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Sunday, March 30, 2025

पूंजीवादी आलजाल को रचती फिल्में: अनोरा और द ब्रूटलिस्ट

 

ऑस्कर पुरस्कार समारोह में अनोरा और द ब्रूटलिस्ट फिल्म की चर्चा रही. इंडी फिल्मकार सीन बेकर की फिल्म अनोरा को बेहतरीन फिल्म, निर्देशन, संपादन और बेस्ट एक्ट्रेस समेत सबसे ज्यादा पुरस्कार मिले. वहीं द ब्रूटलिस्ट को बेस्ट एक्टरबेस्ट सिनेमेटोग्राफी, ओरिजिनल स्कोर के लिए चुना गया.

पूंजीवादी समाज में वर्गीय विभेद, प्रेम और सेक्स के इर्द-गिर्द यह फिल्म घूमती है. असल में इसे एक कॉमेडी फिल्म कहा गया है, जिसके केंद्र में अमेरिका के स्ट्रीप क्लब में काम करने वाली एनी (अनोरा) है. रूस के एक धनाढ्य युवा के साथ उसके संबंध बनते हैं, जैसा कि हमने सिंड्रेला की कहानी में पढ़ा है. पर कहानी तो कहानी है, वह जीवन नहीं हो सकती!

सीन बेकर हमेशा दर्शकों के मन में यह भाव जगाए रखते हैं कि आप महज एक फंतासी देख रहे हैं. यथार्थ की पुनर्रचना के क्रम में पूंजीवादी आलजाल से हमारा साक्षात्कार होता है.

अनोरा (मिकी मैडिसन) की स्वप्निल आँखों में प्रेम का भाव है, पर उसके हाव-भाव में लोभ. रूसी युवा के साथ वह शादी रचाती है. इस उम्मीद में कि उसकी जिंदगी परियों सी हो जाएगी.  कहानी-सिनेमा से चमत्कार की उम्मीद तो हम रख ही सकते हैं! सीन बेकर हालांकि ऐसी कोई उम्मीद नहीं जागते हैं.

सीन बेकर बिना किसी फलसफे  के, बड़ी सहजता से, आधुनिक मानवीय त्रासदी को दो युवाओं के संबंधों के माध्यम से सामने लाते हैं. इस उत्तर आधुनिक युग में सवाल प्रेम’ की अवधारणा पर भी है. मिकी मैडिसन एनी के किरदार में कुशलता से रची-बसी है. महज 25 वर्ष की उम्र में ऑस्कर अपने नाम कर उन्होंने इतिहास रचा है. भले ही कहानी अमेरिका की हो इसे हम इस भूमंडलीकृत पूंजीवादी ग्राम में कहीं पर अवस्थित कर सकते हैं.

वहीं ब्रैडी कॉब्रेट की फिल्म द ब्रूटलिस्ट’ के केंद्र में कुशल अभिनेता एड्रीन ब्रॉडी हैं. नाजी यूरोप में नरसंहार के दौरान हंग्री के यहूदी मूल के लास्ज़लो टोथ (ब्रॉडी) अमेरिका आते हैं. एक कुशल वास्तुशिल्पी (ऑर्किटेक्ट) की जीवन यात्रा के माध्यम से हम सपनों के पीछे भागते ब्रॉडी को देखते हैं. साथ ही अमेरीकी पूंजीवादी सभ्यता के वीभत्स रूप से भी रू-ब-रू होते हैं, जो स्व को छीन लेता है.  

अनोरा फिल्म परदे पर तेज रफ्तार से भागती है. फिल्म का टाइम-स्पेस समकालीन है, जबकि द ब्रूटलिस्ट को एक उपन्यास की तरह विभिन्न खंडों में बुना गया है. करीब साढ़े तीन घंटे की यह फिल्म लंबी जरूर है, पर बोझिल नहीं. फिल्म बेहद खूबसूरत छवियों के माध्यम से सफेद और स्याह को सामने लाती है. ऐतिहासिक ताने-बाने के सहारे रची इस फिल्म को हम वर्तमान समय की राजनीति से भी जोड़ कर देख सकते हैं. एक माइग्रेंट के रूप में लास्जलो अपने स्व की तलाश में जिंदगी भर भटकते हैं.  उन्हें पहचान मिलती है, जिसकी कीमत उन्हें अपने को देकर चुकानी पड़ती है.  

