Monday, December 22, 2025
Sunday, December 21, 2025
द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली: नागरिक राष्ट्रवाद की अनुगूंज
फ्रेंच फिल्मकार जां रेनुआ ने कहा था कि ‘सिनेमा की शब्दावली में ‘कमर्शियल’ फिल्म वह नहीं होती जो पैसा कमाए, बल्कि वह फ़िल्म होती है जिसकी कल्पना और निर्माण व्यवसायी के मानदंडों के अनुसार किया गया हो.’ सुर्खियां ओर बॉक्स ऑफिस पर पैसे बटोर रही आदित्य धर की फिल्म ‘धुरंधर’ देखते हुए यह बात मन में आती रही.
भारत और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में अति राष्ट्रवाद, हिंसा, जासूसी के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म में पिछले दो दशक में घटी आतंकवादी घटनाओं का इतिवृत्त मिलता है पर कल्पना और यथार्थ का घालमेल है. यहां कला कम, राजनीतिक स्वर ज्यादा स्पष्ट हैं. लेकिन जैसा कि कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा है: जो नहीं है/ जैसे कि ‘सुरुचि’/उसका ग़म क्या?
'घर में घुस कर मारने' की बात करने के वाली, 'धुरंधर' के साथ ‘द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली’ का होना सुखद है, जो पिछले दिनों ही जियो-हॉट स्टार प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हुई. स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए आज भी वितरण बड़ी समस्या बनी हुई है. बहरहाल, पंद्रह वर्ष पहले ‘पीपली लाइव’ फिल्म से चर्चा में आई अनुषा रिजवी की यह फिल्म धुरंधर के साफ विपरीत है. यहाँ प्रोपगैंडा नहीं है, बल्कि नागरिक राष्ट्रवाद की अनुगूंज है. सब लोग साथ-साथ मिल जुल कर रह सकते हैं, फल-फूल सकते हैं. परेशानियों के बावजूद जहाँ चांदनी रात में ‘बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक/हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक’ गुनगुनाया जा सकता है.
यहाँ राष्ट्र में जो उठा-पठक चल रहा है उसे घर के अंदर चल रहे ‘ड्रामे’ से जोर कर देखा गया है. घर के अंदर एक युवा जोड़े की शादी का तनाव है क्योंकि दोनों के धर्म अलग हैं. पर इसे मनोरंजक तरीके से हल्के-फुल्के अंदाज में परोसा गया है, एक बहाव में हम कहानी से साथ आगे बढ़ते हैं. ऐसा लगता है कि हुमायूं का मकबरा चश्मदीद की तरह समकालीन समय को परख रहा है और कह रहा है कि यह समय भी बीत जाएगा!
किस्सागोई शैली में बुनी गई इस फिल्म में महज एक दिन की कहानी है जो दक्षिण दिल्ली के एक घर के अंदर घटित होती है. केंद्र में दिल्ली का एक उच्च मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार है. जहाँ ‘धुरंधर’ में स्त्री पात्रों के लिए जगह बेहद कम है, वहीं शम्सुद्दीन परिवार में स्त्रियों का जोर है.
बानी जो कि एक लेखिका है, अपने लिए विदेश में अवसर ढूंढ़ रही है. ‘डेडलाइन’ का दबाव उसके सिर पर है, पर एक के बाद एक ‘अतिथि’ उसके घर आते जा रहे हैं. दो पीढ़ियों की नोंक-झोंक या जुगलबंदी के बीच बात से बात निकलती चलती है. यहाँ शादी, प्रेम, तलाक की बातचीत बेहद सहज है, हालांकि जो सहज नहीं है वह है एक लेखक के अंदर का डर कि कौन सी बात किसे बुरी लग जाएगी? क्या लिखा जाए, क्या नहीं? और यहीं पर यह फिल्म प्रभावी हो उठती है कि अभिव्यक्ति की आजादी न हो तो फिर लोकतंत्र के क्या मायने रह जाएँगे? महज डेढ़ घंटे फिल्म में कई गैप्स हैं, जिसे दर्शकों की उम्मीद के सहारे भरने, सोचने-विचारने के लिए छोड़ दिया गया है.
