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Saturday, June 30, 2018

एक कवि जो चौकीदार है

उमेश पासवान
यदि किसी कवि से बात करनी हो और आपके पास उनका नंबर नहीं हो तो आप क्या करेंगे? आप प्रकाशक को फोन करेंगे, अकादमी से नंबर मांगेंगे.

पर क्या आप मानेंगे कि मैंने थाने में फोन किया और एक कवि का नंबर मांगा.

सच तो यह है कि पहले मैंने साहित्य अकादमी को ही फोन किया था जिसने इस कवि को उसकी कविता पुस्तक वर्णित रस के लिए मैथिली भाषा में इस वर्ष (2018) का साहित्य अकादमी 'युवा साहित्य पुरस्कार' के लिए चयन किया है. पर उनके पास नंबर नहीं था.

मधुबनी जिले के लौकही थाना प्रभारी ने ख़ुशी-ख़ुशी मुझसे उस कवि का नंबर शेयर किया. असल में पेशे से चौकीदार उमेश पासवान इस थाने में कार्यरत हैं. पर जब आप बात करेंगे तो ऐसा नहीं लगेगा कि आप किसी पुलिसवाले से बात कर रहे हैं. शुद्ध मैथिली में उनसे हुई बातचीत का सुख एक कवि से हुई बातचीत का ही सुख है. हालांकि वे कहते हैं कि उनके लिए कविता अपनी पीड़ा को कागज पर उतारने का जरिया है.

कबीर के बारे में प्रधानमंत्री मोदी बोल रहे थे कि कैसे उनके लिए कविता जीवन-यापन से जुड़ी हुई थी. ठीक यही बात युवा कवि उमेश पासवान कहते हैं. वे कहते हैं कि चौकीदार थाने के लिए आँख का काम करता है. उनका कहना है- मैं गाँव-गाँव जाकर जानकारी इकट्ठा करता हूँ और इस क्रम में उनके सुख-दुख, आशा-अभिलाषा का भागीदार भी बनता हूँ. खेत-खलिहान, घर-समाज का दुख, कुरीति, भेदभाव, लोगों की पीड़ा मेरी कविता की भूमि है.

उनकी एक कविता है- गवहा संक्राति. सितंबर-अक्टूबर महीने में मिथिला में किसान धान के कटने के बाद खेत में उपज बढ़ाने के निमित्त इस पर्व को मनाते हैं. पर भुतही, बिहुल और कमला-बलान नदी में आने वाली बाढ़ की त्रासदी में इस इलाके में पर्व-त्योहार की लालसा एक किसान के लिए हमेशा छलावा साबित होती है. वे इस कविता में लिखते है:

बड़ अनुचित भेल/गृहस्त सबहक संग ऐबेर/खेती मे लगाल खर्चा/ मेहनति-मजदुरी/ सभ बाढ़िंक चपेटि मे चलि गेल/ पावनि-तिहार में सेहन्ता लगले रहि गेल

(बड़ा अनुचित हुआ/ इस बार गृहस्थ सबके साथ/ खेती में लगा खर्च/ मेहनत-मजदूरी/ सब बाढ़ के चपेट में चला गया/ पर्व-त्योहार की अभिलाषा लगी ही रह गई)

आगे वे लिखते हैं कि किस तरह किसान खेत में जाकर सेर के बराबर/ उखड़ि के जैसा बीट’/ समाठ के जैसा सिसकी बात करेंगे?

साहित्य अकादमी के इतिहास में मेरी जानकारी में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी दलित को मैथिली भाषा में पुरस्कार मिला है.

यह पूछने पर कि क्या आपको इस बात की अपेक्षा थी कि कभी साहित्य अकादमी मिल सकता है? उमेश कहते हैं- नहीं, मुझे आश्चर्य हुआ. मेरे घर-परिवार के लोग अकादमी को नहीं जानते. जब मैंने इस पुरस्कार के बारे में अपनी माँ से कहा तो पहला सवाल उन्होंने किया कि इसमें पैसा मिलता है या देना पड़ता है?’

उमेश ने पुरस्कार में मिलने वाली राशि को शहीदों के बच्चों के निमित्त जमा करने का निर्णय लिया है.

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिया गया, पर दुर्भाग्यवश मैथिली भाषा-साहित्य में ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की उपस्थिति ही सब जगह नजर आती है जबकि पूरे मिथिला भू-भाग में यह बोली ओर समझी जाती रही है.

ऐसा नहीं कि मैथिली में अन्य जाति, समुदाय से आने वाले सक्षम कवि-लेखक नहीं हुए हैं. दुसाध समुदाय से ही आने वाले विलट पासवान बिहंगमकी कविता को लोग आज भी याद करते हैं. पर जब पुरस्कार देने की बात आती है तो इनके हिस्से नील बट्टा सन्नाटा आता है.

उमेश कहते हैं इसके लिए आप पुरस्कार समिति या ज्यूरी से पूछिए और देखिए कि उसमें प्रतिनिधि किनका है? वे मैथिली के प्रचार-प्रसार की बात करते हैं और कहते हैं कि मैथिली को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम बनाए जाने की आवश्यकता है.

उमेश कहते हैं कि मेरे घर में पढ़ने-लिखने का माहौल नहीं था, पर पिताजी चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ… वर्ष 2008 में पिताजी की मृत्यु के बाद मुझे अनुकंपा के आधार पर थाने में चौकीदारी मिल गई. अब मैं अपने सपनों को कविता के माध्यम से जीता हूँ.” 


(लल्लन टॉप वेबसाइट पर प्रकाशित)