दोनों ही फिल्मों का निर्माण और निर्देशन साफ अलग है, पर एक स्तर पर पूंजीवादी संस्कृति की आलोचना है. सीन बेकर प्रयोगात्मक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.  इन्होंने इस फिल्म को महज छह मिलियन डॉलर में बनाया है.  इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या वास्तव में अनोरा’ इतने ऑस्कर की हकदार थी, लेकिन एक बात तय है कि ऑस्कर ने इंडिपेंडेंट सिनेमा को केंद्र में ला दिया है. चुनौती बड़े बजट की फिल्मों को इन्हीं फिल्मों से मिल रही है. क्या बॉलीवुड  इससे कोई सबक लेगा?


Friday, August 11, 2023

‘जॉयलैंड’ जहाँ पितृसत्ता प्रतिपक्ष की भूमिका में है



दक्षिण एशिया में बॉलीवुड का इतना दबदबा है कि अन्य फिल्म उद्योगों की चर्चा नहीं होती. भूटान की फिल्म ‘लुनानाए यॉक इन द क्लास रूम’ को 94वें ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. यह अलग बात है कि इसे सफलता नहीं मिली पर कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे सम्मानित किया गया है. इसी तरह पाकिस्तान की फिल्म ‘जॉयलैंड’ को पिछले साल95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. यह फिल्म भी ऑस्कर जीतने में सफल नहीं हुईपर प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहाँ ज्यूरी पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के निर्माताओं में  हैदराबाद की अमेरिका में रहने वाली भारतीय अपूर्व गुरु चरण भी शामिल हैं.

भारतीय मीडिया में पाकिस्तान की चर्चा जब भी होती है खबरें आतंकवाद या राजनीतिक उथल-पुथल से ही जुड़ी रहती है. साहित्यसंस्कृति या सिनेमा अमूमन गायब ही रहते आए हैं. फरवरी में पाकिस्तान के चर्चित अदाकार और उर्दू साहित्य को लयात्मक और अपने सस्वर पाठ से चर्चित करने वाले जिया मोहिउद्दीन की जब मौत हुई तब भारतीय मीडिया में उनकी चर्चा बेहद कम हुई जबकि हिंदुस्तान में भी उनके चाहने वाले (खास कर फैज की नज्म पढ़ने की वजह से) बहुत  हैं. प्रसंगवशपाकिस्तान के युवा निर्देशक उमर रियाज की एक डॉक्यूमेंट्री- कोई आशिक किसी महबूब से जिया मोहिउद्दीन को लेकर बनाई हैजिसकी काफी चर्चा भी हुई.

बहरहालविभिन्न फिल्म समारोह में पाकिस्तानी फिल्म ‘जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले महीने अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया. सैम सादिक ने इसे निर्देशित किया हैफिल्म में सलमान पीरसरवत गिलानीरस्ती फारूक और अली जुनैजो सहित ट्रांसजेंडर अभिनेता अलिना खान की प्रमुख भूमिका है.

भले ही यह फिल्म पाकिस्तान में रची-बसी हैलेकिन कहानी भारत समेत दक्षिण एशिया के दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. फिल्म के केंद्र में लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. इस परिवार का मुखिया एक विधुर है जिसके दो बेटे और बहुएँ हैं. परिवार को एक पोते की लालसा है. बड़ी बहु की तीन बेटियाँ हैं. छोटा बेटा (हैदर) जो बेरोजगार है उसकी नौकरी एक ‘इरॉटिक थिएटर कंपनी’ में लग जाती है. वहाँ वह एक ट्रांसजेंडर डांसर (बीबा) का सहयोगी डांसर होता है. धीरे-धीरे वह उसकी तरफ वह आकर्षित होता है. घर में छोटे बेटे की बहु (मुमताज) की नौकरी छुड़वा दी जाती है. घुटन और इच्छाओं के दमन से उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है.

