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Sunday, August 07, 2022

अमृत महोत्सव में आलोचक की याद


हिंदी के आलोचक और झारखंड के चर्चित बुद्धिजीवी वीर भारत तलवार अपने पचहत्तरवें वर्ष में हैं. लोकतंत्र में आलोचना को केंद्रीयता हासिल है, ऐसे में आजादी के अमृत महोत्सव में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को याद करना जरूरी है. तलवार जैसा जीवन बहुत कम बौद्धिकों को नसीब होता है. जमशेदपुर में जन्मे, सत्तर के दशक में उन्होंने धनबाद के कोयला-खदान के मजदूरों और राँची-सिंहभूम के आदिवासियों के बीच काम किया. झारखंड राज्य आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में रहे. फिर अस्सी के दशक में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नामवर सिंह के निर्देशन में प्रेमचंद के साहित्य पर शोध किया और वहीं भारतीय भाषा केंद्र में छात्रों के चहेते शिक्षक भी बने. उन्होंने हिंदी नवजागरण को आधार बना कर ‘रस्साकशी’ जैसी मौलिक शोध पुस्तक की रचना की और हिंदी नवजागरण को प्रश्नांकित किया है. वे इसे ‘हिंदी आंदोलन’ कहने के हिमायती हैं क्योंकि इसका ‘यही लक्ष्य था’.
देश में 19वीं सदी का नवजागरण उनकी चिंता के केंद्र में रहा है. उन्होंने ‘हिंदू नवजागरण की विचारधारा’ में लिखा है: ‘अपनी परंपरा, धर्म, रीति-रिवाजों और सामाजिक संस्थाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना, उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर जांच कर ठुकराना या अपने समय के मुताबिक सुधारना हर नवजागरण -चाहे वह यूरोपीय हो या भारतीय- की सबसे केंद्रीय विशेषता रही है.’ उनके शोध को पढ़ कर हम समकालीन सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखने लगते हैं. तलवार की रचनाओं में शोध और आलोचना का दुर्लभ संयोग मिलता है. इस लिहाज से उनकी किताब ‘सामना’ खास तौर पर उल्लेखनीय है. इस किताब में शामिल ‘निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र’ अपनी पठनीयता और आलोचनात्मक दृष्टि की वजह से काफी चर्चित रहा है. उनकी आलोचना भाषा सहजता और संप्रेषणीयता की वजह से अलग से पहचान में आ जाती है. यहाँ बौद्धिकता का आतंक या दर्शन की बघार नहीं दिखती. अकारण नहीं कि उनके लिखे राजनीतिक पैम्फलेट भी काफी चर्चित रहे हैं.
वाम आंदोलन के दिनों में तलवार ने फिलहाल (1972-74) नाम से जो राजनीतिक पत्र का संपादन किया उसका ऐतिहासिक महत्व है. इसके चुने हुए लेख ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’ किताब में संग्रहित हैं. इसी तरह उन्होंने ‘झारखंड वार्ता’ और ‘शालपत्र’ का भी संपादन किया. ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच एक एक्टिविस्ट के नोट्स’ में उनके अनुभव संकलित हैं. इस किताब को उनके ‘झारखंड में मेरे समकालीन किताब’ के साथ रख कर पढ़ना चाहिए. खास तौर पर इस किताब में संकलित रामदयाल मुंडा पर लिखा उनका विश्लेषणात्मक निबंध उल्लेखनीय है.
जेएनयू में उनके जैसा शिक्षक और गाइड बहुत कम थे. शोध के प्रसंग में अक्सर मंत्र की तरह कहा करते थे- ‘ढूंढ़ो, खोजो, पता लगाओ’. जब भी उनसे बातचीत होती है वे सबसे पहले पूछते हैं: अच्छा, आज कल क्या लिख-पढ़ रहे हो.’ सिनेमा से तलवार जी का काफी लगाव है. उनका ‘सेवासदन पर फिल्म: राष्ट्रीय आंदोलन का एक और पक्ष’ लेख (राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य) एक साथ कई विषयों को समेटे है. ‘सेवासदन’ फिल्म (1934) के बहाने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उठे सांस्कृतिक आंदोलन और उसकी असफलता को वे रेखांकित करते हैं. वे सवाल उठाते हैं कि इन वर्षों में हिंदी फिल्में क्यों हिंदी जगत की संस्कृति और परंपराओं से दूर रही?

