Sunday, October 26, 2025

एक मुकम्मल हास्य अभिनेता थे असरानी (1941-2025)

कभी-कभी किसी कलाकार या रचनाकार के व्यक्तित्व पर उनकी कोई एक कृति इतनी हावी हो जाती है कि सारा मूल्यांकन उसी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाता है. मशहूर अभिनेता असरानी के साथ यही हुआ. जयपुर में जन्मे असरानी ने अपने पचास साल के करियर में 350 से ज्यादा फिल्में की और विभिन्न तरह के किरदार निभाए पर शोले के जेलर’ का किरदार उनसे जीवनपर्यंत चिपका रहा. वे आम लोगों की निगाह में अंग्रेजों के जमाने के जेलर रहे.  पर क्या उसी दौर में बनी फिल्में मसलन,  अभिमान, चुपके-चुपके, छोटी सी बात,  बावर्ची, नमक हराम आदि में उनके किरदारों को भुलाया जा सकता है?

उनके निधन के बाद भी मुख्यधारा और सोशल मीडिया में शोले फिल्म की यही क्लिप वायरल रही. पिछले दिनों शोले फिल्म के पचास साल पूरे होने पर जब उन्होंने मीडिया से बातचीत की तो उन्होंने इस बात की रेखांकित किया वे पुणे फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के एक प्रशिक्षित अभिनेता रहे. जयपुर से स्नातक की परीक्षा पास कर उन्होंने पिछली सदी के साठ के शुरुआत वर्ष में एक्टिंग का प्रशिक्षण लिया था. इससे पहले से वे ऑल इंडिया रेडियो में बतौर वॉइस आर्टिस्ट से रूप से जुड़े थे.

बीबीसी से पिछले दिनों हुई बातचीत में उन्होंने कहा था कि फ़िल्म इंस्टीट्यूट पहुंचने के बाद पता चला कि एक्टिंग के पीछे मेथड होते हैं. ये प्रोफ़ेशन किसी साइंस की तरह है. आपको लैब में जाना पड़ेगाएक्सपेरिमेंट्स करने पड़ेंगे." मशहूर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी साथ उनकी जोड़ी चर्चित रही और उन्होंने से उन्हें एक्टिंग में प्रशिक्षण लेने की सलाह दी थी. मुखर्जी की मध्यमार्गी फिल्मों ने असरानी को चरित्र अभिनेता के रूप में उभरने का मौका दिया. मध्यवर्ग को संबोधित करती ये फिल्में पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है.

उन्होंने कहा था कि उन्हें समझ आया कि एक्टिंग में आउटर मेक-अप के अलावा इनर मेक-अप भी बहुत ज़रूरी है.

असरानी हास्य अभिनेता के रूप में उभरे और अपनी छोटी-छोटी भूमिकाओं में जान डाल दी. यहाँ पर बावर्ची फिल्म में बाबू के उनके किरदार को याद करना रोचक है. वह संगीत प्रेमी है हिंदी फिल्मों में संगीत देना चाहता है. वह विदेशी संगीतकारों के खजाने को सुनता रहता है ताकि उसे प्रेऱणा मिलती रह!  यह उस दौर के नकलची फिल्म संगीतकारों पर एक टिप्पणी भी है.

उनकी कॉमिक टाइमिंग जबरदस्त थी. उनके हास्य-बोध में फूहड़ता नहीं दिखती बल्कि एक गहरे मानवीय दृष्टि से यह संचालित रही. आज की ताज़ा खबरके लिए उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट कॉमेडियन अवॉर्ड था मिला थासहजता उनकी अदाकारी का हिस्सा रही.एक कुशल अभिनेता के साथ ही उन्होंने कुछ हिंदी और गुजराती फिल्मों का निर्देशन भी किया था.

जयपुर से शुरू हुई उनकी जीवन यात्रा मुंबई जाकर खत्म हुई, पर इस यात्रा में उन्होंने जो किरदार निभाए वह लोगों की यादों का हिस्सा बन गए. आज जब समाज और राजनीति में हास्यबोध कम हो रहा है, उनकी जरूरत ज्यादा महसूस की जा रही है. उनका हास्य सिर्फ हंसाने के लिए नहीं था. गहरे जा वह व्यंग्य की शक्ल अख्तियार कर लेता था जो हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति पर एक टिप्पणी होती थी.

Saturday, October 11, 2025

गोदावरी दत्त: लोक चित्रकला की शास्त्रीय गुरु

 
पेज 35-39
पेज-88-95
 
अविरल गोदावरी, संपादक अशोक कुमार सिन्हा, क्राफ्ट चौपाल, 2025 

 

 

Sunday, October 05, 2025

हमारे समय का दस्तावेज है ‘होमबाउंड’

कोरोना महामारी के दौरान टेलीविजन के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा कि हम उम्मीद करें कि कोई साहित्यकार हमारे समय की त्रासदी को शब्द देगा. साहित्य शब्दों के जरिए मानवीय भावों- प्रेम, हिंसा, सुख-दुख, पीड़ा और त्रासदियों को वाणी देता रहा है, वहीं सिनेमा बिंब (इमेज) और ध्वनि के माध्यम से. आगे बढ़ कर साहित्य और सिनेमा दोनों ही सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का सशक्त माध्यम भी है.

