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Saturday, July 01, 2023

आलोकधन्वा से बातचीत: कवि नहीं होते तो नेता तो हम कभी नहीं होते

 


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा दो जुलाई को जीवन के 75 साल पूरे कर रहे हैं. हिंदी में कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच उनके जैसी मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैं, पर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. इस किताब को छपे भी पच्चीस साल हो गए. उनकी छिटपुट कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. उम्मीद है कि इस साल उनका दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होगा.

 

वर्ष 1972 में फिलहालऔर वामपत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टरऔर जनता का आदमीप्रकाशित हुई थी. उस दौर में देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज थी. लोगों ने एक अलग भाषा-शैली, प्रतिरोध की चेतना उनकी कविताओं में पाया. बाद में उनकी भागी हुई लड़कियाँ’,’ ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते’, ‘सफेद रातजैसी कविताएँ काफी चर्चित रही. कॉलेज के दिनों से ही मैं आलोकधन्वा की कविता का पाठक रहा हूँ. इन वर्षों में गाहे-बगाहे उनसे बात-मुलाकात होती रही है. उनसे हुई बातचीत का एक संपादित अंश प्रस्तुत है:

 

# आपकी शुरुआती कविताएं जब छपी उस समय देश में वाम आंदोलनों का जोर था. क्या आपकी कविता इन आंदोलनों की उपज है?

 

हां, हम लोग उस समय वाम आंदोलन में थे. जब फिलहाल में मेरी कविता छपी उस वक्त जय प्रकाश नारायण पटना आए थे. उनकी पहली मीटिंग जो पटना यूनिवर्सिटी में हुई उसमें मैं वहाँ मौजूद था. जय प्रकाश नारायण बड़े देशभक्त थे. जेपी, लोहिया, नेहरू सब बहुत विद्वान लोग थे. आजादी की लड़ाई के दौरान जो मूल्य थे, उन्हीं से हम नैतिक रूप से संपन्न हुए. हमारे लिए पार्टी से ज्यादा वैल्यू महत्वपूर्ण था. मैंने वर्ष 1973 में पटना छोड़ दिया था. 1974 में जेपी का आंदोलन शुरु हो गया.

 

# आपने मीर के ऊपर कविता लिखी है (मीर पर बातें करो/तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं/ जितने मीर). मीर के अलावे कौन आपके प्रिय कवि रहे हैं?

 

कवि के व्यक्तित्व के अनुरूप ही अन्य कवि उसके प्रिय होते हैं. मीर हमारे प्रिय कवि हैं. कबीर भक्तिकालीन कवियों में बहुत उच्च कवि हैं. यदि आप पूछेंगे कि सूरदास कैसे थे, तो मैं कहूंगा कि अद्भुत थे. इसी तरह संत तुकाराम, चंडीदास बड़े कवि थे. यह कहना बड़ा मुश्किल है, कौन बड़े और प्रिय कवि हैं. आजकल तुलसी की दो पंक्तियों को लेकर उनकी आलोचना होती है, जिससे मैं सहमत नहीं हूँ. जो यह लिखता है- परहित सरिस धरम नहीं कोऊ’, उसकी अच्छाई को हम साथ क्यों नहीं लें? आजकल लोग प्रेमचंद की कहानी कफनपर भी सवाल उठाते हैं. उन पर हमला करते हैं. जो लोग हमला करते हैं असल में वे पढ़ते नहीं हैं. लोग नेहरू, जेपी पर भी हमला बोलते हैं.

# आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. देश में सांस्कृतिक-राजनीतिक माहौल के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

 

आज के वातावरण के ऊपर मुझे कुछ नहीं कहना, आप बेहतर जानते हैं. मेरा सिर्फ यह कहना है कि भारत ने अपने अस्तित्व के लिए जो संघर्ष किया उसमें जो सबसे अच्छा रास्ता है उसे चुने. उस रास्ते में बहुत बड़े नेता हुए हैं, उन्हें छोड़ कर अमृत महोत्सव मनाने का क्या मतलब? आप गाँधी, नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाष चंद्र बोस, पटेल को छोड़ नहीं सकते. भारत में लोकतंत्र की ऊंचाई किसी के चाहने से नष्ट नहीं होगी.

