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Friday, March 03, 2023

विनोद कुमार शुक्ल से एक बातचीत

 


इन दिनों दिल्लीमें चल रहे विश्व पुस्तक मेले में विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नए कलेवर में पाठकों के लिए उपस्थित हैं. साथ ही मेले के दौरान इकतारा ट्रस्ट से छपी उनकी बच्चों के लिए लिखी किताबों- ‘एक चुप्पी जगह’ , ‘गोदाम’, ‘एक कहानी’, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘बना बनाया देखा आकाश: बनते कहाँ दिखा आकाश’ (कविता संग्रह) दिखाई देता है. इन सब के बीच उनके बाल साहित्यकार रूप में उनकी चर्चा छूट जाती है, जबकि हाल के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए साहित्य रचने पर जोर दे रहे हैं.

पिछले कुछ सालों में पुस्तक मेले में बाल साहित्य में बच्चों और वयस्कों की दिलचस्पी काफी दिखाई देती रही है, लेकिन हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का लेखन यहाँ नहीं दिखता. सच तो यह है कि हिंदी में साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रख कर बहुत कम लिखा है. प्रकाशकों ने भी इस वर्ग के पाठकों में रुचि नहीं दिखाई. इसके क्या कारण है? जहाँ हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशक बच्चों के लिए किताबें छापने से बचते रहे हैं, वहीं हाल के दशकों में एकलव्य, इकतारा, कथा, प्रथम जैसी संस्थाओं में हिंदी में रचनात्मक और सुरुचिपूर्ण किताबें छापी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट बच्चों के लिए किताबें छापता रहा है, पर बदलते समय के अनुसार विषय-वैविध्य और गुणवत्ता का अभाव है यहाँ. ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल का बाल साहित्यकार रूप अलग से रेखांकित करने की मांग करता है.

 आपने वयस्क पाठकों के लिए ‘नौकर की कमीज’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसी औपन्यासिक कृतियाँ रची हैं, ‘महाविद्यालय’ और ‘पेड़ पर कमरा’ जैसे कहानी संग्रह. ‘वहीं लगभग जय हिंद’, ‘सब कुछ बचा रहेगा’ जैसा कविता संग्रह भी उपलब्ध है. पिछले करीब एक दशक से आप बच्चों के लिए लिख रहे हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों के लिए साहित्य लिखने का आपने कैसे सोचा?

बच्चों के बारे में मैं लिखता नहीं था, पर साइकिल पत्रिका (इकतारा) के संपादक सुशील शुक्ल ने मुझे बच्चों के बारे में लिखने को कहा. मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा नहीं था. मैंने अपने लेखन में कभी नहीं सोचा कि इसका पाठक कौन होगा. मैंने कहा कि अब मुझे सोच करके लिखना पड़ेगा कि मेरे पाठक बच्चे हैं. कितनी उम्र के बच्चे पढ़ेंगे और कैसे पढ़ेंगे. फिर उन्होंने कहा कि किसी भी विषय पर लिखिए-हाथी पर, घोड़े पर, चींटी पर, मछली पर …इसी तरह की उन्होंने बात की.

जब मैं बच्चों के लिए लिखने बैठा तब सबसे पहले यही सोचा कि एक पाठक के रूप में अभी तक मैंने बच्चों के बारे में जो पढ़ा है, ऐसा लगता है कि यह बहुत छोटे बच्चे के लिए लिखा गया है. संभवतः जिसे खुद बच्चे नहीं पढ़ते होंगे कोई दूसरा पढ़ कर सुनाता होगा. मुझे लगा कि बच्चों को स्वयं का एक पाठक वर्ग तैयार होना चाहिए. मैंने मान लिया कि मैं बच्चों के लिए लिखूंगा यह सोच करके कि संभवत: शायद इसे पाँच साल या छह साल या आठ साल के बच्चे समझेंगे. मैं उनसे कहीं ज्यादा उम्र के बच्चों की समझ के अनुसार लिखूंगा. यदि कहीं इसका पाठक कई दस साल का लड़का है जो मैं लिखूंगा वह संभवत: 15 साल के किशोर के उम्र तक की पहुँच का होना चाहिए. इकतारा से दो पत्रिका प्रकाशित होती थी जैसा कि सुशील ने बताया था. मैं ‘प्लूटो’ पत्रिका के लिए लिखता था, बाद में ‘साइकिल’ पत्रिका के लिए लिखा (सुशील साइकिल में चले गए और उनसे एक संपर्क बन गया). ‘प्लूटो’ के लिए मैं छोटे बच्चों के लिए लिखता था पर तब भी यह सोच कर लिखता था कि इनकी समझ कुछ बड़ी होगी.

