Sunday, May 17, 2020

सूरज सा चमकता सत्यजीत रे का सिनेमा

बांग्ला सिनेमा के चार प्रमुख स्तंभों सत्यजीत रे (1921-1992), मृणाल सेन, तपन सिन्हा और ऋत्विक घटक की फिल्मों की तुलना होती रही है. पर, निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि सत्यजीत रे पहले ऐसे फिल्म निर्देशक थे जिन्होंने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पटल पर स्थापित किया. वर्ष 1992 में विश्व सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनकी फिल्मों के बारे में अकीरा कुरोसावा ने कहा था- 'सत्यजीत रे की फिल्मों को जिसने नहीं देखा, मानो वह दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहा है'.
अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) के साथ उन्होंने विश्व सिनेमा को एक नया मुहावरा और शैली दी. इस फिल्म में यथार्थ में लिपटी एक काव्यात्मक मानवीय दृष्टि और गहन संवेदना को सबने सराहा था. सत्यजीत रे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिनकी अभिरूचि और गति पेंटिंग, संगीत, साहित्य आदि में थी. पाथेर पांचाली के साथ अपराजितो और अपूर संसार फिल्मों ने इसे बखूबी साबित किया. हालांकि पाथेर पांचाली जैसी सराहना और सफलता इन दो फिल्मों को नहीं मिली, लेकिन फिल्म समारोहों में इसे हाथों-हाथ लिया गया. आजादी के बाद करवट बदलते देश, परंपरा और आधुनिकता के बीच की कश्मकश इन फिल्मों में मिलती है. अपू त्रयी का पार्श्व संगीत महान सितार वादक रविशंकर ने दिया था.
समय के साथ सत्यजीत रे की फिल्मों के आस्वादन में बदलाव आता रहा है. समांतर सिनेमा के दौर में एफटीआईआई से निकले युवा निर्देशकों ने भी उनके फिल्म निर्माण और राजनीति की खूब आलोचना की थी. वे ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों से ज्यादा प्रभावित थे. हालांकि सत्यजीत रे ने भी उन्हें नहीं बख्शा था.
पचास-साठ साल के बाद आज भी ‘जलसाघर’ या ‘चारुलता’ जैसी फिल्में दर्शकों और सिने-समीक्षकों को एक साथ उद्वेलित करती है. उनकी अधिकांश फिल्में चर्चित साहित्यक कृति पर आधारित रही है, लेकिन जब हम इसे परदे पर देखते हैं तब एक नया दृश्य-श्रव्य अनुभव से भर उठते हैं. हिंदी में बनी उनकी दो फिल्मों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ का जिक्र प्रासांगिक है. दोनों ही प्रेमचंद की प्रसिद्ध रचना है पर रे के हाथों ये कहानी अलग अर्थ और व्यंजना लेकर परदे पर आई. साहित्य और सिनेमाई रिश्ते को लेकर बहस होती रही है, पर जैसा कि गालिब ने कहा है- क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब/आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की.
पिछले हफ्ते भारत सरकार के ‘फिलम्स डिवीजन’ ने सत्यजीत रे की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और उन पर बनी फिल्मों के ऑनलाइन प्रसारण कर विधिवत सत्यजीत रे जन्मशती वर्ष की शुरुआत की. रे ने फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल को एक इंटरव्यू में कहा था (सत्यजीत रे नाम से इस डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन बेनेगल ने किया था) कि उन्होंने विषयगत दुहराव अपने फिल्मी कैरियर में नहीं किया. ‘घरे बायरे (1983)’ फिल्म के सेट पर काम में निमग्न रे को दिखाती यह डॉक्यूमेट्री उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को दर्शकों के सामने लेकर आती है. साथ ही हम सत्यजीत राय की रचना प्रक्रिया और संघर्ष से भी रू-ब-रू होते हैं.
बच्चों के लिए उन्होंने पचास साल पहले ‘गोपी गाइन बाघा बाइन’ फिल्म निर्देशित किया था जो फैंटेसी और संगीत के लिए आज भी याद की जाती है. यह कहानी बच्चों की पत्रिका संदेश में छपी थी, जिसे उनके दादा ने लिखा था. वे इस पत्रिका के संपादक भी थे. बाद में सत्यजीत रे ने इसे पुर्नप्रकाशित और संपादित किया. वे सिनेमा के गंभीर अध्येता भी थे. सिनेमा पर लिखे उनके लेखों का संग्रह-‘अवर फिल्मस, देयर फिल्मस’ नाम से चर्चित है.

(प्रभात खबर, 17.05.2020)

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