Thursday, September 26, 2019

एक एक्टिविस्ट के संस्मरण



हाल ही में अनुज्ञा बुक्सदिल्ली से हिंदी के आलोचक वीर भारत तलवार की किताब प्रकाशित हुई है- झारखंड में मेरे समकालीन. जैसा कि किताब के नाम से स्पष्ट है तलवार ने इस किताब में झारखंड के उन बुद्धजीवियोंराजनीतिककर्मियों के बारे में लिखा है जिनके साथ उन्होंने काम किया थाजो उनके संघर्ष में साथी थे.

अकादमिक दुनिया में आने से पहले तलवार खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे.  70 के दशक के में वे झारखंड आंदोलन में शरीक थे. वर्ष 1978 में उनके नेतृत्व में हुआ झारखंड क्षेत्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन का ऐतिहासिक महत्व है. साथ ही उनका लिखा पैंफलेट- झारखंड: क्याक्यों और कैसे?’ एक तरह के अलग झारखंड राज्य आंदोलन के लिए घोषणा पत्र साबित हुआ. वर्ष 1981 में तलवार शोध करने जेएनयूदिल्ली आ गए पर जैसा कि उन्होंने अपनी चर्चित किताब झारखंड के आदिवासियों के बीच: एक एक्टीविस्ट के नोट्स’ (ज्ञानपीठ प्रकाशन2008) में लिखा है-लेकिन झारखंड को इतनी दूर छोड़ आने पर भी झारखंड मुझसे छूटा नहीं. हाथ छूटे तो भी रिश्ते नहीं छोड़े जाते!’ तलवार ने अपनी इस किताब में उन्हीं रिश्तों को याद किया है.

सहज भाषाआलोचनात्मक दृष्टि और संवेदनशीलता इस किताब को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है.  इस संस्मरण किताब में निर्मल मिंजदिनेश्वर प्रसादनागपुरी भाषा के कवि और झारखंड आंदोलन के नेता वी.पी. केशरीलेखक और प्रशासक कुमार सुरेश सिंह और बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रोफेसर डाक्टर रामदयाल मुंडा का व्यक्तित्व और कृतित्व शामिल हैं.  लेकिन यह किताब केवल व्यक्ति-विशेष के साथ बिताए पलों का लेखा-जोखा नहीं है बल्कि यादों के झरोखों से झारखंड के अतीत, वर्तमान और भविष्य की चिंताओं को भी रेखांकित करता है. जैसा कि निर्मल मिंज के ऊपर लिखे अपने लेख में तलवार ने लिखा है- झारखंड आंदोलन सिर्फ अलग राज्य का एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था. यह झारखंड प्रदेश के नव-निर्माण का आंदोलन भी था. यह झारखंडी जनता के मूल्यों और मान्यताओं के आधार पर एक नयी झारखंडी संस्कृति की रचना करने का आंदोलन भी था. यह झारखंडी भाषाओं को उनका अधिकार दिलाने और उनमें साहित्य रचना करने का आंदोलन भी था.’ इस सांस्कृतिक आंदोलन में डॉक्टर मिंज तलवार के सहयोगी बने. इस लेख में मिंज एक मानवतावादीउच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी के रूप में हमारे समाने आते हैं. 

इसी तरह प्रोफेसर दिनेश्वर प्रसाद को तलवार बेहद आत्मीय ढंग से याद करते हैं. राँची विश्वविद्यालय में उनके निर्देशन में तलवार ने पीएचडी में दाखिला लिया पर आंदोलनकारी व्यस्तताओं के चलते उसे पूरा नहीं कर पाए. हालांकि तलवार के साथ उनके अकादमिक संबंध जीवनपर्यंत रहे. उनकी किताब लोक साहित्य और संस्कृति की चर्चा करते हुए तलवार ने नोट किया है- मिथकों और लोक कथाओं में कल्पना की बहुत अजीबो-गरीब और ऊँची उड़ान होती है. कल्पना की इन अजीबो-गरीब संरचनाओं को समझना और उसका विश्लेषण करना दिनेश्वर जी का सबसे प्रिय विषय था.’ इस लेख के माध्यम से तलवार के व्यक्तित्व पर भी रोशनी पड़ती है. उनमें आत्मालोचन का भाव दिखता है.

