Sunday, January 10, 2021

जीवन में सही सुर की तलाश


नए साल की शुरुआत ‘तेरहवीं’ से करना
अटपटा लगता है, पर मौत का कोई कैलेंडर नहीं होता. सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्म ‘रामप्रसाद की तेरहवीं’ के केंद्र में मौत का सवाल है, पर साथ ही यह सवाल भी लिपटा हुआ है कि जीवन की तरह मौत भी क्या उत्सव है?

फिल्म के शुरुआत में मद्धिम रोशनी में घर के कोने वीरान पड़े हैं. परिवार के मुखिया संगीतकार रामप्रसाद (नसीरुद्दीन शाह) को जीवन में सही सुर की तलाश है. रामप्रसाद की मौत के बाद शोक मनाने आए उनके छह बच्चों, नाते-रिश्तेदारों के आपसी व्यवहार, संवादों से घर में जीवन का एक नया रूप दिखाई देता है. ऐसे में मौत का शोक, क्रिया-कर्म की बातें पारिवारिक सवालों-उलझनों में पीछे छूट जाती है. यहां ‘मृत्यु का अमर अपार्थिव पूजन’ नहीं है. सिर्फ रामप्रसाद की पत्नी (सुप्रिया पाठक) के चेहरे पर वेदना और पीड़ा की झलक है. ऐसे में वह व्यथित होकर पूछती है कि शोक का क्या अर्थ है? तस्वीर पर फूल-माला अर्पित कर, क्या महज तेरह दिनों में क्रिया-कर्मो के सहारे दिवंगत की स्मृतियों से पिंड छुड़ाया जा सकता है?

चर्चित अदाकार सीमा पाहवा के निर्देशन में बनी इस ‘फैमिली ड्रामा’ में हास्य-व्यंग्य के तत्वों का कुशलता से समावेश किया गया है, जिससे फिल्म कहीं बोझिल नहीं होती. श्मशान घाट में अंतिम क्रिया के लिए लकड़ी की खरीददारी में भी यहां मोल-तोल है! मृत्यु भोज के लिए बनी कचौड़ी के लिए भी सवाल-जवाब है! जैसा कि हर हास्य-व्यंग्य की कलाकृति के साथ होता है, पहले हम हंसते हैं पर अंतत: यथार्थ की चुभन हमें रुलाती है. रामप्रसाद छह बच्चों के पिता हैं, उनके निधन के बाद कोई भी उनकी विधवा को संग-साथ रखने को राजी नहीं होता. सबके पास अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का बहाना है. माता-पिता का अपने बच्चों के साथ पालक-पोषक का रिश्ता होता है, पर उन दोनों के बीच के आत्मीय रिश्ते बच्चों की आँखों से अक्सर ओझल ही रहते हैं. दोनों के बीच करीब पचपन साल का संग-साथ रहा है. इस फिल्म में पिता के जाने के बाद बच्चों से ज्यादा माँ की स्मृतियों में ही वे जिंदा हैं. मौत के बाद घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते को यह फिल्म यथार्थपरक ढंग से संवेदनशीलता के साथ सामने लाती है. साथ ही मध्यवर्गीय परिवार की नैतिकता, पाखंड और खोखलापन भी उजागर होता है. हालांकि फिल्म में अच्छा-बुरा, हीरो-विलेन आदि का द्वंद नहीं है.

अपनी पहली फिल्म में सीमा पाहवा का लेखन-निर्देशन आश्वस्त करता है. इस फिल्म में विभिन्न चरित्रों को मनोज पाहवा, विनय पाठक, निनाद कामत, परमब्रत चटर्जी, विनीत कुमार, बिजेंद्र काला, विक्रांत मेसी, कोंकणा सेन शर्मा आदि ने बखूबी निभाया है. किरदारों के लिए स्क्रीन टाइम भले ही कम हो, सबने अपनी अलग पहचान छोड़ी है. फिल्म में गीत-संगीत का समावेश खलता है. फिल्म को आगे ले जाने या मनोरंजन में इसकी कोई भूमिका नहीं है.

नए साल में कोरोना का भय अभी हावी है. दिल्ली के जिस मल्टीप्लेक्स में हम सिनेमा देखने गए थे, वहाँ बमुश्किल पंद्रह लोग मौजूद थे. ऐसे में क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इस फिल्म को रिलीज करना मुफीद नहीं होता जहाँ इसकी पहुँच एक बड़े दर्शक वर्ग तक सहज ही होती?

(प्रभात खबर, 10 जनवरी 2021)

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