यह फिल्म घर-परिवार के इर्द-गिर्द हैपर किरदारों की इच्छा-आकांक्षा से लिपट कर लैंगिक राजनीतिस्वतंत्रता और पहचान का सवाल उभर कर फिल्म में सामने आता है. चाहे वह घर का मुखिया होउसका बेटा होबहु हो या थिएटर कंपनी की डांसर बीबा. फिल्म में एक संवाद है-मोहब्बत का अंजाम मौत है! सामंती परिवेश में प्रेम एक दुरूह व्यापार हैबेहद संवेदनशीलता के साथ निर्देशक ने इसे फिल्म में दिखाया है.

यह फिल्म अपने विषय-वस्तु का जिस कुशलता से निर्वाह करती है उसी कुशलता से परिवेशभावनाओं और तनाव को भी उकेरती है. ट्रांसजेंडर की पहचान और अधिकार को लेकर मीडिया में बहस होने लगी है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. फिल्म में अलिना खान ने ट्रांसजेंडर डांसरबीबा की भूमिका विश्वसनीय ढंग से निभाई है. सादिक की शॉर्ट फिल्म डार्लिंग (2019) में उन्होंने अभिनय किया था. 'जॉयलैंडएक तरह से ‘डार्लिंग’ का विस्तार है. इस वर्ष मई में लाहौर में अलिना खान को मिस ट्रांस पाकिस्तान’ से सम्मानित किया गया.

फिल्म में कोई विलेन नहीं है. पितृसत्ता यहाँ प्रतिपक्ष की भूमिका में है. सवाल बहुत सारे हैंजवाब कोई नहीं. ऐसे में रास्ता नजर नहीं आता. नाम जॉयलैंड हैपर यहाँ खुशी के क्षण रेगिस्तान में पानी की बूंद की तरह हैं- अप्राप्य. इस बोझिल वातावरण को निर्देशक ने सहजता से बुना है. इसमें उन्हें कलाकारों का काफी सहयोग मिला है. 

फिल्म के कई दृश्य जेहन में रह जाते हैं. एक ऐसा ही दृश्य फ्लाईओवर पर बीवा का कट-आउट लिएस्कूटर के पीछे सीट पर बैठे हैदर का है.

निर्देशक ने जबरन अपने विचारों को दर्शकों के ऊपर थोपा नहीं है. न ही फिल्म में किसी तरह का उपदेश या प्रवचन ही दिया गया हैजैसा कि आम तौर पर बॉलीवुड की फिल्मों में हम देखते हैं. फिल्म एक प्रवाह में आगे बढ़ती है. बिंबों के सहारे कई बातें मुखरता से कहीं गई है. युवा निर्देशक सादिक की यह पहली फिल्म हैजहाँ वे संभावनाओं से भरे नज़र आते हैं.


Saturday, March 25, 2023

ऑस्कर मिला, बनेगा डॉक्युमेंट्री का बाजार?

 


द एलीफेंट विस्परर्सडॉक्युमेंट्री (शार्ट) के लिए कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिले ऑस्कर पुरस्कार के बाद अचानक सिनेमा प्रेमियोंसमीक्षकों का ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्युमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. इस साल शौनक सेन की ‘ऑल दैट ब्रीदस’ और पिछले साल रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्युमेंट्री 'राइटिंग विद फायरको ऑस्कर के डॉक्युमेंट्री (फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. नई तकनीक की उपलब्धता ने भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को प्रेरित किया है. मेघनाथ  पिछले चालीस सालों से डॉक्युमेंट्री निर्माण में सक्रिय हैं. उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. गाड़ी लोहरदगा मेल’, विकास बंदूक की नली से’, नाची से बांची (बीजू टोप्पो के साथ) आदि उनकी चर्चित डॉक्युमेंट्री है. भारत में डॉक्युमेंट्री की स्थितियुवा फिल्मकारों, प्रदर्शन की समस्या को लेकर अरविंद दास ने उनसे बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश:

पहली बार किसी डॉक्युमेंट्री (द एलीफेंट विस्परर्स)' को ऑस्कर पुरस्कार मिला है. आप इस सफलता को कैसे देखते हैं?

