से खबरों की पहुँच गाँव-कस्बोंझुग्गी-झोपड़ियों तक हुई. पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआसाथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी. जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. लेखक इस किताब में टेलीविजन चैनलों की ताकत पर अपनी नजर नहीं डालते हैं. टेलीविजन दृश्य-श्रव्य माध्यम हैजो तस्वीरों-आवाजों के माध्यम से संदेश को दर्शकों तक पहुँचाती है. टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है. जाहिर है भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैंटेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है. लेकिन यदि मीडिया को पहले ही मंडी मान कर आप विश्लेषण करेंगे तो निष्कर्ष पूर्व-निर्धारित ही होंगे! रेमंड विलियम्स ने अपनी चर्चित किताब टेलीविजन में टेलीविजन को तकनीकी और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में देखा-परखा है. टेलीविजन चैनलों की जो स्थिति है, उसका जिस तरह से पिछले दो दशकों में विकास हुआ है क्या वह हमारे उपभोक्तावादी समाज पर भी एक टिप्पणी नहीं है? विश्लेषकों का मानना है कि  पूंजीवादी व्यवस्था के केंद्र में उपभोग की संस्कृति है. हमारे यहाँ दर्शकों की पसंद, इच्छा को लेकर अकादमिक शोध की पहल नहीं दिखती. ऐसे में इस निष्कर्ष तक पहुँचना कि ये महाझूठ है कि दर्शकों के पास विकल्प हैं मगर वे उनका इस्तेमाल नहीं करते’ सरलीकरण ही कहा जाएगा. मीडिया का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक विकास से अलहदा नहीं होता. हिंदुत्ववादी प्रवृत्तियों के उभार का सारा दोष हम मीडिया के मत्थे मढ़ कर छुट्टी नहीं पा सकते.

इस पर काफी चर्चा हो चुकी है कि हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा हैजिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होताबल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मुकेश कुमार ठीक ही इसे नोट करते हुए अपनी किताब में लिखते हैं: टीआरपी के चक्कर में ही बहस पर आधारित कार्यक्रमों में चीख-चिल्लाहटलड़ाई-झगड़ेगाली-गलौज यहाँ तक की मारपीट आवश्यक तत्त्व बन गएक्योंकि एक अनपढ़ देश में ऐसी चीजों की दर्शक संख्या अधिक होती है.”  यदि हम मान लें कि हिंदी के दर्शक अनपढ़ हैंपर अंग्रेजी के दर्शक तो पढ़े-लिखे माने जाते हैंफिर क्यों अंग्रेजी चैनलों के न्यूज रूम में भी आज वही चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ती है? क्यों अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार अपने चैनलों पर ऐसी बहस करते हैं जो सौहार्द की जगह वैमनस्य को बढ़ावा देता हैजिसका तथ्य और सत्य से कोई नाता नहीं रहताक्यों ट्विटर पर सांप्रदायिक टीका-टिप्पणी वे करते दिखते हैं? क्या अंग्रेजी के समाचार चैनल हिंदुत्व के मुद्दे पर हिंदी चैनलों की राह पर नहीं हैक्या उग्र राष्ट्रवाद का स्वरूप अंग्रेजी और हिंदी के चैनलों में कमोबेश एक जैसा नहीं हैआज क्या दोनों के बीच एक खंडित लोक (split public) का स्वरूप वही है जिसकी चर्चा पिछली सदी में 90 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में अरविंद राजगोपाल अपनी किताब में करते हैं. मुझे लगता है कि यह विभाजक रेखा धुंधली हुई हैसत्ता के करीब पहुँचने की ललक में अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार ज्यादा महीन ढंग से काम करते हैं.  एनडीटीवी ने पूर्व पत्रकार संदीप भूषण ने द इंडियन न्यूजरूम (2019) में इसकी पड़ताल की है.


सवाल यह भी है क्या सनसनी इस माध्यम की विशेषता तो नहीं? टीवी के पास महज एक परदा है जहाँ पर उसे सब कुछ दिखाना होता हैइस मामले में वह अखबारों या मोबाइल तकनीकी (ऑनलाइन मीडिया) से अलग है. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरिकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’ क्या  यह हमारे समाचार चैनलों के सच लिए नहीं है?  पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शोसीधे शब्दों मेंमनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षागहन विवेचन या विरेचन का. लेखक टीवी रेटिंग की नई प्रणाली की वकालत अपनी किताब में करते हैंपर क्या उससे समस्या का समाधान संभव है क्योंकि खुद लेखक ने लिखा है-कितनी भी निर्दोष रेटिंग प्रणाली क्यों न स्थापित कर दी जाए, कंटेंट उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता.” जाहिर है ऐसे में महज टीआरपी के कोण से हम टेलीविजन की संस्कृति का विश्लेषण नहीं कर सकते.