मैंने फिर बाद में बड़े बच्चों के लिए साइकिल में लिखा. मैंने इस तरह से लिखा कि इसे बड़े लोग या किशोर लोग भी पढ़े तो उनको लगना चाहिए कि उन्होंने भी कुछ पढ़ा और बच्चे तो पढ़ेंगे ही. यही मेरी सोच का हिस्सा रहा.

मैंने अपनी नौ साल की बेटी-कैथी के लिए ‘गोदाम’ किताब खरीदी, पर जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे इस कहानी का कथ्य और संवेदना ने प्रभावित किया. इसमें पेड़-पौधे के प्रति जो लेखक का लगाव है, वहीं मकान मालिक की जो समझ है वह आज के समय को प्रतिबिंबित करता है. आप लिखते है: ‘पेड़ वाले घर मुझे अच्छे लगते है.’ कहानी के आखिर में मकान मालिक पेड़ कटवा कर कहता है: ‘आपका अब यह एक पेड़ वाला घर नहीं है.’ ऐसा लगता है आधुनिक सभ्यता में क्या हम गोदाम में रहने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ यह आपके जीवनानुभवों से पाठकों को जोड़ता है.

जी, मैंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव से लिखा है. मेरा लिखा हुआ मेरी आत्मकथा ही है. मेरा सारा कुछ मेरा जाना-पहचाना रहा है. मैंने जो अनुभव किया- आस-पास के लोगों से, मिलने-जुलने वालों से, जो किताबें मैंने पढ़ी थी, उन किताबों के अनुभव से जो मैंने पाया और जो अनुभव बनाया वही मेरा अनुभव रहा है. वही मेरे लेखन में रहा है.

बड़ों के लिए लेखन और बच्चों के लिए लेखन की भाषा-शैली के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप किस रूप में बच्चों के लिए लेखन की तैयारी करते हैं?

जब मैं बड़ों के लिए लिखता हूँ तब बिलकुल नहीं सोचता हूँ कि कितने बड़ों के लिए लिख रहा हूँ. उसमें ऐसा कोई कारण नहीं है. एक स्थिति में आकर के पुस्तक से, अपने अनुभव के अनुसार से… अपना अनुभव बनाने की उम्र तो कभी भी हासिल हो सकती है. आदमी जब 18-19 या 20 साल का हुआ तो वह किताबों की समझ को अपने में चाहे वह किसी के लिए लिख रहा हो, एक पाठक के रूप में अपनी समझ में एक स्थिति तो बना ही लेता है.

तीसरा दोस्त’ कहानी पढ़ते हुए मैं अपने बचपन में लौटा. आप लिखते हैं: ‘उसी की चप्पल पहनकर मैं उसे ढूंढने निकला. मैं अपने मन से और चप्पल के मन से चल रहा था कि चप्पल मुझे वहाँ तक पहुँचा देगी जहाँ वह जाता है.’ क्या लिखते हुए आप अपने बचपन में लौट रहे हैं इन दिनों?

हां, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. मैं अपने बचपने को याद करता हूँ जो भूला हुआ सा है. इसलिए पास-पड़ोस के जो बच्चे हैं, सड़क पर जो मेरे घर के सामने खेलते हैं जिन्हें आता-जाता मैं देखता है. बच्चों को देख कर मैं अपने बचपने को याद करता हूँ. इस उम्र में वो क्या सोचते हैं? मनुष्य रूप में एक बच्चे का जन्म होता है जिसके पास सोचने समझने की शक्ति होती है. जो नवजात शिशु होता है वह इस संसार का अनुभवहीन एक जीव होता है. उस बच्चा की दुनिया के बारे में कोई खबर नहीं है. लेकिन मैंने देखा कि उनमें एक प्रतिक्रिया का अनुभव जन्म लेते ही बन जाता है. चिड़िया चहचहाती है तो नवजात शिशु की आँख उस ओर मुड़ जाती है, ऐसा मैंने अपने बच्चों के जन्म में महसूस किया था अस्पताल में.

बचपन में पढ़ने-लिखने का कैसा अनुभव रहा है आपका?