मुझे खुशी है कि ‘द एलीफेंट विस्परर्स को ऑस्कर पुरस्कार मिला. आज से तीस साल पहले आम लोगों को डॉक्युमेंट्री के बारे में पता नहीं था. फिल्म्स डिवीजन में, सरकार प्रायोजित फिल्म समारोहों में डॉक्युमेंट्री दिखाई देती थी. इसका बाजार कभी नहीं बन पाया. एलीफेंट विर्सपरर्स नेटफ्लिक्स की फिल्म है तो हम उम्मीद करते हैं कि ऑस्कर मिलने के बाद आने वाले समय में ओटीटी प्लैटफॉर्म डॉक्युमेंट्री फिल्मों को महत्व देंगे.

क्या यह सच है कि तकनीक में आए बदलाव ने डॉक्युमेंट्री बनाना आसान कर दिया है?

बिल्कुल, चालीस साल पहले कुछ नहीं था. सैल्यूलाइड पर हम फिल्में बनाते थे. बीटा और डिजिटल के आने के बाद डॉक्युमेंट्री बनाना और उसे संपादित करना आसान हो गया. तकनीक का आज विकेंद्रीकरण हो गया है. इससे डॉक्युमेंट्री बनाने और दिखाने दोनों में ही सुविधा हो गई है. मास कम्यूनिकेशन के संस्थानों में वृत्तचित्रों के लिए माहौल बना है, छात्रों की रुचि इसमें जगी है. लेकिन अभी और माहौल बनाने की जरूरत है ताकि लोग समझें कि मनोरंजन के अलावा भी सिनेमा के कई रूप हैं. मनोरंजन के अलावे सिनेमा के सामाजिक, शैक्षणिक मूल्य भी हैं.

द एलीफेंट विस्परर्स'ऑल दैट ब्रीदस पर्यावरण को आधार बनाती है. 'राइटिंग विद फायर' एक अखबार ‘खबर लहरिया’  के प्रिंट से डिजिटल के सफर के इर्द-गिर्द है. पायल कपाड़िया की  नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’  फिल्म संस्थान को आधार बनाती है. इन युवा फिल्मकारों के बारे में आप क्या सोचते हैं?

पिछले दस-पंद्रह सालों में जो युवा फिल्मकार आए हैं, उनकी प्रशंसा करता हूँ. चालीस साल पहले हमने जब डॉक्युमेंट्री बनाना शुरु किया था तबसे गुणवत्ता कहीं बेहतर हुई है. तकनीक और सौंदर्य काफी अच्छा हो गया है. पहले फिल्म्स डिवीजन की फिल्में होती थी, जो कभी कभी बोरिंग भी हो जाती थी. डॉक्युमेंट्री कोई एक विषय आधारित तो होती नहीं. कोई पर्यावरण को लेकर, तो कोई स्त्री मुद्दो को लेकर तो कोई राजनीतिक मुद्दों को लेकर ये फिल्में बनाते हैं.

आपके पसंदीदा डॉक्युमेंट्री फिल्मकार कौन रहे है?