इस किताब में शामिल कुमार सुरेश सिंह के ऊपर लिखा लेख बेहद महत्वपूर्ण है. 43 खंडो में प्रकाशित पीपुल ऑफ इंडिया’ प्रोजेक्ट उन्हीं की देख-रेख में संपन्न हुआ था. डॉक्टर सिंह एक कुशल प्रशासक होने के साथ साथ लेखक भी थे. बिरसा मुंडा और उनके आंदोलन पर लिखी उनकी चर्चित किताब द डस्ट स्टार्म एंड द हैंगिग मिस्ट’ को आधार बना कर ही महाश्वेता देवी ने अरण्येर ओधिकार (जंगल के दावेदार) लिखा था. तलवार ने डॉ. सिंह के साथ एक बातचीत के हवाले से लिखा है- उसे पढ़ कर लगता है जैसे किसी ने बाहर-बाहर से देख-सुनकर लिख डाला हो.’  

रामदयाल मुंडा को अमेरिका से वापस राँची विश्वविद्यालय लाने में वही सूत्रधार थे. जब उन्होंने आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं का विभाग खुलवाया तो मुंडा को निदेशक के रूप में नियुक्त किया. सिंह मुंडा को विद्यार्थी जीवन से जानते थे जब वे खूंटी में अनुमंडलाधिकारी थे और उन्होंने समारोह में उन्हें एक कविता सुनाई थी. यह कविता एक नहर पर थीजिसका उद्धाटन खुद सिंह ने किया था - मेरे राजा/कैसी है तुम्हारी यह नहर/पानी कम/और लंबाई हिसाब से बाहर/पटता है केवल एक छोर/ और बाकी/रह जाता ऊसर. तलवार ने लिखा है- डॉ. सिंह इस व्यंग्य पर तिलमिलाने के बजाए उस विद्यार्थी की प्रतिभा और साहस पर मुग्ध थे. और इस किताब में सबसे रोचक और प्रभावी लेख रामदयाल मुंडा के ऊपर  क़रीब 100 पेज का संस्मरण हैजिसमें उनके जीवन और रचनाकर्म का मूल्यांकन भी शामिल है. साथ ही तलवार इस लेख में  झारखंडी भाषासाहित्य और संस्कृति की समीक्षा भी करते चलते हैं. उन्होंने मुंडा को झारखंडी बुद्धिजीवियों का सिरमौर कहा है.  इस लेख में तलवार चर्चित फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो के निर्देशन में मुंडा के ऊपर बनी एक डॉक्यूमेंट्री नाची से बाची’ को खास तौर पर रेखांकित करते हैं.

तलवार ने मुंडा के साथ अपने संबंधों का काफी विस्तार से किताब में जिक्र किया है. वे मुंडा की पहली पत्नीअमेरिकी नागरिकप्रोफेसर हैजेल लुट्ज़ के साथ अपनी मुलाकात का भी उल्लेख करते हैं, जिनसे मुंडा का तलाक हो गया था. किताब से एक अन्य प्रसंग का जिक्र यहां हम करते हैं:
1983 में मैं मानुषी की संपादक मधु किश्वर के साथ झारखंड आया तो दोपहर बाद मैं और मधु उनसे मिलने मोरहाबादी आए. मधु जनजातीय भाषा विभाग के बाहर सीढ़ियों पर बैठी रही और मैं पास में ही रामदयाल के घर से उन्हें बुला लाया. रामदयालजो शायद दोपहर का भोजन करके आराम कर रहे होंगेवैसे ही सिर्फ धोती पहने नंग-धडंग बदन में जैसे गाँव में आदिवासी रहते हैं-अपने विभाग में आ गए.....उस दिन किसी बात पर मैं मधु किश्वर से नाराज था और उन दोनों की बातचीत से दूर बैठा रहा. उसी मुद्रा में मेरी एक फोटो मधु ने खींच दी जिसमें खाली बदन बैठे रामदयाल भी दिख रहे हैं. वह रामदयाल के साथ एक मात्र फोटो है अन्यथा उन दिनों किसी के साथ फोटो खिंचाने का कभी ख्याल ही नहीं आता था.’ 
लेखक: वीर भारत तलवार

