Sunday, August 02, 2020

लोक कला की संघर्ष चेतना: मिथिला पेंटिंग

मिथिला या मधुबनी पेंटिंग एक बार फिर से चर्चा में है. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर मधुबनी शैली में बने मास्क की तस्वीरें खूब साझा की गईं, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ‘मन की बात’ प्रसारण में नोटिस लिया. उन्होंने कहा ‘ये मधुबनी मास्क एक तरह से अपनी परंपरा का प्रचार तो करते ही हैं, लोगों को स्वास्थ्य के साथ रोजगार भी दे रहे हैं.’ कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह मिथिला पेंटिंग पुनर्नवा हुई है, वह इस पेंटिंग की जीवंतता का प्रमाण है.

सच तो यह है कि जब वर्ष 1934 में ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा, वह इस क्षेत्र में आए भीषण भूकंप की त्रासदी के बाद ही संभव हुआ. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नज़र इस लोक कला पर पड़ी थी. हालांकि उन्होंने इस कला के लिए ‘फोक (लोक)’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन साठ के दशक में दिखाया गया है, पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है. पहले इसे ‘बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था.

बाद में अखिल भारतीय हस्त शिल्प बोर्ड, दिल्ली के चित्रकार भास्कर कुलकर्णी ने इस चित्रकला को परखा और प्रोत्साहित किया. उन्होंने साठ के दशक में मधुबनी जाकर निकट के गाँव रांटी, जितवारपुर आदि के पाँच स्त्री कलाकारों को पेंटिग के लिए चुना था. पद्म श्री से सम्मानित रांटी की महासुंदरी देवी ने वर्ष 2012 में मुझे बताया था कि “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” महासुंदरी देवी ने भास्कर कुलकर्णी के लिए आठ चित्र और बनाए थे. उन्होंने कहा था कि शुरुआत में घर वाले इन चित्रों के बदले मिलने वाले पैसे को अच्छी निगाह से नहीं देखते थे पर धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई. सर्वविदित है कि इस कला में शुरुआती दिनों से परंपरा के रूप में ब्राह्मण और कायस्थ परिवार की स्त्रियों की सहभागिता रही. बाद में इस पेंटिंग में दलित महिलाओं का भी योगदान रहा और कचनी, भरनी शैली से इतर गोदना शैली की उपस्थिति दर्ज हुई.

वर्ष 1965-66 के दौरान बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. भास्कर कुलकर्णी ने मिथिला क्षेत्र की महिलाओं को कागज पर चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि आमदनी के स्रोत के रूप में यह कला विकसित हो सके. फिर जगदंबा देवी, गंगा देवी, सीता देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी और गोदावरी दत्त जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से देश और दुनिया का परिचय हुआ. कालांतर में पद्मश्री सहित इन्हें देश के अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया. मिथिला चित्रकला की लोक चेतना संघर्ष की चेतना है और यही वजह है कि जहाँ देश की अन्य लोक और जनजातीय कलाएँ सिमटती गई, मिथिला पेंटिंग अपनी रंगों की विशिष्टता और विषय-वस्तु में अभिनव प्रयोग से देश-दुनिया के कलाप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रही है.


(प्रभात खबर, 2 अगस्त 2020)

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