मैं दो नाम लूंगा. एक आनंद पटवर्धन, दूसरा तपन बोस (जो मेरे गुरु है). लेकिन सबसे ज्यादा मैं बोलूंगा के पी शशि के बारे में जो पिछले दिनों गुजर गए. चालीस के करीब उन्होंने वृत्तचित्र बनाई. 80 के दशक में ही वह समय से आगे डॉक्युमेंट्री बना रहे थे. न्यूक्लियर रेडिएशन को लेकर लिविंग इन फियर, नर्मदा को लेकर ए वैली रिफ्यूजेज टू डाई और इसी तरह उन्होंने वी हू मेक हिस्ट्रीऔर द नेम ऑफ मेडिसिन’ जैसी डॉक्युमेंट्री बनाई. उन्होंने दो फिक्शन भी बनाई. आनंद पटवर्धन, तपन बोस जब फिल्म निर्माण में सामाजिक यथार्थ को लेकर आए तो डॉक्युमेंट्री में एक नई रंगत आई.

समांतर सिनेमा के फिल्मकार मसलनश्याम बेनेगल, मणि कौल, कुमार शहानी भी वृत्तचित्र बना रहे थे उस दौर में...

हां, वो फिक्शन में बना रहे थे. जैसा कि हम कहते हैं कि साइंस पढ़ रहे हैं पर उसके अंदर फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी है... तीनों ही एक-दूसरे से अलग हैं. इसी तरह से डॉक्युमेंट्री सिनेमा में दो धाराएं रही हैं. मैं यह नहीं कहता कि कौन अच्छा है, कौन बुरा. हम उसमें नहीं जाते हैं. दोनों की अपनी महत्ता है.

इतने सालों के बाद आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन आसान नहीं हो पाया है, कोई नेटवर्क नहीं है. कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद भी ऑल दैट ब्रीदस'राइटिंग विद फायर' नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’   आम लोगों के देखने के लिए उपलब्ध नहीं है...

हां, हम वृत्तचित्र बनाने वाले एक नेटवर्क नहीं बना पाए. इन फिल्मकारों के बीच कोई कोऑर्डिनेशन नहीं है, जो दुखद है. हमारी भी कमजोरी रही. पीएसबीटी ने बहुत वृत्तचित्र बनाई और प्रोमोट किया. इसी तरह फिल्म्स डिवीजन भी अपने तरीके से काम कर रहा था, हम उनके शुक्रगुजार हैं. नेहरू के पास सिनेमा को लेकर एक दृष्टि थी. ब्रिटिश जब जा रहे थे, उनका जो 'लेफ्टओवर प्रोपेगैंडा' था उसे वह फिल्म्स डिवीजन में लेकर आए. दुर्भाग्य से बाद में राजनीतिक समुदाय की सिनेमा की समझ बहुत परिष्कृत नहीं रही.

युवा डॉक्युमेंट्री फिल्मकारों के लिए आपकी क्या सलाह है?

मैं युवा फिल्मकारों की प्रशंसा करता हूँ. पिछले बीस सालों में सिनेमा की क्वॉलिटी में बदलाव आया है. हम बस यह कहना चाहेंगे उनसे की आप गुड आइडिया को बैड फार्म से संप्रेषित नहीं कर सकते. उन्हें फॉर्म को महत्व देना होगा. मसलन, मैंने शशि के साथ गाँव छोड़ब नाहि बनाई जो मात्र छह मिनट की फिल्म थी.

 (नवभारत टाइम्स के लिए)

Friday, March 24, 2023

क्या ‘द एलीफेंट व्हिस्परर्स' की सफलता डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन का रास्ता खोलेगी?


भारत के हिस्से आई ऑस्कर पुरस्कारों की चर्चा सब तरफ है, जिसका इंतजार दशकों से था. 95वें ऑस्कर समारोह में 'आरआरआर' फिल्म के 
नाटू-नाटू गाने से काफी उम्मीद थी, पर द एलीफेंट व्हिस्परर्स' डॉक्टूमेंट्री (शार्ट) के लिए कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिला ऑस्कर बहुत से लोगों के लिए अप्रत्याशित है. इसके साथ ही अचानक सिनेमा प्रेमियों, समीक्षकों का ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. नेटफ्लिक्स पर इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को देखने वालों की होड़ लगी है. मुदुमलाई नेशनल पार्क में स्थित इस वृत्तचित्र के केंद्र में एक हाथी (रघु) और उसे पालने वाले आदिवासी समुदाय के बोम्मन और बेली हैं. बेहद संवेदनशीलता से यह वृत्तचित्र पर्यावरण, वन्यजीवों के संरक्षण, इंसान और जानवरों के बीच आत्मीय संबंध को दिखाती है.

