पिछले दो सौ वर्षों में हिंदी पत्रकारिता अनेक पड़ावों से गुजर कर यहां तक पहुँची है. जाहिर है उसके स्वरूप और अंतर्वस्तु में काफी परिवर्तन हुए हैं. कहा जा सकता है कि 21वीं सदी में ‘हिंदी पत्रकारिता के ठाठ’ अंग्रेजी के मुकाबले मजबूत हुए है और वह पिछलग्गू नहीं रही. जहां अंग्रेजी के पाठकों की संख्या स्थिर बनी है, वहीं डिजिटल मीडिया के दौर में भी हिंदी समाचार पत्रों के पाठक बढ़े हैं. साथ ही विज्ञापन का लाभ उसे काफी मिल रहा है. वर्तमान में पत्रकारिता का अधिकांश बाजारोन्मुखी है.
बहरहाल, हिंदी के पहले प्रकाशित पत्र का स्वरूप कैसा था उसे देखना रोचक है. अंग्रेजी में प्रकाशित ‘कैलकटा एडवटाइजर’ (1780) के प्रकाश ने 46 वर्ष बाद जब जुगल किशोर शुक्ल ने जब हिंदी को पहला साप्ताहिक समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ दिया तब एक प्राशकीय विज्ञप्ति ‘इस कागज के प्रकाशक का इश्तिहार’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुई, जिसके तहत लिखा था, “यह उदंत मार्तंड पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अँगरेजी ओ पारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है, उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओर पढ़ने वालों को ही होता है.”
कलकत्ते से प्रकाशित उदंत मार्त्तंड में देश-विदेश, गाँव-शहर, हाट-बाजार संबंधी सूचनाएँ, अफसरों की नियुक्तियाँ, इश्तहार, समाचार आदि प्रकाशित होती थीं. उदंत मार्त्तंड की खड़ी बोली शैली में लिखी हिंदी पर मध्यदेशीय भाषा का प्रभाव दिखता है. 30 मई 1926 को छपे पहले अंक में गवर्नर-जनरल बहादुर का सभावर्णन प्रकाशित हुआ था.
कुल 79 अंकों के प्रकाशन के बाद जब 4 दिसंबर 1827 को शुक्ल ने इसे सरकारी सहायता के अभाव और पाठकों के कमी के कारण बंद किया, तब बहुत व्यथित होकर उन्होंने अंतिम अंक के संपादकीय में लिखा: “आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त/अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अस्त”
हालांकि शुक्ल के ऊपर एक अन्य प्रकाशक ने मानहानि का मुकदमा दर्ज किया था, जो इसके बंद होने के तात्कालिक कारण थे.
उदंत मार्त्तंड की भाषा की परख यदि हम आज के पैमाने पर करें तो निस्संदेह उसमें व्याकरण, शब्द विन्यास, वाक्य संरचना की काफी त्रुटियाँ मिलती हैं. उसमें तोपें दगियाँ, हाजरी खाई, शोभनागार होके जैसे प्रयोग मिलते हैं. साथ ही आवेगा, जावेगा, देवेगा, होय, तोय का इस्तेमाल भी मिलता है। सेवाय, ऊसने, खलीती, मरती समय, खिलअतें, परंत, भेंट भवाई, सभों जैसे शब्द भी हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ लगाने में आज के दौर में हिंदी पढ़ने-समझने वालों को परेशानी होगी. फिर भी उदंत मार्तंड में खड़ी बोली हिंदी के आरंभिक रूप की झलक मिलती है, जिसका विकास आगे जाकर हुआ.
अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने उदंत मार्त्तंड की भाषा के प्रसंग में लिखा है: “जहाँ तक उदंत मार्त्तंड की भाषा का प्रश्न है, वह उस समय लिखी जाने वाली भाषा से हीन नहीं है. उसके संपादक बहुभाषाज्ञ थे...उदंत मार्तंड हिंदी का पहला समाचार पत्र होने पर भी भाषा और विचारों की दृष्टि से सुसंपादित पत्र था. ”
शुक्ल उत्तर प्रदेश के कानपुर से थे, जिन्होंने कलकत्ता को अपना कर्मभूमि बनाया था. खुद वे ब्रजभाषा, संस्कृत, खड़ी बोली, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषा के जानकार थे. इसका असर उदंत मार्तंड की भाषा पर भी दिखता है.

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