 

# आपने हाल ही में एक कविता में लिखा है कि अगर भारत का विभाजन नहीं होता तो हम बेहतर कवि होते’...

 

हां, मैं विभाजन से सहमत नहीं हूँ. मैं मानता हूँ कि वह एक जख्म है. मैंने बलराज साहनी पर एक कविता लिखी है. वह रेखाचित्र है. इसमें रे हैं, ऋत्विक घटक हैं. ये सब विभाजन से प्रभावित थे.

 

# आपकी बाद की कविताओं में स्मृति, नॉस्टेलजिया की एक बड़ी भूमिका है. जैसे एक जमाने की कवितामें आपने अपनी माँ को याद किया है. इसे पढ़कर मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थे?

 

स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थी, जिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. माँ तो सिर्फ एक मेरी नहीं है. जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा है, अपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है.

 

# एक और कविता का जिक्र करना चाहूँगा. आपने लिखा है-हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर की ओर जाती है/ सीटी बजाती हुई/ धुआं उड़ाती हुई...

 

रेल मेरे बचपन की स्मृतियों में है और मेरी संवेदनाओं का हिस्सा है. मैं बिहार से गहरे जुड़ा हूँ. मुंगेर से जमालपुर को जो ट्रेन जाती थी- कुली गाड़ी, तो उसमें हम सफर करते थे. वह सीटी बजाती और धुआं उड़ाती जाती थी. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ पाया जाता है. चाहे वह विद्यापति हो, रिल्के हो या नेरुदा.

 

# आपकी कविताओं में सिनेमा के बिंब अक्सर आते हैं, इसका स्रोत क्या है?

 

नाटक और सिनेमा हमारे जीवन का एक बड़ा हिस्सा है. सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. फणीश्वरनाथ रेणुहमारे गुरु थे. सिनेमा हमारे जीवन का अभिन्न अंग है. सिनेमा ने कथा-कहानी सबको समाहित किया है. आधुनिक काल में बड़ी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी. सिनेमा एक डायनेमिक मीडियम है. सत्यजीत रे ने विभूति भूषण के साहित्य पर फिल्म बनाई.

 

# यदि आप कवि नहीं होते तो क्या होते?

 

(हँसते हुए) यदि कवि नहीं होते तो नेता तो हम कभी नहीं होते. नेता का गुण नहीं है मुझमें. कवि का गुण है मुझमें थोड़ा. हिंदी में कविता के पाठकों का विशाल वर्ग है. जिन पाठकों ने निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय को पढ़ा वे मुझे भी पढ़ते हैं.

(मधुमती पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित, 68-69 पेज)

Wednesday, August 03, 2022

अमृतकाल में जनता के कवि आलोकधन्वा


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा जीवन के 75वें वर्ष में हैं. कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच इस कदर मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैंपर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. सच तो यह है कि इस किताब को छपे भी करीब पच्चीस साल हो गए.

वर्ष 1972 में फिलहाल और वाम पत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टर’ और जनता का आदमी प्रकाशित हुई थी. राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर आधारित फिलहाल पत्रिका खुद वर्ष 1972 में ही प्रकाश में आई थी. इस पत्रिका के संपादक वीर भारत तलवार थेजो उन दिनों पटना में रह कर वाम आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट थे. उनकी कविता की भाषा-शैलीआक्रामकता और तेवर को लोगों ने तुरंत नोटिस कर लिया था. 70 का दशक देश और दुनिया में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था.

आजादी के बीस साल बाद देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की गूंज उठी थी. युवाओं में सत्ता और व्यवस्था के प्रति जबरदस्त आक्रोश था. साथ ही सत्ता का दमन भी चरम पर था. सिनेमा में इसकी अभिव्यक्ति मृणाल सेन अपनी कलकत्ता त्रयी फिल्मों में कर रहे थे. भारतीय भाषाओं के साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज पहुँच रही थी. आलोकधन्वापाश (पंजाबी), वरवर राव (तेलुगू) जैसे कवि अपनी धारदार लेखनी से युवाओं का स्वर बन रहे थे. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब नक्सलबाड़ी के दौर में लिखा है: ‘आलोक की कविता में बेचैनी भरी संवेदनशीलता के साथ प्रतिरोध भाव और आक्रामक मुद्रा होती थी. वाणी में ओजस्वितारूप विधान में कुछ भव्यता और शैली में कुछ नाटकीयता होती थी.’ गोली दागो पोस्टर में वे लिखते हैं:

यह कविता नहीं है

यह गोली दागने की समझ है

जो तमाम क़लम चलानेवालों को

तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है.