ऑस्कर पुरस्कार की घोषणा से पहले इस कॉलम में मैंने लिखा था कि इस बार डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से काफी उम्मीद है. द एलीफेंट व्हिस्परर्सके साथ-साथ शौनक सेन की ऑल दैट ब्रीदस (फीचर) की भी ऑस्कर पुरस्कार के लिए दावेदारी थी. ऑल दैट ब्रीदस की तरह पिछले साल भी रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायरको ऑस्कर के डॉक्यूमेंट्री (फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. पिछले कुछ सालों में देश में युवा वृत्तचित्र फिल्मकारों का एक समूह उभरा है जिसने दुनियाभर के फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा है.

असल में, नई तकनीक की उपलब्धता ने भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को प्रेरित किया है. पिछले दिनों रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष ने लिखा कि जब उनसे स्टीवन स्पीलबर्ग ने पूछा कि उनकी फिल्म की यात्रा में सबसे ज्यादा चकित करने वाली क्या बात रही?’ उन्होंने कहा था कि एक बैकपैक में समा जाने वाले साजो-समान के साथ तीन लोगों की एक टीम ने इस फिल्म पर काम किया, जो ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुई है!’ स्पीलबर्ग ने इस पर आश्चर्य जाहिर किया था.

पर ऐसा नहीं कि भारतीय वृत्तचित्रों की चर्चा विश्व पटल पर पहले नहीं हुई हो. बॉलीवुड का इतना दबदबा है कि सिनेमा के ज्यादातर समीक्षक डॉक्यूमेंट्री की बात नहीं करते, जबकि आनंद पटवर्धनअमर कंवर संजय काकमाइक पांडेय, मेघनाथ, कमल स्वरूप जैसे वृत्तचित्र निर्देशकों को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. समांतर सिनेमा के ख्यात निर्देशक मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल आदि ने भी कई चर्चित वृत्तचित्रों का निर्माण किया है. कम संसाधनों में बनी इन वृत्तचित्रों के विषय और शैली में पर्याप्त विविधता है.

भारत में गैर फीचर फिल्मों की यात्रा फीचर फिल्मों के साथ-साथ चलती रही. देश की आजादी के बाद वृत्तचित्रों की भूमिका जनसंचार और शिक्षा तक सीमित रही. बाद के दशक में सामाजिक यथार्थ, विषमता को दिखाने पर फिल्मकारों का जोर बढ़ा. ऑस्कर की ही बात करें तो वर्ष 1978 में विधु विनोद चोपड़ा की मुंबई के स्ट्रीट चिल्ड्रेन पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री चेहरा (एन एनकाउंटर विद फेसेस) को ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था. इससे दस साल पहले वर्ष वर्ष 1968 में फली बिलिमोरिया की डॉक्यूमेंट्री द हाउस दैट आनंद बिल्ट भी ऑस्कर के लिए शार्ट डॉक्यूमेंट्री खंड में नामांकित हुई थी. इन दोनों वृत्तचित्रों को भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन ने तैयार किया था. दोनों डॉक्यूमेंट्री यूट्यूब पर देखी जा सकती है.

