Thursday, September 20, 2007

एक संपूर्णता के लिए

घुघुआ मना उपजे घना’ गाते-झूलते हुए सुनी दादी-नानी की कहानी अब याद नहीं। याद हैं उनके जीवनानुभव जो उन्होंने भोगे थे। माँ ने कभी कहानी नहीं सुनाई। शायद उनके पास उन अनुभवों का अभाव था जो कहानी कहने के लिए जरूरी होता है, या संभव है कि अपने अनुभवों को हमसे बाँटना उचित न समझा हो। बहरहाल, कविता-कहानी से जुड़ाव छुटपन में ही हो गया था। बड़े भाई साहित्य के छात्र थे। जिस साल मैंने गाँव से दसवीं पास किया उसी साल उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टीयों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

जहाँ से मैं ने एम.ए किया वहाँ कहानी पढ़ाने के नाम पर लीपा-पोती का काम ज्यादा हुआ। वैसे भी कहानी के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है कि कहानी पढ़ाने की नहीं, पढ़ने की चीज है। और छात्रों को खुद पढ़ लेने की ‘नेक’ सलाह अधिकांश शिक्षक दिया करते हैं। कुछ साल पहले जब मैं ने जेएनयू में एम. फिल हिन्दी में दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते हैं कि छात्रों की रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे । विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते हैं। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता है। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते हैं, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते हैं। फिर भी तलवार इस बात को स्वीकार करते हैं कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते हैं। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा।

यहाँ पर एक कहानी ‘कोसी का घटवार’ की चर्चा प्रासांगिक होगा। अदभुत प्रेम कहानी है यह। सच है कि जैसी प्रेम कहानी नई कहानी के दौर में लिखी गई वैसी कहानी हिन्दी साहित्य में दुर्लभ हैं। हां! ‘उसने कहा था’ एक अपवाद कही जाएगी। इस प्रेम में वाचालता नहीं है। पूरी कहानी में प्रेम जैसा कोई शब्द नहीं है। पर स्थायी भाव के रूप में वह पूरी कहानी में व्याप्त है। एक पीड़ा भरी प्रतीक्षा, जिसे नामवर सिंह ने नई कहानी की एक प्रमुख विशेषता कहा है, कहानी पढ़ने-सुनने वालों को देर तक कचोटती रहती है। इस प्रेम में ईर्ष्या नहीं है। द्वेष नहीं है। कोई प्रतिशोध नहीं है। कहानी का पाठ और आलोचना के बाद सवालों का दौर चलता है। छात्रों के सवाल का जबाब आमतौर पर तलवार सीधे नहीं देते। ढूँढों! खोजो! पता लगाओ! उनका प्रिय जुमला है। इस कहानी में एक प्रसंग है –गुसाई ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले ज्वार और तूफान का वहाँ कोई चिह्न नहीं था। यह पूछने पर कि लछमा के चेहरे पर विगत प्रेम प्रसंग की कोई छाप न हो, कोई छाया न उभरे, कोई हलचल न दीखे... यह कैसे संभव है ? अगर प्रेम सच्चा है तो वर्षों बाद भी, एक सीमा में रह कर ही सही, फूटेगा जरूर। कितना ही सामाजिक मान-मर्यादाओं में बँध कर रहे आदमी। तलवार का जवाब था- मैं इस सवाल का जवाब नहीं दूँगा, बेहतर है कहानी के लेखक शेखर जोशी हिन्दी विभाग बुलाये जाएँ और उनसे ही यह सवाल किया जाए।

साहित्य अपने समय और समाज से अलहदा नहीं होता । वह हमें यंत्रवत होने से बचाता है। खुद को टटोलने को मजबूर करता है। अगर यह सच है कि प्रेम करने के बाद आदमी पहले जैसा नहीं रह जाता है, तो सच यह भी है कि आदमी अगर संवेदनशील हो तो एक अच्छी कहानी या कविता पढ़ कर वही आदमी नहीं रह जाता है जो उस कविता कहानी पढ़ने के पहले था। साहित्य के अच्छे लेखक, शिक्षक-आलोचक हमारी संवेदनशीलता को बढ़ाते-बचाते हैं। सर्वग्रासी बाजार के इस दौर में विषय के नाम पर चर्चा अर्थशास्त्र, कंप्यूटर या प्रबंधन जैसे विषयों की ही की जा रही है। साहित्य के विभाग विश्वविद्यालयों में हाशिये पर धकेले जा रहे हैं । साहित्य जैसी विषयों की प्रासांगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है। जबकि मानवीय संवेदनाओं को भोथरा होने से बचाने के लिए साहित्य का पठन-पाठन हर दौर में जरूरी है, वर्तमान में कहीं ज्यादा। युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के कुछ शब्द ले कर कहें तो- समाज के शरीर में/ एपेन्डिक्स की तरह/ अनावश्यक लगते हुए हैं हम/ फिर भी/ न जाने क्यों/ जरूरी से हैं/ एक संपूर्णता के लिए/ वह अर्थ की हो या व्यर्थता की।
(20 सितम्बर 1947 को जन्मे वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार जीवन के साठ साल पूरे कर रहे हैं, चित्र में प्रो. तलवार के साथ लेखक। )

3 comments:

Manjit Thakur said...

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