इसी कम्र में भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते जैसी उनकी कविताएँ काफी चर्चित हुई थी. भागी हुई लड़कियाँ कविता सामंती समाज में प्रेम जैसे कोमल भाव को अपनी पूरी विद्रूपता के साथ उजागर करती है.

आलोकधन्वा की कविताओं में एक तरफ स्पष्ट राजनीतिक स्वर हैजो काफी मुखर है, वहीं प्रेमकरुणास्मृति जैसे भाव हैं जो उनकी कविताओं को जड़ों से जोड़ती हैं. महज चार पंक्तियों की रेल शीर्षक कविता में हर प्रवासी मन की पीड़ा है. एक नॉस्टेलजिया हैजड़ों की ओर लौटने की चाह है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है

जो माँ के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई

धुआँ उड़ाती हुई.

इसी तरह एक और उनकी रचना हैएक जमाने की कविता. आलोकधन्वा ने लिखा है:

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती

गुनगुनाती रहती

हम माँ को तंग करते

उसे दुल्हन कहते

माँ तंग नहीं होती

बल्कि नया गुड़ देती

गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते.

एक ज़माने की कविता’ पढ़ते हुए मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. एक बार मैंने उनसे पूछा था क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थेउन्होंने कहा- "स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थीजिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. अब माँ तो सिर्फ एक मेरी ही नहीं है. भावुकता स्वाभाविक है.

फिर मैंने पूछा कि क्या यह नॉस्टेलजिया नहीं हैतब उन्होंने जवाब दिया कि नहींयह महज नॉस्टेलजिया नहीं है. आलोकधन्वा ने कहा कि जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा हैअपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ मिलता है. चाहे वह विद्यापति होरिल्के हो या नेरुदा.

आलोकधन्वा की कविता में जीवन का राग हैलेकिन यह राग उनके जीवन के अमृत काल में भी विडंबना बोध के साथ उजागर होता है. हाल ही में साहित्य वार्षिकी (इंडिया टुडे) पत्रिका में छपी उनकी ये पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती है:

अगर भारत का विभाजन नहीं होता

तो हम बेहतर कवि होते

बार-बार बारुद से झुलसते कत्लगाहों को पार करते हुए

हम विडंबनाओं के कवि बनकर रह गए.

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. आजादी के साथ देश विभाजन की विभीषिका लिपटी हुई चली आई थीउस त्रासदी का दंश आज भी कवि भोग रहा है.

आलोकधन्वा कविता पाठ करते हुए अक्सर इसरार करते हैं कि ताली मत बजाइएगा’. उनकी कविताएँ मेहनतकश जनता की कविताएँ हैं, यहाँ जीवनसंघर्ष और प्रतिरोध समानार्थक हैं.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Monday, October 25, 2021

कल और आज के शायर साहिर

 

वर्षों पहले गुलजार ने कहा था कि सिनेमा वाले मुझे साहित्य का आदमी समझते हैं और साहित्य वाले सिनेमा का’. साहिर लुधियानवी (1921-1980) के साथ ऐसा नहीं है. वे सिनेमा और साहित्य दोनों दुनिया में एक साथ समादृत रहे हैं. वे जितने अच्छे शायर थे उतने ही चर्चित गीतकार. पिछले दिनों अर्जुमंद आरा और रविकांत के संपादन में जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ ने  साहिर लुधियानवी जन्मशती विशेषांक प्रकाशित किया है जो यह इस बात की ताकीद करता है. खुद साहिर इस बात से वाकिफ थे कि साहित्य क्षेत्र में फिल्मी साहित्य को लेकर अच्छी राय नहीं हैइसलिए उन्होंने फिल्मी गीतों के संकलन गाता जाये बंजारा की भूमिका में लिखा है: मेरा सदैव प्रयास रहा है कि यथासंभव फिल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के निकट ला सकूँ और इस प्रकार नये सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को जन-साधरण तक पहुँचा सकूं.  साहिर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे और प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे. उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर नजर डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मजलूमों, मखलूकों के साथ थे अपने काव्य और जीवन में.