क्या यह आश्चर्य नहीं ऑल दैट ब्रीदस और 'राइटिंग विद फायर' विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित होने के बावजूद आज भी भारत में प्रदर्शित नहीं हुई है? हम यह उम्मीद नहीं कर रहे कि इसे हम नजदीक सिनेमाघरों में देख पाएँगे पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो रिलीज हो ही सकती है. असल में, डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रसारण को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है. ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म भी बड़े स्टारों की फिल्मों को लेकर जितने तत्पर रहते हैं उतने प्रयोगधर्मी फिल्मों या वृत्तचित्रों को लेकर नहीं. पिछले दिनों एक बातचीत में प्रयोगधर्मी युवा फिल्म और वृत्तचित्र निर्देशक पुष्पेंद्र सिंह ने कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म उनकी फिल्मों के लिए जो पैसा उन्हें दे रही है वह हास्यास्पद है. औने-पौने दाम में वे इसे खरीदने के लिए तत्पर रहते हैं.’

ऐसे में ज्यादातर डॉक्यूमेंट्री फिल्में फिल्म समारोहोंकॉलेज-विश्वविद्यालयों में या निर्देशकों के व्यक्तिगत प्रयास से ही उपलब्ध होती रही हैं. जाहिर है इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाताजैसा फीचर फिल्मों का होता है. फलस्वरूप ये आम दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं. पिछले वर्षों में कोरोना महामारी की वजह से देश में ज्यादातर फिल्म समारोह भी स्थगित ही रहे और ये डॉक्यूमेंट्री मुट्ठी भर दर्शकों तक ही सीमित रही. सच यह है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. क्या द एलीफेंट व्हिस्परर्सकी सफलता संसाधनों को आकर्षित करने के साथ-साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए रास्ते खोलेगी

Sunday, March 12, 2023

ऑस्कर में भारत की दावेदारी, कितनी उम्मीद


सिनेमा जगत में ऑस्कर वाली शाम को लेकर एक बार फिर से हलचल है. 
रविवार (भारत में सोमवार की सुबह) को लॉस एंजेलिस में 95वें ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा होगी.

कयास लगाए जा रहे हैं कि विज्ञान आधारित फंतासी को लेकर मानवीय रिश्तों के इर्द-गिर्द बनी एबसर्ड कॉमेडी ड्रामा एवरीथिंग एवरीव्हेर आल एट वंस को बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिलेगा  या ट्रेजिक कॉमेडी द बंशीज ऑफ इनिशरिन को? ‘द बंशीज ऑफ इनिशरिन में जिस तरह से कहानी बुनी गई है  वह देखने वालों को आकर्षित करती है. इस फिल्म में रचनात्मकता को लेकर जो आत्महंता आस्था दिखाई देती है, अचंभित भी करता है. इस फिल्म में कलाकारों के अभिनय की उत्कृष्टता विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्हें विभिन्न वर्गों में नामांकन मिला है.  इस फिल्म के निर्देशक मार्टिन मेकडनाह को भी बेस्ट डाइरेक्टर के लिए नामित किया गया है. वहीं एवरीथिंग एवरीव्हेर आल एट वंस’ को सबसे ज्यादा विभिन्न श्रेणियों में नामित किया गया है. इस फिल्म के निर्देशक डैनियल क्वान और डैनियल शाइनर्ट के साथ फिल्म की अभिनेत्री मिशेल योह की चर्चा है. योह को बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेशन मिला है. उल्लेखनीय है कि मलेशिया मूल की चर्चित अभिनेत्री योह पहली एशियाई अभिनेत्री है जिसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया है.

ऑस्कर पुरस्कारों पर बहुलता की अनदेखी करने और नस्लवाद का आरोप दशकों से लगता रहा है. पिछले वर्षों में सदस्यों में स्त्रियों और अल्पसंख्यकों की भागेदारी बढ़ी है फिर भी इनमें अधिकांश श्वेत पुरुष ही है. क्या योह इतिहास रचने में कामयाब होगी? प्रसंगवश, उन्हें इस साल बेस्ट एक्ट्रेस के लिए गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है.

साल भर से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी युद्ध विरोधी फिल्म ऑल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट की भी दावेदारी है. सवाल है कि क्या हम प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध से कोई सबक सीख पाए हैंयह फिल्म 'बेस्ट पिक्चर' और 'बेस्ट इंटरनेशनल फीचर' दोनों ही श्रेणी में नॉमिनेटेड है. दिग्गज निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की आत्मकथात्मक फिल्म द फेबलमैन्स की भी चर्चा है.