इस लेख में मुंडा का चरित्र उभर से सामने आता है, पर ऐसा नहीं है कि तलवार मुंडा के व्यक्तित्व से मुग्ध या आक्रांत हैं. जहाँ वैचारिक रूप से विचलन दिखता है उसे वे नोट करना नहीं भूलते. आदिवासियों की अस्मिता के सवाल को उठाते हुए तलवार लिखते हैं- यह अजीब बात है कि मुंडाओं के पूर्वजों को हिंदू ऋषियों-मुनियों से जोड़ने के लिए एक ओर वे सागू मुंडा की आलोचना कर रहे थेदूसरी ओर खुद अपने लेख में यही काम कर रहे थे.’ मुंडा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी और संस्कृतकर्मी थे, जिनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. पर जैसा कि तलवार ने लिखा है उनका विकास एक जननेता के रूप में कभी नहीं हुआ. मुंडा आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य बने थे. तलवार क्षोभ के साथ लिखते हैं- राजनीतिक सत्ता हासिल करने के मोह में रामदयाल ने अपने जीवन की जितनी शक्ति और समय को खर्च कियाअगर वही शक्ति और समय उन्होंने अपने साहित्य लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र के कामों में लगाया होता-जिसमें वे बेजोड़ थे और सबसे ज्यादा योग्य थे-तो आज उनकी उपलब्धियाँ कुछ और ही होती.’ साथ ही इसी प्रसंग में तलवार समाज में एक बुद्धिजीवी की क्या भूमिका होनी चाहिए इसे भी नोट करते हैं.

एक बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिरोध की भूमिका में रहता है और उसकी पक्षधरता हाशिए पर रहने वाले उत्पीड़ित-शोषित जनता के प्रति रहती है. राजनीतिक सत्ता एक बुद्धिजीवी को बोझ ही समझती है और इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. वे राम दयाल मुंडा की भाषाई संवेदना और समझ को उनके समकालनी अफ्रीकी साहित्य के चर्चित नाम न्गुगी वा थ्योंगो के बरक्स रख कर परखते हैं और पाते हैं कि जहाँ न्गुगी अंग्रेजी को छोड़ कर अपनी आदिवासी भाषा की ओर मुड़ गए थेवहीं मुंडा मुंडारी भाषा में लिखना शुरु किया, ‘धीरे धीरे अपनी भाषा छोड़कर हिंदी की ओर मुड़ते गए.’  यह बात वृहद परिप्रेक्ष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों पर भी लागू होती है जो प्रसिद्धि और पहुँच के लिए अंग्रेजी पर अपनी नजरें टिकाए रहते हैं.

तलवार इस किताब में आदिवासी भाषा और लिपि का विमर्श भी रचते हैं. साथ ही पूरी किताब में आदिवासी साहित्यसमाज पर गहन टिप्पणी भी करते चलते हैं, जो शोधार्थियोंअध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण रेफरेंस बनकर सामने आता है. इस किताब को तलवार की एक अन्य किताब-झारखंड आंदोलन के दस्तावेज (नवारुण प्रकाशन2017) के साथ रख कर पढ़नी चाहिए.

(दी लल्लनटॉप वेबसाइट पर प्रकाशित)


Saturday, December 15, 2018

लोकार्पण और चर्चा: बेख़ुदी में खोया शहर

लोकार्पण और चर्चा
बेख़ुदी में खोया शहर
एक पत्रकार के नोट्स: अरविंद दास
...................
विशिष्ट अतिथि
करण थापर (वरिष्ठ पत्रकार)
...................................
वार्ताकार
प्रोफेसर वीर भारत तलवार (वरिष्ठ आलोचक)
ओम थानवी (सलाहकार संपादकराजस्थान पत्रिका)
प्रभात रंजन (लेखकमॉडरेटर-जानकीपुल)
.....................
तिथि और समय: 

बुधवार, 19 दिसंबर 2018, शाम 5:30 बजे
सेमिनार हॉल नंबर 2, आईआईसी नई दिल्ली


Friday, January 31, 2014

हक़ अदा ना हुआ...

वीर भारत तलवार
आज प्रो. वीर भारत तलवार का जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में विदाई समारोह था। उनके छात्र के नाते मैंने भी वहाँ अपनी कुछ बातें शेयर की...

1992 मैंने दसवीं पास किया। उसी साल मेरे बड़े भाई, नवीन, हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टियों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

एक शिक्षक के रुप में तलवार जी के साथ यह मेरी पहली पहचान थी।

2002 में जेएनयू में एम. फिल में जब दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जी जब कहानी पढ़ाते थे तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते कि हमारी रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे। विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते। फिर भी तलवार जी इस बात को स्वीकार करते कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा। वे कहते कि कहानी जीवन का एक टुकड़ा है….