भारत में कारोबारी मीडिया और सत्ता के आपसी सांठगांठ पर कम बातचीत होती है, इस किताब में भी इस मुद्दे को महज छुआ गया है जिस पर विस्तृत शोध की अपेक्षा है. कुछ अपवादों को छोड़ कर आजाद भारत में सत्ता के इशारे पर मीडिया हमेशा काम करता रहा है. आपातकाल में अधिकांश मीडिया घराने ने घुटने टेक दिए थे. मुकेश कुमार ने एक जगह लिखा है कि पहला हमला बेशक बाजार का था जो टीआरपी के जरिए हुआमगर दूसरा आक्रमण राजनीति की ओर से हुआ है और इसकी शुरुआत छह साल पहले हुई है जो कि अभी जारी है.’ पर लेखक इसके विस्तार में नहीं जाते कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मीडिया जगत में किस तरह से परिवर्तन आया है. एक रपट की तरह वे लिपिबद्ध करके छुटकारा पा लेते हैं, जबकि उनके पास पत्रकारिता का लंबा अनुभव है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे वे परख सकते थे. इसी लेख में वे नोट करते हैं कि हमारा मीडिया सवर्णवादी हैबहुसंख्यवादी है.’ क्या पिछले छह साल में ऐसा हुआ हैक्या इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं जो भारत में टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता रहे हैंलेखकजिन्हें कई चैनलों को शुरु करने का श्रेय हैंयदि अपने अनुभव के आधार पर इस संदर्भ में कुछ लिखते तो ज्यादा तथ्यपरक और प्रभावी होता- इथनोग्राफिक स्टडी की तरह. अंत मेंलेखक शोधार्थी रहे हैंऐसे में इस किताब में एक भी संदर्भनोटफुटनोट का उल्लेख नहीं होना खलता है. 

(समालोचन के लिए, आजकल पत्रिका, अगस्त, पेज 55-56)

 

Thursday, October 15, 2020

टीआरपी घोटाले से टीवी चैनलों पर संकट

 https://youtu.be/kKqBA10ldWI

मुंबई पुलिस और आर्थिक अपराध शाखा (EOW) टीवी चैनलों की TRP में हुए कथित घोटालों की जाँच कर रहे हैं। इस मामले में अभी तक मुंबई पुलिस Republic TV के CEO और COO से पूछताछ कर चुकी है। Republic TV के प्रधान संपादक Arnab Goswami को सोशल मीडिया पर ट्रॉल किया जा रहा है। मुंबई पुलिस ने अब तक इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया है। पुलिस के अनुसार रिपब्लिक टीवी और दो अन्य चैनलों ने अपनी टीआरपी बेहतर करने के लिए हेरफेर की। TRP क्या है और इसमें घोटाला कर के किसी टीवी चैनल को क्या फायदा हो सकता है? इन्हीं सवालों के जवाब देने के लिए आज हमने बात की मीडिया विशेषज्ञ अरविंद दास से। (साभार, लोकमत हिंदी)

Wednesday, September 16, 2020

हाशिए पर सरोकार: टीवी वायरस

करीब अठारह साल पहले जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, तब कहा जा रहा था कि टेलीविजन मीडिया अभी शैशव अवस्था में है. यह संक्रमण काल है और कुछ वर्षों में ठीक हो जाएगा. लेकिन पिछले कई सालों की प्रवृत्ति पर गौर करें तो यही लगता है कि यह संक्रमण फैलता ही गया. पहले मुख्य रूप से हिंदी के समाचार चैनल इससे ग्रसित थे, अब अंग्रेजी के चैनलों में भी वायरस का प्रकोप बढ़ गया दिखता है. अंग्रेजी और हिंदी के चैनल एक खंडित लोकका निर्माण करते रहे हैं. उनके दर्शक वर्ग भी अलग रहे हैं. पर अब यह विभाजक रेखा तेजी से मिटती हुई दिख रही है.

लेकिन अखबारों की दुनिया में अब भी कई बार ऐसा कुछ दिख जाता है, जिससे सीमित  पैमाने पर ही सही कुछ बचे होने की उम्मीद हो जाती है.

पिछले दिनों एक अखबार ने अपने मुख्य पृष्ठ पर एक तस्वीर प्रकाशित किया और शीर्षक दिया- टीवायरस. यह तस्वीर टेलीविजन समाचार चैनलों के हाल के उस रवैये पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जिस पर काफी सवाल उठे है. इसके अलावा भी सरोकार के बचे होने के उदाहरण देखे गए और पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से टीवी मीडिया के इस चेहरे,लोगों की निजता में जबरन घुसने की कोशिश पर चिंता जाहिर की गई. 

दरअसल, यह ‘वायरसजब से न्यूज चैनलों ने चौबीस घंटे का प्रसारण शुरु किया तब से मौजूद है और अभी तक इसका कोई इलाजउपलब्ध नहीं है. हालांकि दर्शकों में अब तक इसका सामना करने की सलाहियत विकसित हो जानी चाहिए थी (हर्ड इम्यूनिटी’)! गौरतलब है कि भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप पिछले दो दशक में निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ है, पर संवाद एकतरफा ही रहे. कह सकते हैं कि सोशल मीडिया या अखबार से इतर यह इस माध्यम की विशेषता है.  