वर्ष 2020 में कोरोना लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें टेलीविजन और सोशल मीडिया के मार्फत सामने आईं, वे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए थी. मानवीय जिजीविषा, करुणा, संघर्ष, सामूहिकता और मानवीय सहयोग की तस्वीरों ने ‘देखने’ के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया.

पिछले दिनों नीरज घेवन के निर्देशन में रिलीज हुई फिल्म ‘होमबाउंड’ इन्हीं प्रवासी मजदूरों को केंद्र में रख कर हमारे समय, समाज और राजनीति को टटोलने की कोशिश करती है. भारत की ओर से इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार के भेजा गया है. लेखक-पत्रकार बशारत पीर के न्यूयॉर्क टाइम्स (2020) में छपे लेख ‘टेकिंग अमृत होम’ को यह फिल्म आधार बनाती है.

भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाले परिवारों, दो युवा चंदन (विशाल जेठवा) और शोएब (ईशान खट्टर) के सपनों, आकांक्षा और सामाजिक यथार्थ से संघर्ष को बिना किसी सजावट और बनावट के हम इस फिल्म में देखते हैं. मुख्यधारा की सिनेमा के परंपरागत मानकों के सहारे हम इन फिल्मों का रसास्वादन नहीं कर सकते. निर्देशक की कोई मंशा भी ऐसी नहीं कि वे मुख्यधारा की फिल्मों की लीक पर चले. हालांकि जाह्नवी कपूर सुधा के किरदार में मिसफिट लगती है. फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में किसी भी तरह का कोई योगदान इस किरदार का नहीं है.

बहरहाल, बचपन के दिनों के मित्र चंदन और शोएब को सामाजिक अस्वीकृति हर मोर्चे पर मिलती है. यह अस्वीकृति उनके सामाजिक पहचान से जुड़ी है. इन्हें लगता है कि सामाजिक स्वीकृति सत्ता (पुलिस) का हिस्सा बनने के बाद मिलेगी, पर क्या वह आसान है? जाति और संप्रदाय के साथ हो रहे भेदभाव से लिपटा हुआ सवाल बेरोजगारी का भी है.

पिछले पच्चीस साल में आर्थिक उदारीकरण का लाभ मुख्य रूप से मध्यवर्ग को मिला है, समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों के हिस्से, कुछ अपवाद को छोड़ कर, वंचना ही मिली है.

सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने की कोशिश नाकाम होते देख चंदन और शोएब सूरत के कपड़े मिल में मजदूरी करने पहुंचते हैं, लेकिन जब कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन होता है वे वापस घर लौटने को मजबूर होते हैं. पर क्या वे घर पहुंच पाते हैं? घर एक रूपक है यहाँ जिसका वितान समाज और राष्ट्र तक है. घर से समाज और फिर देश में दलित और मुस्लिम समुदाय की (अनु) उपस्थिति का सवाल भी है. जवाब क्षितिज पर दिखता नहीं, मौन का साम्राज्य फैला है.

जहाँ साहित्य में दलित विमर्श है, वहीं मुख्यधारा की फिल्मों में यह आज भी गायब है. इस फिल्म में दो युवाओं के बीच निश्छल प्रेम, सहयोग को बेहद मार्मिकता से रचा गया है. दस साल पहले आई घेवन की फिल्म ‘मसान’ एक अपवाद है, हालांकि यह फिल्म मसान की ऊंचाई को छू नहीं पाई है. कहीं-कहीं संवाद सहज नहीं हैं. सिनेमा की हिंदी (संवाद) और समाज में बरती जाने वाली हिंदी में इतना अंतर क्यों?

इससे पहले अनुभव सिन्हा ने ‘आर्टिकिल 15’ फिल्म में समाज और सत्ता से दलितों के चुभते सवाल पूछे थे. इस फिल्म में बिंबों का बेहद खूबसूरत इस्तेमाल किया गया था, लेकिन ‘होमबाउंड’ में ऐसे दृश्यों का सर्वथा अभाव है जो दर्शकों की स्मृति का हिस्सा बन कर लंबे समय तक रह सके. इस अर्थ में यह फिल्म एक काल खंड का महज दस्तावेज बन कर रह जाती है. मूल स्वर फिल्म का राजनीतिक है, पर कहीं भी सीधे-सीधे राजनीतिक टीका-टिप्पणी नहीं सुनाई पड़ती है. ऐसा क्यों?