Sunday, May 11, 2025

करुणा के चितेरे शाजी करुण


कुछ वर्ष पहले कन्नड़ सिनेमा के निर्देशक और समांतर सिनेमा के चर्चित फिल्मकार गिरीश कासारवल्ली से जब मैंने कान फिल्म समारोह में दिखाए जाने वाली फिल्मों के बाबत सवाल पूछा तब उन्होंने ‘पिरवी (द बर्थ 1989)’ फिल्म का नाम लिया था.


इस फिल्म के निर्देशक शाजी एन करुण (1952-2025) हैं, जिनका पिछले दिनों निधन हो गया. पुणे के फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित करुण की फिल्मी यात्रा एक सिनेमैटोग्राफर के रूप में शुरू हुई और जी अरविंदन के वे प्रमुख सहयोगी रहे. उल्लेखनीय है कि मलयालम न्यू वेब फिल्मकारों में अडूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, के जी जॉर्ज प्रमुख फिल्मकार रहे हैं.

समातंर सिनेमा के लिए 70 और 80 का दशक काफी मुफीद रहा था, जिसने विभिन्न भारतीय भाषाओं में हमें उत्कृष्ट फिल्में दिया. 80 के दशक के बाद यह धारा हालांकि कमजोर पड़ गई, पर कुछ फिल्मकारों की सिनेमा को एक कला माध्यम के रूप मे देखने-परखने की प्रतिबद्धता में कमी नहीं आई.

‘पिरवी’ फिल्म के साथ शाजी करुण ने एक निर्देशक के रूप में समांतर धारा के मलयालम चित्रपट पर सशक्त हस्तक्षेप किया था. पिछली सदी में आपातकाल के दौरान एक बेटे के कॉलेज हॉस्टल से लापता होने और एक पिता की अंतहीन प्रतीक्षा को जिस कलात्मक संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया है वह मार्मिक है. केरल का मानसून इस फिल्म में मानो एक पिता (प्रेमजी) की वेदना का रूपक है. इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले और कान समारोह के दौरान ‘कैमरा द ओर’ में फिल्म की खास तौर पर सराहना हुई थी. बिना किसी शोर के यह फिल्म मानवीय दुख और संत्रास को हमारे सामने लाती है और राजनीतिक-ऐतिहासिक विफलता को पूरी शिद्दत से रेखांकित करती है. पिता के किरदार में प्रेमजी की भावपूर्ण और ढूंढती आँखें फिल्म देखने वालों को देर तक कचोटती है.

पूरे करियर में हालांकि करुण ने बहुत कम फिल्में ही निर्देशित की, लेकिन ये फिल्में उन्हें विश्व सिनेमा के मंजे निर्देशकों की श्रेणी ला कर खड़ा करती हैं. कान फिल्म समारोह में उनकी दो अन्य फिल्में ‘सोहम (1994)’ और ‘वानप्रस्थम (1999)’ भी दिखाई गई थीं. प्रसंगवश, उनकी फिल्मोग्राफी में हिंदी में बनी ‘निषाद (2002)’ भी शामिल है.

स्थानीय भाषा और संस्कृति की भूमि पर खड़ी होकर उनकी फिल्में सही मायनों में भूमंडलीय है. बहरहाल, यहाँ पर हम अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित एक अन्य फिल्म ‘वानप्रस्थम’ की चर्चा करते हैं. यह फिल्म कथकली के एक कलाकार कुंजिकुट्टन के बहाने आजाद भारत में कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक (अ)स्वीकृति, तथाकथित निम्न जाति और उच्च जाति के बीच प्रेम, यथार्थ और मिथक के बीच कुशलता से आवाजाही करती है.

इस फिल्म का मुख्य स्वर करुणा है. एक तिस्कृत बालक और पिता के रूप में मोहन लाल (कुंजिकुट्टन) ने जिस सहजता और मार्मिकता से किरदार को निभाया है वह सबके बस की बात नहीं थी. एक कलाकार की त्रासदी हमें मंथती रहती है. करुण की फिल्मों का कथा-वृत्तांत जहाँ बांध कर रखता है वही, ध्वनि, कैमरा, संपादन और संगीत अलग से उल्लेखनीय है. करुण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर है, तो इसका कारण यही है. 

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