असल में टेलीविजन मीडिया उद्योग में दर्शकों की उपस्थिति, उनकी केंद्रीय भूमिका को लेकर हमारे यहाँ कोई खास शोध नहीं है. कुछ छिटपुट शोध पत्र मौजूद हैं जो दर्शकों को केंद्र में रख टेलीविजन को परखने की कोशिश करता है. पर ये चौबीस घंटे समाचार चैनलों को अपनी जद में नहीं लेता, दूरदर्शन, सीरियलों के इर्द-गिर्द ही है. मीडिया शोध में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि दर्शक किसी भी संदेश को अपने तयी देखता-परखता है, वह महज एक उपभोक्ता नहीं है. उनके पास संदेश और संवाद को नकारने की भी सहूलियत रहती है.  

मीडिया आलोचक रेमंड विलियम्स ने टेलीविजन माध्यम को तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है.  चूँकि यह एक दृश्य माध्यम है इस लिहाज से टीवी पर प्रसारित होने वाली खबरों से दर्शकों के बीच सहभागिता, घटनास्थल पर होने का बोध होता है.  इन खबरों के साथ विज्ञापन भी लिपटा हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन कार्यक्रमों के लागत और चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है. 

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं.

भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों तक हुई, एक नेटवर्क विकसित हुआ. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. 21वीं सदी का पहला दशक भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के विस्तार का दशक भले रहा है. पर इसके साथ ही इसी दशक में चैनलों की वैधता और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे थे. जैसा कि आज तक न्यूज चैनल के न्यूज डायरेक्टर क़मर वहीद नक़वी ने वर्ष 2007 में लिखा था लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज़ चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं.' सवाल दर्शकों का भी है, जिस पर हम आम तौर पर चर्चा नहीं करते.

हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. 

ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरीकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’  यह शायद हमारे समाचार चैनलों के लिए भी सच है.  पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षा, गहन विवेचन या विरेचन का.

(जनसत्ता, 16.09.2020)

Friday, April 10, 2020

टेलीविजन की वापसी


कोरोना वायरस की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में सिमटे हैं. समाचार पत्रों के वितरण-प्रकाशन, पठन-पाठन पर इसका प्रभाव पड़ा है. ऐसे में फिर से टेलीविजन घरों के केंद्र में आ गया. रामायण, महाभारत जैसे सिरीयलों के साथ-साथ एक बार फिर से समाचार चैनल प्रासंगिक हो उठे है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कोरोना संकट के बीच राष्ट्र के नाम संदेश के लिए टेलीविजन का बखूबी सहारा लिया.

पिछले दो दशकों में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप सेटेलाइट, निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ. जनसंचार, विचार-विमर्श, छवियों के निर्माण और संसदीय चुनावों के दौरान राजनीतिक लामबंदी में टेलीविजन समाचार चैनल एक प्रमुख माध्यम बनके उभरे हैं. चर्चित आलोचक रेमंड विलियम्स ने टेलीविजननाम से लिखी अपनी किताब में टेलीविजन माध्यम को तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है. विजुअल माध्यम होने से टीवी के दर्शकों के बीच सहभागिता का सहज बोध होता है. हालांकि खबरों, विभिन्न कार्यक्रमों के साथ विज्ञापन भी लिपटा हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन कार्यक्रमों के लागत और चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है.

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. समकालीन मीडिया की व्याख्या में इन रिश्तों की पड़ताल भी बेहद जरूरी है. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य दर्शकों की संख्या को बढ़ाना, टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. 21वीं सदी के दो दशक भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के विस्तार के रहे, पर इसके साथ ही इसी दशक में चैनलों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे.

प्रसंगवश, 2008-09 में दुनिया भर में आए आर्थिक मंदी का असर भारतीय टेलीविजन उद्योग की सेहत पर पड़ा और चैनलों का जोर दूर-दराज की सुध लेने, खोजपरक कहानियों को ढूंढ़ने से ज्यादा टीवी स्टूडियो में होने वाले विचार-विमर्श और बहस की ओर तेजी से बढ़ा है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी भाव हो.

टेलीविजन न्यूज का दूसरा दशक पूरी तरह इन्हीं विमर्शों को समर्पित रहा. इन वर्षों में समाचार चैनलों में संवादताओं की भूमिका कम हुई, ‘कास्ट कटिंगपर जोर रहा. कोरोना संकट के बाद फिर से आर्थिक मंदी का असर समाचार चैनलों की सेहत पर पड़ेगा. ऐसे में सवाल है कि इस बीच जो दर्शकों में टीवी उद्योग ने अपनी पैठ बनाई है, क्या उसे बरकरार रख पाएगी. क्या खोई हुई विश्वसनीयता वह अर्जित कर पाएगी?

(प्रभात खबर, 10 अप्रैल 2020)