श्याम बेनेगल (1934-2024): स्मृति शेष
समांतर सिनेमा आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्याम बेनेगल की ख्याति एक फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और वृत्तचित्र निर्माता के रूप में पूरी दुनिया में थी. पचास वर्षों की अपनी फिल्मी यात्रा में वे जीवनपर्यंत फिल्म निर्माण में सक्रिय रहे.
भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी उनकी आखिरी फिल्म ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण के दौरान और रिलीज होने के बाद मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी. जीवन से भरपूर वे एक कुशल शिक्षक की तरह थे, जिनसे आप सहजता से कोई भी सवाल पूछ सकते हैं. वर्ष 2006 में मैंने उनके साथ ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में मीडिया के ऊपर हुए एक सेमिनार में भाग लिया था. इस सेमिनार में उन्होंने हिंदी फ़िल्मों में विभाजन के चित्रण पर व्याख्यान दिया था.
वे सिनेमा को सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम मानते थे. उन्होंने मुझसे एक बातचीत के दौरान कहा था: 'मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोस, लोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.' इस वर्ष प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में उनकी चर्चित फिल्म ‘मंथन’ (1976) को क्लासिक खंड में दिखाया गया. बाद में जब देश के चुनिंदा सिनेमा घरों में बड़े परदे पर एक बार फिर से इसे रिलीज किया गया, तब दर्शकों का उत्साह देखते बना. सिनेमा में योगदान के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बेनेगल की फिल्में पीढ़ियों को आपस में जोड़ती और उनसे संवाद करती है. डेयरी सहकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द रची गई इस फिल्म में भारतीय ग्रामीण समाज में जातिगत विभेद उभर कर सामने आता है.
श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा. उनकी फिल्में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को समग्रता में समेटती है. आश्चर्य नहीं कि दूरदर्शन के लिए उन्होंने नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को निर्देशित किया था, जो काफी चर्चित रही थी.
बेनेगल की फिल्मी यात्रा के कई चरण रहे. पिछली सदी के 70 के दशक में ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘भूमिका’ जैसी फिल्में जहाँ सामाजिक यथार्थ और स्त्रियों की स्वतंत्रता के सवाल को समेटती है, वहीं ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’, ‘जुबैदा’ जैसी फिल्में मुस्लिम स्त्रियों के जीवन को केंद्र में रखती है. इस बीच उन्होंने जुनून, त्रिकाल जैसी फिल्म भी बनाई जो इतिहास को टटोलती है. फिर बाद में वे ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’, ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो’ जैसी ऐतिहासिक जीवनीपरक फिल्मों की ओर मुड़े, जिनमें उन्हें महारत हासिल रही. ‘मुजीब’ फिल्म इसी कड़ी में उनकी आखिरी फिल्म रही.
वे जोर देते हुए कहते थे कि ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है. साथ ही वे फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह करते थे कि ‘बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म ‘प्रोपगेंडा’ बन जाती है’. उनका यह कथन वर्तमान समय में राष्ट्रवादी विचारधारा की आड़ में बनने वाली प्रोपेगेंडा फिल्मों के लिए एक सीख की तरह है.
एनएसडी, एफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. उल्लेखनीय है कि बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर (1974) से ही शबाना आजमी ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा था. ‘मंडी’ फिल्म फिल्म में शबाना आजमी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, नीना गुप्ता, इला अरुण, अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों को परदे पर एक साथ दिखना किसी आश्चर्य से कम नहीं!
चिदानंद दासगुप्त ने अपने एक लेख में लिखा है: “बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति, चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन, क्राफ्ट्समैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं, जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.” बेनेगल की अधिकांश फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल रही. इस मायने में उनकी तुलना मलयालम फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन से ही की जा सकती है, जिनकी कला से सृंवृद्ध फिल्में ‘बाक्स ऑफिस’ पर भी सफल रही. फिल्म निर्माण का उनका तरीका और सौंदर्यबोध समांतर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल, कुमार शहानी आदि से साफ अलग रहा.
नई सदी में तकनीक क्रांति से सिनेमा निर्माण और दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. सिनेमा का क्या भविष्य है, यह पूछने पर बेनेगल ने मुझे कहा था कि सिनेमा का भविष्य तो है, पर आवश्यक नहीं कि हमने जैसा सोचा था वैसा ही हो!’ उन्होंने कहा था कि ‘सिनेमा को गढ़ने में इतिहास और तकनीक दोनों की ही भूमिका होती है. आप किस तरह सिनेमा देखते हैं, वह भी सिनेमा का भविष्य तय करेगा.’ आने वाले समय में सिनेमा चाहे जो रूप अख्तियार करे पर इसमें कोई शक नहीं कि जब तक सिनेमा है, उनकी फिल्में इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर हमारे बीच हमेशा मौजूद रहेगी.
No comments:
Post a Comment