Sunday, December 07, 2025
लल्ल दैद् को वाणी देतीं मीता वशिष्ठ
यह पूछने पर कि आपने ‘लल्ला’ को ही अपने एकल अभिनय के लिए क्यों चुना, जबकि भक्त कवियों में दक्षिण में अंडाल या उत्तर में मीरा ज्यादा लोकप्रिय रही हैं? मीता कहती हैं कि ‘पिछले सात सौ वर्षों से लल्ल दैद् की कविता- ‘वाख’, कश्मीरी आम लोगों की जुबान में रची-बसी साझी संस्कृति का हिस्सा रही है. हिंदू और मुस्लिम समुदाय दोनों के बीच लल्ला की मौजूदगी रही है.’
साथ ही लल्ला की कविता में जो लय है उस पर वो जोर देती हैं. संत कवियों की तरह ही लल्ला की कविता में रहस्य और आत्मानुभूति दोनों मौजूद है. जीवन, योग, ईश्वर, आत्मा आदि उनके विषय रहे.
श्रुति परंपरा के रूप में लल्ला की कविता सैकड़ों वर्षों से लोगों का कंठाहार बनी रही. अपने एकल अभिनय में मीता ने लल्ला के जीवनवृत्त और उनकी कविता को मंच पर प्रस्तुत किया. एक साथ हिंदी, कश्मीरी और अंग्रेजी जुबान का प्रयोग मंच पर दिखा. कश्मीरी और हिंदी भाव प्रवाह में सहायक रही पर वहीं अंग्रेजी में जैसे ही वा
ख का पाठ मंच पर वह करती रसानुभूति में खलल पड़ता. साथ ही पटकथा में विस्तार का अभाव दिखा.
ख का पाठ मंच पर वह करती रसानुभूति में खलल पड़ता. साथ ही पटकथा में विस्तार का अभाव दिखा.
ब्राह्मण कुल में जन्मी लल्ला की शादी बारह वर्ष की उम्र में हो गई पर वह गृहस्थी के लिए नहीं बनी थी. भक्ति भाव और अध्यात्म में वह डूबी रहती थी. वह शिव की साधना के लिए मंदिर जाती थी. इसे घर-परिवार के लोग संशय से देखते थे और गार्हस्थ जीवन कलहपूर्ण रहा. 26 वर्ष की उम्र में वह घर छोड़ कर निकल गई और शैव संत सिद्ध श्रीकांत से अपना शिष्य बना लेने का आग्रह किया. दीक्षा के बाद वह संन्यासी बन गई और अकेले ही साधना के मार्ग पर चल पड़ी. जाहिर है उस दौर में एक स्त्री के लिए यह आसान नहीं था, आज भी नहीं है! उन्हें तरह-तरह का तिरस्कार झेलना पड़ा जिसे उन्होंने अपने बाख में वर्णन किया है.
उन्होंने अपने एक वाख में लिखा है कि ‘उन्हें हजार गालियों मुझे देने दो, मेरे दिल में इसके लिए कोई जगह नहीं है. मैं शिव की हूँ. क्या राख से शीशे को कोई क्षति पहुंचती है? उसकी चमक और बढ़ ही जाती है.’
जैसा कि कबीर की कविता में कहत कबीर या संत तुकाराम की कविता में तुकाराम का उल्लेख मिलता है उसी तरह लल्ला अपनी कविताओं मौजूद हैं 'मैं लल्ला' के रूप में.
लल्ला की कविताओं में संस्कृत और फारसी का मेल है. साथ ही सिद्ध और नाथ साहित्य परंपरा का विकास दिखाई देता है. पर उनके दोहे में जो अनुभूति व्यक्त हुई है वह निजी है, नया है. एक वाख में वह कहती हैं: मन नया है/चाँद नया है/ जल का विशाल विस्तार नया है/ मैं लल्ला एक नई घटना हूँ.
आज के समय में हिंसा के बीच कश्मीरी अस्मिता को भी नएपन की जरूरत है!
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