Sunday, December 07, 2025

लल्ल दैद् को वाणी देतीं मीता वशिष्ठ

 

पिछले दिनों मीता वशिष्ठ अपने एकल नाटक, कश्मीर की चर्चित संत कवयित्री, ‘लल्ल दैद्’ को लेकर एक बार फिर मंच पर दिखीं. असल में, चौदहवीं सदी की इस कवयित्री की उत्तर भारत में उस रूप में चर्चा नहीं होती जिस तरह हम कबीर, सूर, तुलसी या मीरा की करते हैं. इसकी क्या वजह है?
यह पूछने पर कि आपने ‘लल्ला’ को ही अपने एकल अभिनय के लिए क्यों चुना, जबकि भक्त कवियों में दक्षिण में अंडाल या उत्तर में मीरा ज्यादा लोकप्रिय रही हैं? मीता कहती हैं कि ‘पिछले सात सौ वर्षों से लल्ल दैद् की कविता- ‘वाख’, कश्मीरी आम लोगों की जुबान में रची-बसी साझी संस्कृति का हिस्सा रही है. हिंदू और मुस्लिम समुदाय दोनों के बीच लल्ला की मौजूदगी रही है.’
साथ ही लल्ला की कविता में जो लय है उस पर वो जोर देती हैं. संत कवियों की तरह ही लल्ला की कविता में रहस्य और आत्मानुभूति दोनों मौजूद है. जीवन, योग, ईश्वर, आत्मा आदि उनके विषय रहे.
श्रुति परंपरा के रूप में लल्ला की कविता सैकड़ों वर्षों से लोगों का कंठाहार बनी रही. अपने एकल अभिनय में मीता ने लल्ला के जीवनवृत्त और उनकी कविता को मंच पर प्रस्तुत किया. एक साथ हिंदी, कश्मीरी और अंग्रेजी जुबान का प्रयोग मंच पर दिखा. कश्मीरी और हिंदी भाव प्रवाह में सहायक रही पर वहीं अंग्रेजी में जैसे ही वा
ख का पाठ मंच पर वह करती रसानुभूति में खलल पड़ता. साथ ही पटकथा में विस्तार का अभाव दिखा.
ब्राह्मण कुल में जन्मी लल्ला की शादी बारह वर्ष की उम्र में हो गई पर वह गृहस्थी के लिए नहीं बनी थी. भक्ति भाव और अध्यात्म में वह डूबी रहती थी. वह शिव की साधना के लिए मंदिर जाती थी. इसे घर-परिवार के लोग संशय से देखते थे और गार्हस्थ जीवन कलहपूर्ण रहा. 26 वर्ष की उम्र में वह घर छोड़ कर निकल गई और शैव संत सिद्ध श्रीकांत से अपना शिष्य बना लेने का आग्रह किया. दीक्षा के बाद वह संन्यासी बन गई और अकेले ही साधना के मार्ग पर चल पड़ी. जाहिर है उस दौर में एक स्त्री के लिए यह आसान नहीं था, आज भी नहीं है! उन्हें तरह-तरह का तिरस्कार झेलना पड़ा जिसे उन्होंने अपने बाख में वर्णन किया है.
उन्होंने अपने एक वाख में लिखा है कि ‘उन्हें हजार गालियों मुझे देने दो, मेरे दिल में इसके लिए कोई जगह नहीं है. मैं शिव की हूँ. क्या राख से शीशे को कोई क्षति पहुंचती है? उसकी चमक और बढ़ ही जाती है.’
जैसा कि कबीर की कविता में कहत कबीर या संत तुकाराम की कविता में तुकाराम का उल्लेख मिलता है उसी तरह लल्ला अपनी कविताओं मौजूद हैं 'मैं लल्ला' के रूप में.
लल्ला की कविताओं में संस्कृत और फारसी का मेल है. साथ ही सिद्ध और नाथ साहित्य परंपरा का विकास दिखाई देता है. पर उनके दोहे में जो अनुभूति व्यक्त हुई है वह निजी है, नया है. एक वाख में वह कहती हैं: मन नया है/चाँद नया है/ जल का विशाल विस्तार नया है/ मैं लल्ला एक नई घटना हूँ.
आज के समय में हिंसा के बीच कश्मीरी अस्मिता को भी नएपन की जरूरत है!