Saturday, February 01, 2020

शाहीन बाग़ की औरतें


मशहूर शायर निदा फाजली का एक शेर है-हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना. ठीक इसी तरह एक शहर में कई शहर बसते हैं और कई बार शहर हमारे सामने ऐसी रूप में उपस्थित होता है, जिसे देख कर हम खुद चकित हो उठते हैं. दिल्ली में भले ही मैं वर्षों से रह रहा हूँ पर निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि मैं शहर को ठीक से जानता हूँ.

पिछले दिनों दक्षिण दिल्ली में स्थित शाहीन बाग इलाका गया तो कुछ ऐसा ही एहसास हुआ. शाहीन बाग में सैकड़ों महिलाएं नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध करने के लिए पिछले डेढ़ महीने से प्रदर्शन कर रही है. उल्लेखनीय है कि नागरिकता संशोधन कानून के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के नेता बार बार यह कह रहे हैं कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता नहीं जाएगी, वहीं प्रदर्शनकारियों का कहना है कि धर्म आधारित नागरिकता का यह प्रावधान विभेदकारी और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.

देश में स्त्रियों के संघर्ष का सौ साल से पुराना इतिहास रहा है. कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में स्त्रियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है और नेतृत्व प्रदान किया है. इस विरोध प्रदर्शन को इसी कड़ी में देखा जा सकता है. हालांकि यह प्रदर्शन कई मायनों में देश में पहले हुए विरोध प्रदर्शनों से अलग है. हाल के दशकों में ऐसा प्रदर्शन देश में नहीं देखा गया है जो आइडिया ऑफ इंडियाकी भावना को शब्द और कर्म के जरिए मूर्त करता हो. छिटपुट हुए हिंसा को छोड़ दिया जाए तो सीएए के खिलाफ ज्यादातर प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे हैं. असल में स्वत: स्फूर्त यह प्रदर्शन गाँधी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा से प्रेरित है. इसके पीछे कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं है. इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन से प्रेरित हो कर दिल्ली में अन्य जगहों और देश के अन्य शहरों-कोलकाता, मुंबई, बैंग्लौर, पटना, गया आदि में भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. गाँधी, नेहरू, आंबेडकर की तस्वीरें बैनरों और पोस्टरों में हर कहीं नजर आती है. इंकलाबी गीत और नारे देशप्रेम से लबरेज हैं. जहाँ राजनीति की भाषा में एक कटुता है वहीं पोस्टरों और गीतों की भाषा एक नई रचनात्मकता लिए हुए हैं जिसे सोशल और पापुलर मीडिया में नोटिस किया जा सकता है.

हालांकि दिल्ली में होने वाले चुनाव के मद्देनजर शाहीन बाग को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों में टीका-टिप्पणी शुरु हो गई है. पर हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सड़कों पर हो रहे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में युवाओं की भागेदारी की प्रशंसा की. साथ ही उन्होंने कहा कि खास तौर पर जिस तरह से संविधान पर जोर और उसके प्रति आस्था व्यक्त की जा रही है वह सुकून देने वाला है.


यह प्रदर्शन लोकतंत्र और नागरिक समाज की मजबूती को दिखाता है. उस देर रात शाहीन बाग में अद्भुत नजारा था. मंच से संविधान की प्रस्तावना पढ़ने का आह्वान किया जा रहा था और सैकड़ों लोग प्रस्तावना में लिखे स्वतंत्रता, समता, बंधुता को दुहरा रहे थे. मुस्लिम बहुल इलाके में हो रहे इस प्रदर्शन में विभिन्न धर्मों के लोग मौजूद थे. कॉलेज जाने वाले युवाओं की उपस्थिति खास तौर पर रेखांकित करने वाली थी. पंडाल और गलियों में राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहे थे. भारतीय संविधान के लागू होने के 70 वर्ष पूरे होने पर संवैधानिक मूल्यों में आस्था दिखाते हुए नागरिकता संशोधन कानून के विरोध का यह तरीका मानीखेज है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षक, एक मित्र ने टिप्पणी की- मुस्लिम महिलाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन से उनके निजी जीवन में भी बदलाव आएगा और राजनीतिक चेतना से संपन्न अगली पीढ़ी बदलाव का मशाल थामेगी.

शाहीन बाग के प्रदर्शन को लेकर मीडिया, खास कर टेलीविजन मीडिया में दो फांक है. पिछले वर्षों में टेलीविजन चैनलों का ध्यान ऐसे मुद्दों पर स्टूडियो में बहस करवाने पर ज्यादा रहता है जिसमें नाटकीयता और सनसनी का भाव हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि मनोरंजन पैदा करना होता है. एक आक्रमता दिखाई देती है, जो सार्थक बहस-मुबाहिसा के अनुकूल नहीं कही जा सकती. सच तो यह है कि टेलीविजन स्टूडियो से ज्यादा नागरिकता और संविधान के प्रावधानों पर बहस इन्हीं प्रदर्शन स्थलों, सड़कों पर हो रही है.

असल में, कुछेक अपवाद को छोड़ कर मीडिया में वर्षों से स्टिरियोटाइप छवि मुसलमानों की पहचान को लेकर परोसी जाती रही है, प्रोपेगंडा फैलाया जाता है. शाहीन बाग जैसी जगह उसके विपरीत एक अलग विमर्श को जन्म देता है जो लोकतांत्रिक मूल्यों और भारतीयता के पक्ष में है.

(जानकी पुल, 1 फरवरी 2020)

No comments: