Thursday, April 06, 2023

चिपको आंदोलन के पचास साल




देश में जन आंदोलनों का एक संवृद्ध इतिहास रहा है. इनमें पर्यावरण को लेकर हुए आंदोलन भी शामिल हैं. उत्तराखंड में चंदी प्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में हुए अहिंसात्मक चिपको आंदोलन पचास साल पूरा कर रहा है. एक बार फिर से जंगल को बचाने के लिए हुए इस आंदोलन की चर्चा हो रही है.

इतिहासकार शेखर पाठक ने अपनी चर्चित किताब हरी भरी उम्मीदचिपको आंदोलन और अन्य जंगलात प्रतिरोधों की परंपरा’ में लिखा है कि 'उत्तराखंड के चमोली जिले में अंगू की लकड़ी नाम मात्र की कीमत पर इलाहाबाद की सायमण्ड कंपनी को दी गई थी लेकिन उन पेड़ों के पास रहने वाले और सदियों से उनकी हिफाजत तथा संतुलित इस्तेमाल करने वाले गरीब किसानों को नहीं'. चमोली जिले में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ (1964) के सर्वोदयी कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट इसके खिलाफ आंदोलन कर रहे थे. इससे पहले जुलाई 1970 में अलकनंदा में आई भीषण बाढ़ ने लोगों को अपने पर्यावरण की रक्षा के प्रति अतिरिक्त रूप से सचेत कर दिया था.

जब 27 मार्च 1973 को अंगू के पेड़ों को काटने कंपनी के मजदूर गोपेश्वर आए तब भट्ट ने कहा था: उनसे कह दो कि हम उन्हें पेड़ काटने नहीं देंगेजब उनके आरे पेड़ों पर चलेंगेहम पेड़ों को अंगवाल्ठा डाल लेंगेउन पर चिपक जाएँगे. पाठक लिखते हैं कि भले ही प्रतिरोध की यह अनूठी बात भट्ट के मुख से निकली पर थी सामूहिक अभिव्यक्ति. इस अभिव्यक्ति ने आने वाले वर्षों में जन आंदोलन का रूप लिया और देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा.

चिपको आंदोलन के संगठन और नेतृत्व के लिए वर्ष 1982 में रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित 88 वर्षीय भट्ट कहते हैं कि आज समस्याएं और भी गंभीर हो रही है. बात पेड़ की ही नहीं, पानी की, जमीन की समस्या की भी है. अलग-अलग ढंग से संरक्षण की बात ऊपर ही ऊपर तो हो रही है, जमीनी स्तर पर जिस तरह काम होना चाहिए नहीं हो रहा.

चिपको आंदोलन की चर्चा व्यापक स्तर पर हुई. सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट इसके नेता के रूप में उभरे, पर रेणी के जंगल बचाने की मुहिम में 26 मार्च 1974 को महिला मंगल दल की अध्यक्षगौरा देवी के साथ इक्कीस महिलाओं और सात बच्चियाँ के हिस्से प्रतिरोध का जिम्मा आया था, जब कंपनी के मजदूर पेड़ काटने पहुंचे थे. पाठक इसे 'इतिहास का असाधारण क्षण' कहते हैं.

रेणी गाँव से आंदोलन की लहर अन्य जिलों में पहुँची. बाद में 70 के दशक में चिपको का बहुचर्चित नारा- 'क्या हैं जंगल के उपकारमिट्टीपानी और बयारमिट्टीपानी और बयारजिन्दा रहने के आधार'सुनाई दिया. हालांकि पाठक अपनी किताब में नोट करते हैं कि उत्तराखंड में पिछले सौ सालों में जंगल हमेशा आंदोलन का विषय रहे हैं. वे लिखते हैं कि जंगलात सत्याग्रह के दौरान शक्ति’ जैसे पत्र में वर्ष 1924 में ही जंगलों को हवामिट्टीपानी का स्रोत बताया जाने लगा था.

बहरहाल, यह पूछने पर कि पचास साल बाद चिपको आंदोलन को वे किस रूप में याद करते हैं, भट्ट ने बताया कि जहाँ तक पेड़ों की बात है सरकार के कानूनों के कारण अभी काफी बचे हैं और कुछ लोगों की जागृति के कारण. मुख्य रूप से उत्तराखंड में महिला मंगल दलों के द्वारा अपने इलाकों में पेड़ों की निगरानी का कार्यक्रम चल रहा है. चिपको आंदोलन की जो मातृसंस्था है वह जंगलों में आग  इत्यादि में जन चेतना जागृत करने का काम कर रही है. निस्संदेह चिपको आंदोलन की एक प्रमुख सफलता वर्ष 1980 में बना वन संरक्षण अधिनियम है. चिपको आंदोलन ने 70-80 के दशक में देश में जल, जंगल जमीन को लेकर होने वाले अन्य संघर्षों को प्रभावित किया. 

21वीं सदी में आज सबसे ज्यादा 'जलवायु परिवर्तन' पर्यावरण विमर्शों में हावी है. अकारण नहीं कि पहली बार वर्ष 2019 चुनावों में दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्रो में जलवायु परिवर्तन’ का मुद्दा दिखाई दिया.

उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण केदारनाथ में वर्ष 2013 में हुए त्रासदी की याद ताजा है, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान गई. इसकी मुख्य वजह ग्लेशियर का पिघलना, मंदाकिनी नदी का जलस्तर बढ़ना माना गया. 

खुद भट्ट केदारनाथ के साथ वर्ष 2021 में तपोवन में ग्लेशियर के टूटने से जान-माल की तबाही को ओर इशारा करते हैं. वे जोशीमठ का उदाहरण देते हैं और विस्थापन का जिक्र करते है. वे कहते हैं कि सवाल है कि जोशीमठ को कैसे बचाएंवे जोर देकर कहते हैं कि हिमालय में गड़बड़ी होगी तो पूरे बेसिन पर दुष्प्रभाव पड़ेगा और ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे. वे आगाह करते हैं कि 'एक समय ऐसा आएगा हमारी गंगा बरसाती नदी की तरह हो जाएगी'.

आजादी के बाद भारत में पर्यावरण को आर्थिक विकास के बरक्स खड़ा किया जाता रहा है. उदारीकरण के बाद यह द्वंद गहराया है. उपभोग की संस्कृति और फैली है, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और बढ़ा है. पर जैसा कि शेखर पाठक ने लिखा है कि  'जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की महत्ता और बढ़ेंगीइसलिए आने वाली सदियों में भी जंगल आर्थिकी और पारिस्थितिकी के आधार होंगें.’  वे लिखते हैं चिपको आंदोलन की महत्ता आर्थिकी और पारिस्थितिकी के संतुलित समन्वय में था. चिपको आंदोलन से यह सीख लेकर हम भविष्य की ओर देख सकते हैं.

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