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Saturday, October 19, 2019

बहस-मुबाहिस के पक्ष में अभिजीत बनर्जी


इस बार अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार अमेरिकी नागरिक अभिजीत बनर्जी, एस्थर डुफलो और माइकल क्रेमर को गरीबी उन्मूलन के लिए किए गए उनके शोध के लिए दिया गया है. प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भारत में हुई और वह प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन के बाद एमए करने जेएनयू, दिल्ली आ गए थे. चूँकि बनर्जी की जड़ें भारत में है, इस वजह से उनकी उपलब्धियों पर गर्व स्वाभाविक है और मीडिया में जेएनयू की खास तौर पर चर्चा है.

वर्ष 2016 से जेएनयू की चर्चा में नकारात्मक तत्वों का बोलबाला रहा है. इसमें देश की वर्तमान राजनीति और सोशल मीडिया का भी योगदान है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1969 में जब जेएनयू की स्थापना हुई, देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दौर था. एक तरह से जेएनयू की जन्मकुंडली में ही राजनीतिक सरोकारों और हाशिए पर रहने वाले समाज के लोगों के प्रति संवेदना का भाव रहा है.

प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्सके बदले जेएनयू में नामांकन उन्होंने क्यों लिया इसे याद करते हुए अभिजीत बनर्जी ने खुद लिखा है कि जेएनयू की फिजा अलग थी. जेएनयू की ऊबड़-खाबड़, बेढ़ब खूबसूरती कुछ अलग थी जबकि डी-स्कूल (दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स) किसी भी दूसरे भारतीय संस्थान की तरह ही था. खादी कुर्ते में, पत्थरों पर बैठे बहस करते छात्रों में मैंने खुद को देखा था.

एक गर्बीली गरीबी और बहस-मुबाहिसा की परंपरा जेएनयू में आज भी कायम है. वामपंथी रुझान के बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक जगह है.
अभिजीत बनर्जी अपनी किताब के साथ

पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से बहस-मुबाहिसा के लिए जगह सिकुड़ी है. यह बात ना सिर्फ राजनीति बल्कि मीडिया के लिए भी सच है. प्रसंगवश, एस्थर डुफलो के साथ लिखी हाल ही में प्रकाशित उनकी किताब- गुड इकानामिक्स फॉर हार्ड टाइम्समें उन्होंने जिक्र किया है कि किस तरह लोकतंत्र के ऊपर सोशल मीडिया का नाकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उन्होंने लिखा है: इंटरनेट का विस्तार और सोशल मीडिया के विस्फोट से पक्षपातपूर्ण रवैए में बढ़ोतरी हुई है.इस संदर्भ में वे फेक न्यूज और सोशल मीडिया में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को भी रेखांकित करते हैं जिससे विचार-विमर्श प्रभावित हुआ है.

वर्ष 2016 में जब जेएनयू में तथाकथित देश विरोधी नारे लगाने की बात को लेकर सरकार ने छात्र नेताओं को जेल भेजा तब उन्होंने जोर देकर कहा था देश को जेएनयू जैसे सोचने-विचारने वाली जगह की ज़रूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर दूर रहना चाहिए. प्रसंगवश, वर्ष 1983 में कुलपति प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव के कार्यकाल के दौरान जब जेएनयू में छात्र आंदोलन हुआ था तब सैकड़ों छात्रों को तिहाड़ जेल जाना पड़ा. अभिजीत बनर्जी भी उनमें शामिल थे. हालांकि बाद में सरकार ने सारे आरोप वापस ले लिए थे.

(राजस्थान पत्रिका, 19 अक्टूबर 2019)

Tuesday, August 27, 2019

खबरनवीस का सम्मान


इस साल एशिया के प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पानेवालों में म्यांमार के पत्रकार स्वे विन और भारत के चर्चित टेलीविजन एंकर और पत्रकार रवीश कुमार शामिल हैं.
रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने सच्चाई को बयान करने की ताकत और सामाजिक सरोकार से लैसपत्रकारिता के लिए स्वे विन को सम्मानित करने की घोषणा की, वहीं रवीश कुमार की पत्रकारिता को सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाजबताया है. निस्संदेह मौजूदा दौर में रवीश भारतीय पत्रकारिता का एक विश्वसनीय चेहरा हैं. हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर है, वहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गया लगता है.
हालांकि, जब सुरेंद्र प्रताप सिंह ने 90 के दशक में हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को एक पेशेवर अंदाज दिया, तब टीवी समाचार के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ा था, पर बाद में बाजार, सत्ता और टीआरपी के दबाव में टेलीविजन ने खबरों की नयी परिभाषा गढ़ी, जहां तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर जोर नहीं रहा. आज टेलीविजन पत्रकारिता के ऊपर विश्वसनीयता का संकट है.
टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. भारतीय टेलीविजन पत्रकारों में रवीश जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. वर्तमान में टीवी पत्रकारिता में स्टूडियो में होनेवाले बहस-मुबाहिसा और इंटरव्यू ज्यादा प्रमुख हो गया है. सत्ता पर काबिज सवालों से हमेशा बचते हैं और जवाब देने में आनाकानी करते हैं.
टेलीविजन के एक अन्य चर्चित पत्रकार करण थापर बीबीसी के महानिदेशक रह चुके जॉन बर्ट के हवाले से कहते हैं कि समसामयिक इंटरव्यू के दौरान चार तरह के उत्तर होते हैं- हां, , नहीं जानते और नहीं कह सकते. एक इंटरव्यूअर को तीसरे और चौथे विकल्प को हटा कर अपने गेस्ट को हां या न की तरफ मोड़ना होता है. खुद गेस्ट हां, या ना की दुविधा में रहते हैं और यह काम एक इंटरव्यूअर का है कि किस तरह वह गेस्ट के जवाब को लेकर सवाल करे.
वर्तमान दौर में टेलीविजन पत्रकारिता की सत्ता के साथ गलबहियां से खुद रवीश कुमार क्षुब्ध रहते हैं. विभिन्न मंचों पर उन्होंने इस बात को बार-बार जाहिर भी किया है. यहां तक कि पिछले दिनों उन्होंने लोगों से टेलीविजन न्यूज नहीं देखने की अपील तक कर डाली थी.
इक्कीसवीं सदी में टीवी भारतीय जनमानस और संस्कृति का एक अहम हिस्सा बनकर उभरा है. पिछले दो दशकों में भारतीय समाज और लोक मानस पर खबरिया चैनलों का प्रभाव किस रूप में पड़ा इसकी ठीक-ठीक विवेचना संभव नहीं. लेकिन, इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो कि कमियों के बावजूद भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के विस्तार में इन समाचार चैनलों की महती भूमिका है.
(प्रभात खबर, 27 अगस्त 2019)