भारत में लोगों की दिलचस्पी के केंद्र में एसएस राजामौली की फिल्म आरआरआर’ का गाना नाटू-नाटू’  है जिसे म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की श्रेणी में नामित किया गया है. इसे बेस्ट पिक्चर के अंतिम दस में नामांकन नहीं मिल पाया था, हालांकि देश-विदेश में इसे काफी सराहना मिली है.

फीचर फिल्मों से अलग भारत की दो डॉक्यूमेंट्री फिल्में ऑल दैट ब्रीद्स’ और द एलीफेंट व्हिस्परर्सभी अंतिम पाँच में शामिल है. उम्मीद है कि डॉक्यूमेंट्री की श्रेणी में भारत को इस बार ऑस्कर मिलेगा. आश्चर्य है कि शौनक सेन निर्देशित डॉक्यूमेंट्री ऑल दैट ब्रीद्स को भारत में अभी तक रिलीज नहीं किया गया है, लेकिन दुनिया भर के फिल्म समारोहों में इसने खूब सुर्खियां बटोरी है. पिछले साल इस डॉक्यूमेंट्री को कान में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री के लिए गोल्डेन आई’ पुरस्कार और सनडांस फिल्म समारोह में विश्व सिनेमा वृत्तचित्र श्रेणी में ग्रांड ज्यूरी पुरस्कार मिल चुका है. इस फिल्म में जिस तरह से बिंब और ध्वनि का इस्तेमाल किया गया है वहाँ फीचर और डॉक्यूमेंट्री को लेकर श्रेणीगत विभाजन मिट जाता है.

ऑल दैट ब्रीद्स एक साथ कई विषयों को खुद में समेटे है. दिल्ली में प्रदूषण की समस्या इसके केंद्र में है, वहीं वजीराबाद में रहने वाले दो मुस्लिम भाई (सऊद और नदीम) और उसके सहयोगी (सलीक) के सहारे यह वृत्तचित्र आगे बढ़ती है. पिछले बीस साल से आसमान से गिरते चीलों और अन्य घायल पक्षियों की देखभाल वे करते रहे हैं.  पृष्ठभूमि में नागरिकता कानून (सीएए) और दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों की अनुगूंज भी सुनाई पड़ती है. यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म जितना मानवीय संबंधों को चित्रित करती है उतना ही पर्यावरण के साथ हमारे रिश्ते को भी. धर्म के नाम पर विभेद की राजनीति भी बहसतलब है. दिल्ली की प्रदूषित हवा’ में न सिर्फ चील बल्कि इंसान भी घुट रहे हैं. यह सब मानव निर्मित है.

कुल एक घंटे छत्तीस मिनट की इस वृत्तचित्र में इंसान और आस-पास के जीव-जंतुओं के बीच जो एक बिरादरी’ का भाव है वह देखने वालों के मन को छू जाता है. आत्म और अन्य का विभेद यहाँ मिट जाता है. फिल्म के शुरुआत में ही चूहेचीलमेंढककुत्तेबिल्लीसूअर दिखाई देते हैं. चील की निरीह आँखे हमसे संवाद करती हुई प्रतीत होती है.

इसी तरह कार्तिकी गोंसाल्वेस की द एलीफेंट व्हिस्परर्स’ के केंद्र में एक हाथी (रघु) है. इसके इर्द-गिर्द हाथियों की देखभाल करने वाले बोम्मन और बेली के बीच पनपते हुए रिश्ते को हम देखते हैं. असल में बेहद संवेदनशीलता के साथ चालीस मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री में इंसान और जानवर के बीच लगाव को दिखाया गया है. साथ ही नीलगिरी का मनमोहक सौंदर्य भी यहाँ लिपटा हुआ चला आता है.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)