Sunday, July 04, 2021

गोपालकृष्णन का सिनेमा संसार: अस्सी के अडूर

भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. हिंदी से इतर समकालीन फिल्मों, उनके निर्माता-निर्देशकों की मुख्यधारा के मीडिया में हालांकि बेहद कम उल्लेख होता है. सच तो यह है कि बॉलीवुड इतना हावी है कि अन्य भाषाओं में बनने वाली फिल्मों को हम क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं, जबकि सिनेमा के विकास में बांग्ला और मराठी समाज की ऐतिहासिक भूमिका रही है. इंटरनेट और डिजिटल तकनीकी के विस्तार के बाद, हाल के दशक में, क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर दर्शक देख रहे हैं, सराह रहे हैं. ये फिल्में हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी.

यहाँ हम बात बॉलीवुड की दुनिया से दूर एक ऐसे साधक के बारे में कर रहे हैं जो पिछले पचास वर्षों से सिनेमा निर्माण और निर्देशन में सक्रिय हैं, जिनकी पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में है. मलयालम फिल्मों के विख्यात निर्देशक अडूर गोपलकृष्णन तीन जुलाई को अस्सी वर्ष पूरे कर रहे हैं. सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन सत्यजीत रे के बाद देश के प्रमुख ‘ओतर’ यानी फिल्म निर्देशक माने जाते रहे हैं. खुद अडूर सत्यजीत रे को अपना गुरु कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनकी फिल्मों में मानवतावादी दृष्टि की समीक्षक चर्चा करते हैं. वे इस बात को स्वीकारते हैं कि वे सौभाग्यशाली थे जो उन्हें सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों का संग-साथ मिला. इन तीनों निर्देशकों ने बांग्ला में सिनेमा की नई धारा को पुष्ट किया था.
अडूर गोपालकृष्णन की जड़ें केरल में स्थित एक छोटे शहर अडूर में हैं, जो उनके नाम में जुड़ा है. युवावस्था में वे थिएटर से गहरे जुड़े थे. वर्षों पहले एक मुलाकात में उन्होंने मुझे बताया था कि ‘कालेज के दिनों में मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने 1962 में पुणे फिल्म संस्थान में प्रवेश लिया, तो वहां देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है, जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.’ फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में ऋत्विक घटक उनके शिक्षक रहे थे. वहाँ से प्रशिक्षण के सात साल बाद उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'स्वयंवरम (1972)' बनाई जिसे चार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के माध्यम से लोगों को एक युवा निर्देशक का अलहदा स्वर सुनाई पड़ा. यह स्वर मलायलम सिनेमा में समांतर सिनेमा को बुलंद करने वाला साबित हुआ जिसकी अनुगूंज मलयालम फिल्म के युवा निर्माता-निर्देशकों के यहाँ आज भी सुनाई पड़ती है.
पिछले दिनों बातचीत के दौरान अडूर ने बताया कि “फिल्म, असल में, मेरे लिए दर्शकों के साथ एक अनुभव साझा करना है. और ये अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए.” अपने इस अनूठे अनुभव को दर्शकों से बांटने के क्रम में वे अपने पूरे फिल्मी करियर के दौरान कमर्शियल फिल्मों के दायरे से बाहर रहे. ‘स्वंयवरम’ फिल्म में कोई नाच-गाना नहीं था. सिनेमा निर्माण के व्यावसायिक दायरे से बाहर रहने के कारण उन्होंने पूरे करियर में महज बारह फिल्में ही निर्देशित किया है. गौरतलब है कि अडूर विषय-वस्तु के लिहाज से किसी फिल्म में खुद को दोहराया नहीं. उनकी फिल्मी यात्रा को देखने पर यह स्पष्ट है. जहाँ ‘एलिप्पथाएम’ में आजादी के बाद के सामंती समाज और घुटन का चित्रण है वहीं ‘मुखामुखम’ में एक मार्क्सवादी राजनीतिक कार्यकर्ता फिल्म के केंद्र में है. ‘अनंतरम’ में एक फिल्मकार की रचना प्रक्रिया से हम रू-ब-रू होते हैं, जहां यथार्थ और कल्पना में सहज आवाजाही है. यहाँ रचनाकार के सामने शाश्वत सवाल है कि हम रचें कैसे? वहीं ‘मतिलुकल’ में ‘स्वयंवरम’ की तरह स्वतंत्रता एवँ मुक्ति का प्रश्न प्रमुखता से उभरा है, हालांकि फिल्म निर्माण की दृष्टि से अनंतरम के करीब है. ‘कथापुरुषन’ में आत्मकथात्मक स्वर है, इस फिल्म में सामंती हदबंदियों को तोड़ा गया है. फिल्म की शूटिंग भी उन्होंने अपने पुश्तैनी घर में ही की. अडूर का सिनेमा आजादी के बाद परंपरा और आधुनिकता के कशमकश को, केरल की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को, बदलती हुई राजनीति के परिप्रेक्ष्य में निरूपित करता है. यहां विभिन्न स्तरों पर विस्थापन और अस्मिता की खोज मौजूद है.
विषय-वस्तु में विविधता भले हो पर अडूर की फिल्मों में केरल की संस्कृति एक ऐसा सूत्र है जो उनकी पूरी फिल्मी यात्रा को व्याख्यायित करता है. वे आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. पिछले साल उनकी एक छोटी फिल्म ‘सुखयांतम’ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई. उनकी फिल्मों में सामाजिकता के साथ वैचारिकता का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. वे कहते हैं कि एक विचार के प्रभाव से बाहर निकलने में उन्हें काफी वक्त लगता है. सादगी में विश्वास करने वाले अडूर स्वभाव से मितभाषी हैं. यह उनकी फिल्मों में भी परिलक्षित होता है. उनकी फिल्में कम बोलती हैं. बिंबों और ध्वनि के जरिए यहाँ दर्शकों को अनुभव और कल्पना से चीजों की व्याख्या करनी होती है, गैप्स को भरने होते हैं.
यह पूछने पर कि क्या उन्होंने कभी किसी अन्य भाषा में फिल्म बनाने की नहीं सोची? अडूर कहते हैं- नहीं. वे कहते हैं कि भाषा महज विचारों की अभिव्यक्ति का जरिया नहीं है, उसमें संस्कृति फलती-फूलती है. उनकी फिल्मों में केरल की आबोहबा और संस्कृति गहरे रची-बसी है. केरल की स्थानीय जमीन पर खड़ी होकर उनकी फिल्में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत तक पहुँची है. अडूर का सिनेमा मनोरंजन से आगे बढ़ ऐसे सामाजिक यथार्थ और अंतर्मन के भावों को हमारे सामने पेश करता है जो स्थानीयता और समय की सीमा से पार जाता है. यही उनकी कला की विशेषता है.

(न्यूज 18 हिंदी वेबसाइट पर प्रकाशित)

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