एम फिल और पीएचडी के लिए जब शोध निर्देशक के रुप में मैंने तलवार जी को चुना तो सीनियरों और सहपाठियों ने बताया कि सर के साथ काम करना दुष्कर है। सर बहुत तंग करते हैं। उनके साथ काम करके आप किसी भी परीक्षा की तैयारी नहीं कर सकते। वगैरह, वगैरह।

पर मैं उनकी प्रतिबद्धता और उनके लोकतांत्रिक चरित्र का  हमेशा कायल रहा। एक शिक्षक और आलोचक के रुप में वो हमेशा प्रश्न पूछने के लिए हमें प्रेरित करते रहे। क्लास के अंदर और बाहर भी। ढूँढो, खोजो, पता लगाओ उनका प्रिय जुमला रहता था। सर ने ना सिर्फ मेरी शोध प्रगति पर लगातार नजर रखी बल्कि समय से पूरा करवाया।

एक बार पता नहीं क्यों मैं सर से अपनी पीएचडी को लेकर उलझ पड़ा। सर ने अपने स्वभाव के अनुकूल बहुत शांत स्वर में कहा: ऐसा है ना अरविंद कि यदि तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सुपरवाइजर तुमसे ठीक से पेश नहीं आ रहा है तो तुम मेरे खिलाफ कहीं पर भी जा सकते हो। यूनिवर्सिटी में बहुत सारे फोरम हैं.’ मेरे चेहरे का रंग उड़ गया। मैं माफी माँगते हुए कहा कि ‘सर, ऐसा तो मैंने कुछ नहीं कहा है।’ उन्होंने कहा-" नहीं, नहीं, ऐसा कुछ मत सोचो। मैं बस यह कह रहा हूँ कि यह तुम्हारा डेमोक्रेटिक राइट है!" सर जैसे शिक्षकों की वजह से ही जेएनयू की लोकतांत्रिक छवि आज भी कायम है।

तलवार जी जैसा जीवन बहुत कम लोगों को मिल पाता है। वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता रहे। फिर अध्यापक बने। एक आलोचक-अध्येता के रुप में सर के काम का मूल्यांकन अभी बाकी है। मुझे लगता है कि सर की शोध पुस्तक 'रस्साकशी' अंग्रेजी में आई होती तो उसका reception ज्यादा विवेक सम्मत होता। हिंदी जगत ने उसका मूल्यांकन कम, अपना राग-द्वेष ज्यादा जोड़ दिया है।


तलवार जी संगीत और सिनेमा के बेहद शौकीन हैं। उनके साथ कई फिल्में देखने, संगीत समारोह में जाने का मुझे मौका मिला। और हां, सर के हाथों का बना खाना भी हमने कई बार खाया है।

सर उस समय Indian Institute of Advanced Studies में fellow थे। जेएनयू में खबर आई कि सर को जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने in absentia प्रोफेसरशिप ऑफर किया है। मैं घबराया, सर को फोन किया ‘सर, आप जब चले जाएँगे तो मैं किसके साथ पीएचडी करुँगा।’ सर ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘जेएनयू छोड़ कर कहां जाऊंगा.’

आज सर जेएनयू से विदा हो गए। पर क्या हम अपना हक अदा कर पाए...

Thursday, September 20, 2007

एक संपूर्णता के लिए

घुघुआ मना उपजे घना’ गाते-झूलते हुए सुनी दादी-नानी की कहानी अब याद नहीं। याद हैं उनके जीवनानुभव जो उन्होंने भोगे थे। माँ ने कभी कहानी नहीं सुनाई। शायद उनके पास उन अनुभवों का अभाव था जो कहानी कहने के लिए जरूरी होता है, या संभव है कि अपने अनुभवों को हमसे बाँटना उचित न समझा हो। बहरहाल, कविता-कहानी से जुड़ाव छुटपन में ही हो गया था। बड़े भाई साहित्य के छात्र थे। जिस साल मैंने गाँव से दसवीं पास किया उसी साल उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टीयों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