घर में एक साहित्यिक वातावरण था, मैं पढ़ता था. मैं नाँदगाँव का हूँ, पदुमलाल बख्शी नाँदगाँव के ही थे. मेरी माँ जो थी उसके बचपन का काफी समय बांग्लादेश के जमालपुर में बीता, वहां क्या स्थिति थी मुझे ठीक से मालूम नहीं. मेरे नाना लोगों का परिवार कानपुर का था, मेरे बाबा भी उत्तर प्रदेश के थे जो नाँदगाँव में बसने आ गए थे. मेरी अम्मा के घर में हम बच्चों पर एक अच्छा प्रभाव पड़ा था, खासकर अपने साथ वह बंगाल के साहित्य का संस्कार भी लेकर आ गई थी. दूसरे भाई-बहन भी लिखने की कोशिश करते थे, पर उनका लिखना रस्ते में ही छूट गया, बढ़ती उम्र के साथ. लेकिन मैंने लिखना जारी रखा.

आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं, जिन्हें आप अभी याद करते हैं?

नाम लेकर के तो बताना नहीं है लेकिन बहुत सी किताब के लेखक मेरे प्रिय रचनाकार रहे हैं. मैं बहुत से बड़े लेखकों के संपर्क में रहा. मेरे लिखने की याद के शुरुआत दिनों में जैनेंद्र भी कुछ सालों तक रहे, मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई. अज्ञेय से मेरी मुलाकात रही. अशोक वाजपेयी से मेरी मुलाकात रही, लंबे समय तक संबंध बना रहा. केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह से भी मेरा लंबे समय तक संबंध बना रहा. तो बड़े लेखकों के संपर्क में एक साधारण छोटे लेखक के रूप में मैं हमेशा उपस्थित रहता रहा.

गद्य के अलावे आपने कविता की पुस्तक भी बच्चों के लिए लिखी है-‘बना बनाया देखा आकाश, ‘बनते कहां दिखा आकाश’ आदि

हां, जैसा मैं बच्चों के पाठक के रूप में अभी देख रहा हूँ, मैंने सोचा कि बच्चे भी इस तरह अपने देखने को सुधारें. उनका देखना भी सुधरना चाहिए और यह महसूस होना चाहिए आकाश कितना अनंत होता है और हम कितना थोड़ा सा देख पाता हैं. यह आकाश है जिसको दूसरों ने जमाने से देखा. इसे ऋषि-महर्षियों ने देखा. उन्होंने सितारों-तारों की गणना की, पंचांग बनाया. जिससे उन्हें नक्षत्रों की क्या स्थिति थी, इस बात की जानकारी मिली. उन्होंने पंचांग को वैज्ञानिकों की मेल खाती स्थिति के रूप में बनाया है, यह बड़ी अद्भुत सी बात है. ये सारी चीजें उस जमाने में कैसे सोचते होंगे. उस सोच का दायरा कितना संपूर्ण था. मनुष्यों की उपस्थिति कितनी कम थी. ऐसी उपस्थिति मनुष्य की नहीं थी, जैसी आज की दिखती है. आज मनुष्य तो केवल भीड़ में ही दिखता है. चाहे वह घर की भीड़ हो या बाहर की भीड़ हो. या चाहे जैसी स्थितियाँ हों.

क्या लिख रहे हैं बच्चों के लिए अभी आप?

अभी मेरी सोच में बच्चों के लिए लिखने का अधिक रहता है. क्योंकि मैं इस उम्र में छोटा लिखता हूँ और कम लिखता हूँ क्योंकि ज्यादा देर तक किसी एक चीज पर कायम रहना बहुत कठिन है, लेखन में भी. ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सकता, बैठ भी नहीं सकता (हंसते हैं)…मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति अब वैसे नहीं है, लेकिन तब भी मैं बच्चों के लिए लिख रहा हूँ. आज ही मैंने बच्चों के लिए एक-डेढ़ पेज की कहानी के रूप में भाजी वाले को सोचा. उस भाजी वाले के संबंध में, कुछ अपनी ही स्थिति के अनुसार एक कहानी पढ़ने का कारण बन जाए ऐसा कुछ लिखूं. एक कहानी जो सात-आठ पेज की हो, ऐसा सोच रहा हूँ.

