पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ इस साल की सबसे चर्चित फिल्मों में रही. एक वजह प्रतिष्ठित कान समारोह में इस फिल्म को ‘ग्रां प्री’ पुरस्कार से नवाजा जाना है. स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सिनेमा बनाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. सच तो यह है कि फिल्म बनाने के बाद उसके वितरण और प्रदर्शन की समस्या फिल्मकारों के लिए हतोत्साहित करने वाली होती है. ऐसे में उम्मीद है कि ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ की सफलता नए वर्ष में स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए एक रोशनी साबित होगी.
पिछले दिनों यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई. निस्संदेह यह फिल्म समकालीन यथार्थ को दृश्य और ध्वनि के नए 'धूसर' मुहावरे में दर्शकों के सामने लाती है. फिल्मकार की दृष्टि, संवेदना और राजनीति यहाँ मुखर है. साथ ही संपादन और सिनेमेटोग्राफी भी उत्कृष्ट है.
मुंबई महानगर में हाशिए पर रहने वाली तीन कामकाजी स्त्रियाँ प्रभा, अनु और पार्वती इस फिल्म के केंद्र में है जो अपने हिस्से की रोशनी की तलाश में है. प्रभा और अनु जहाँ एक अस्पताल में नर्स है वहीं पार्वती उसी अस्पताल में रसोई संभालती है. तीनों स्त्रियों के आपसी संबंध एक वर्ग-चेतन दृष्टि से संचालित हैं. यहाँ पर क्षेत्रीयता और भाषाई राजनीति आड़े नहीं आती है. पहले हिस्से में फिल्म भावनात्मक रूप से जकड़ कर रखती है. प्रभा की भूमिका में कनी कुश्रुति का अभिनय बेहद प्रभावी है. एक लंबे अरसे के बाद परदे पर एक सशक्त स्त्री चरित्र उभर कर आया है.
प्रभा का पति लंबे अरसे से उससे अलग जर्मनी में रहता है. अपने पति से अलग रहते हुए प्रभा का एकाकीपन उसके चेहरे पर एक उदास शाम की तरह पैवस्त है, वहीं अनु सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ती हुई एक अल्हड़ नदी की तरह बहती चलती है और मुस्लिम लड़के से प्रेम करती है. हालांकि प्रेम संबंधों की परिणति के लिए सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं है. पार्वती वर्षों से मुंबई में रह रही है, पर अपने ‘घर’ को बचाने की जद्दोजहद से जूझती है.
मुंबई के फुटपाथ, अंधेरे बंद कमरे, बड़े बिल्डरों से अपने ठौर को बचाने का संघर्ष और दो युवा प्रेमियों के संबंधों के माध्यम से हम समकालीन यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं. फिल्म अपनी तरफ से कोई जवाब नहीं देती है, महज कुछ सवाल दर्शकों के लिए छोड़ जाती है.
उल्लेखनीय है कि इससे पहले पायल की डॉक्यूमेंट्री ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ भी कई पुरस्कारों को जीत चुकी है. भारतीय फिल्म टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की स्नातक पायल की इस फिल्म के कुछ दृश्य भी डॉक्यूमेंट्री शैली में रचे गए हैं. दर्शकों को माया नगरी की फंतासी से दूर रखते हुए फिल्मकार ने कहानी को समांतर सिनेमा की शैली में बुना पर मुहावरा अपना चुना है.
यह फिल्म कई स्तरों पर चलती है. कई मुद्दों (राजनीतिक भी), भाषाओं को साथ लेती हुई. इस अर्थ में फिल्म काफी महत्वाकांक्षी है. यह फिल्म वर्तमान समय में मौजूं है, पर इसे क्लासिक नहीं कहा जा सकता. हां, यह फिल्म पायल और युवा फिल्मकारों से काफी उम्मीदें जरूर जगाती है
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