जहाँ से मैं ने एम.ए किया वहाँ कहानी पढ़ाने के नाम पर लीपा-पोती का काम ज्यादा हुआ। वैसे भी कहानी के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है कि कहानी पढ़ाने की नहीं, पढ़ने की चीज है। और छात्रों को खुद पढ़ लेने की ‘नेक’ सलाह अधिकांश शिक्षक दिया करते हैं। कुछ साल पहले जब मैं ने जेएनयू में एम. फिल हिन्दी में दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते हैं कि छात्रों की रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे । विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते हैं। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता है। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते हैं, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते हैं। फिर भी तलवार इस बात को स्वीकार करते हैं कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते हैं। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा।

यहाँ पर एक कहानी ‘कोसी का घटवार’ की चर्चा प्रासांगिक होगा। अदभुत प्रेम कहानी है यह। सच है कि जैसी प्रेम कहानी नई कहानी के दौर में लिखी गई वैसी कहानी हिन्दी साहित्य में दुर्लभ हैं। हां! ‘उसने कहा था’ एक अपवाद कही जाएगी। इस प्रेम में वाचालता नहीं है। पूरी कहानी में प्रेम जैसा कोई शब्द नहीं है। पर स्थायी भाव के रूप में वह पूरी कहानी में व्याप्त है। एक पीड़ा भरी प्रतीक्षा, जिसे नामवर सिंह ने नई कहानी की एक प्रमुख विशेषता कहा है, कहानी पढ़ने-सुनने वालों को देर तक कचोटती रहती है। इस प्रेम में ईर्ष्या नहीं है। द्वेष नहीं है। कोई प्रतिशोध नहीं है। कहानी का पाठ और आलोचना के बाद सवालों का दौर चलता है। छात्रों के सवाल का जबाब आमतौर पर तलवार सीधे नहीं देते। ढूँढों! खोजो! पता लगाओ! उनका प्रिय जुमला है। इस कहानी में एक प्रसंग है –गुसाई ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले ज्वार और तूफान का वहाँ कोई चिह्न नहीं था। यह पूछने पर कि लछमा के चेहरे पर विगत प्रेम प्रसंग की कोई छाप न हो, कोई छाया न उभरे, कोई हलचल न दीखे... यह कैसे संभव है ? अगर प्रेम सच्चा है तो वर्षों बाद भी, एक सीमा में रह कर ही सही, फूटेगा जरूर। कितना ही सामाजिक मान-मर्यादाओं में बँध कर रहे आदमी। तलवार का जवाब था- मैं इस सवाल का जवाब नहीं दूँगा, बेहतर है कहानी के लेखक शेखर जोशी हिन्दी विभाग बुलाये जाएँ और उनसे ही यह सवाल किया जाए।

साहित्य अपने समय और समाज से अलहदा नहीं होता । वह हमें यंत्रवत होने से बचाता है। खुद को टटोलने को मजबूर करता है। अगर यह सच है कि प्रेम करने के बाद आदमी पहले जैसा नहीं रह जाता है, तो सच यह भी है कि आदमी अगर संवेदनशील हो तो एक अच्छी कहानी या कविता पढ़ कर वही आदमी नहीं रह जाता है जो उस कविता कहानी पढ़ने के पहले था। साहित्य के अच्छे लेखक, शिक्षक-आलोचक हमारी संवेदनशीलता को बढ़ाते-बचाते हैं। सर्वग्रासी बाजार के इस दौर में विषय के नाम पर चर्चा अर्थशास्त्र, कंप्यूटर या प्रबंधन जैसे विषयों की ही की जा रही है। साहित्य के विभाग विश्वविद्यालयों में हाशिये पर धकेले जा रहे हैं । साहित्य जैसी विषयों की प्रासांगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है। जबकि मानवीय संवेदनाओं को भोथरा होने से बचाने के लिए साहित्य का पठन-पाठन हर दौर में जरूरी है, वर्तमान में कहीं ज्यादा। युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के कुछ शब्द ले कर कहें तो- समाज के शरीर में/ एपेन्डिक्स की तरह/ अनावश्यक लगते हुए हैं हम/ फिर भी/ न जाने क्यों/ जरूरी से हैं/ एक संपूर्णता के लिए/ वह अर्थ की हो या व्यर्थता की।
(20 सितम्बर 1947 को जन्मे वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार जीवन के साठ साल पूरे कर रहे हैं, चित्र में प्रो. तलवार के साथ लेखक। )