खुद वे अपने ऊपर फैज, मजाज, इकबाल आदि की शायरी के असर की बात स्वीकार करते थे. इस विशेषांक में अतहर फारुकी ने नोट किया है कि उर्दू शायरी के अवामी प्रसार में, यानी अवाम के साहित्यक आस्वादन को बेहतरीन शायरी से परिचित कराने में साहिर लुधियानवी फैज से भी आगे निकल जाते हैं.’ हो सकता है कि इसमें अतिशयोक्ति लगे पर यह स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि उनकी रोमांटिक शायरी फिल्मी गीतों का अंग बन कर, रेडियो, कैसेट और अब यू-टयूब जैसे माध्यमों से होकर देश और दुनिया के बड़े हिस्से तक पहुँची.

आजाद हिंदुस्तान के दस साल बाद प्यासा (1957) फिल्म के लिए लिखा उनका गाना समाज में व्याप्त विघटन और मूल्यहीनता को दर्शाता है, जो आज भी मौजू है.

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया

ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया

ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

इसी फिल्म वे पूछते हैंजिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं. साहिर ने 1948 में पहला फिल्मी गीत (बदल रही है जिंदगी, फिल्म-आजादी की राह पर) लिखा और सौ से ज्यादा फिल्मों में करीब 800 गाने लिखे. उनके इस सफर पर एक नजर डालने पर स्पष्ट है कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ उनके गानों में बखूबी व्यक्त हुई. 

हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. गानों के माध्यम से कहानियाँ आगे बढ़ती है जिसमें किरदारों के मनोभाव व्यक्त होते हैं पर साहिर, शैलैंद्र जैसे शायर रूपकों, बिंबों के माध्यम से आजाद भारत के आस-पड़ोस की घटनाओं, देश-विदेश की हलचलों को भी बयान करते हैं. सच तो यह है कि फिल्मी गानों को आधार बना कर आधुनिक भारत की राजनीति और इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है.

पिछले सदी के साठ का दशक देश के लिए काफी उथल-पुथल भरा रहा था. इसी दशक में चीन और पाकिस्तान के साथ भारत ने युद्ध लड़ा था. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत हुई थी. हरित क्रांति के बीज इसी दशक में बोये गए थे. निराशा और उम्मीद के बीच साहिर ने आदमी और इंसान (1969) फिल्म में लिखा:

फूटेगा मोती बनके अपना पसीना

दुनिया की कौमें हमसे सीखेंगी जीना

चमकेगा देश हमारा मेरे साथी रे

आंखों में कल का नजारा मेरे साथी रे

कल का हिदुंस्तान जमाना देखेगा

जागेगा इंसान जमाना देखेगा

समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न और सामाजिक न्याय साहिर के मूल सरोकार रहे हैं जिसे संपादक अर्जुमंद आरा ने साहिर के सरोकार लेख में रेखांकित किया है. अब्दुल हई साहिर लुधियानवी की प्रसिद्धि फिल्मी गानों से पहले उनके काव्य संग्रह तल्खियाँ (1944) से फैल चुकी थी. साहिर की मौत से पहले रिलीज हुई कभी-कभी (1976) फिल्म के गानों ने उनकी शोहरत में और भी तारे टांके. पैतालिस साल के बाद भी उनका लिखा युवाओं के लब पर है. --

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँ ही

उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूँ ही

मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही...

यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि असल में यह गाना उनके पहले काव्य संग्रह तल्खियाँ में संकलित है जिसका सरल रूप गाने में इस्तेमाल किया गया. इस गीत के लिए उन्हें दूसरा फिल्म फेयर पुरस्कार मिला (पहला फिल्म फेयर पुरस्कार ताजमहल फिल्म के गाने जो वाद किया के लिए). इस गाने में नॉस्टेलजिया है और बीते जमाने की तस्वीर  है. इसे देश में लगे आपातकाल (1975) की पृष्ठभूमि में भी सुना समझा जा सकता है.

पत्रिका के संपादकों ने बिलकुल ठीक लिखा है कि साहिर साहब सिर्फ किताबी अदब के नहीं थे, सिनेमा, ग्रामोफोन, कैसेट और रेडियो के भी उतने ही थे, जितने मुशायरों और महफिलों के, जितने हिंदी के उतने ही उर्दू के, जितने हिंदुस्तान के उतने ही पाकिस्तान के, और जितने कल के उतने ही आज के.”  

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)