(समालोचन वेबसाइट के लिए, मधुमती पत्रिका, मई, पेज-56-58)

Sunday, April 17, 2022

साहित्य व सिनेमा के बीत संवाद: Drive My Car


यूसुके हमागुची निर्देशित जापानी भाषा की फिल्म ड्राइव माय कारको पिछले दिनों सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला. यह फिल्म रचनात्मक जीवन, प्रेम, सेक्स, विवाहेत्तर संबंध जैसे जटिल विषय को सहजता से सामने लेकर आती है. प्रसिद्ध जापानी रचनाकार हारुकी मुराकामी की इसी नाम से लिखी कहानी पर फिल्म आधारित है, हालांकि उनकी कुछ अन्य कहानियों, जो कि मेन विदाउट वीमेनमें संकलित है, की झलक भी मिलती है. बावजूद इसके फिल्म महज कहानी को रूपांतरित नहीं करती. सिनेमा का सम्मोहन हमें तीन घंटे तक बांधे रखता है. कार में यात्रा के दौरान टाइम और स्पेसको जिस खूबसूरती से निर्देशक ने फिल्माया है और संपादित किया है वह कहीं से फिल्म को बोझिल नहीं बनाता है. बिना किसी अवरोध और नाटकीयता के फिल्म एक प्रवाह में आगे बढ़ती जाती है.

फिल्म काफूकू (हिदेतोशी निशिजिमा) और ओटो (रिका किरिशिमा) दंपत्ति के इर्द-गिर्द है. दोनों रंगमंच-टीवी-फिल्म की दुनिया से जुड़े  हैं. ओटो के कई पुरुषों के साथ संबंध हैं, जिसे काफूकू जानता है. पर इस बात को लेकर वह कभी ओटो से कोई सवाल नहीं करता. ओटो की अचानक मौत हो जाती है. कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. काफूकू अकेला हो जाता है. दो साल बाद हिरोशिमा में एक थिएटर समारोह में चेखव के नाटक अंकल वान्याके निर्देशन का उसे प्रस्ताव मिलता है, जहाँ उसे ड्राइवर के रूप में एक युवती मिसाकी (टोको मिउरा) मिलती है. उससे  वह अपने मन की व्यथा साझा करता है. इस क्रम में हम एक रिश्ते को उभरते देखते हैं. मिसाकी की कहानी से रू-ब-रू होते हैं. यहां फिल्म दुख, संत्रास, अपराध बोध जैसी मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती है. 

हम व्यक्तित्व के उस गोपनीय कोने में दाखिल होते हैं जहां पर प्रवेश वर्जित है. आत्मा पर लगे खरोंच को जिस खूबसूरती से काफूकू का किरदार उकेरता है, सवाल है कि क्या वह  'वान्या' की तरह ही अभिनय कर रहा है? क्या जीवन एक नाटक है, जहाँ हम सब अभिनय करते हैं?

इस फिल्म की खासियत यह है कि एक साथ ही यह साहित्य, सिनेमा और नाटक के बीच आवाजाही करती है. मुराकामी की कहानियों में जो फलसफा है उसे निर्देशक ने एक नई दृष्टि से परदे पर उतारा है. 

इन वर्षों में कोई भी भारतीय फिल्म ऑस्कर पुरस्कार नहीं जीत पाई है. करीब बीस साल पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म श्रेणी में लगानसे उम्मीद जगी थी, लेकिन उसके बाद कोई भी फिल्म अंतिम दौर तक भी नहीं पहुँच पाई.  क्या भारतीय फिल्में ड्राइव माय कारकी तरह साहित्य का सहारा नहीं ले सकती? ऐसा नहीं कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य का अभाव हो.

उल्लेखनीय है कि ऑस्कर से सम्मानित सत्यजीत रे की फिल्में साहित्यिक कृतियों पर ही आधारित रही हैं. बॉलीवुड की बात करें तो यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि साहित्य पर फिल्म बनाने की शुरुआत प्रेमचंद की कृति सेवासदनपर बनी फिल्म (1934) के साथ ही शुरु हो गई थी, लेकिन सिनेमा पर बाजार का दबाव ऐसा रहा कि फिल्मकार साहित्य से संवाद करने से परहेज ही करते रहे. 

Thursday, September 20, 2007

एक संपूर्णता के लिए

घुघुआ मना उपजे घना’ गाते-झूलते हुए सुनी दादी-नानी की कहानी अब याद नहीं। याद हैं उनके जीवनानुभव जो उन्होंने भोगे थे। माँ ने कभी कहानी नहीं सुनाई। शायद उनके पास उन अनुभवों का अभाव था जो कहानी कहने के लिए जरूरी होता है, या संभव है कि अपने अनुभवों को हमसे बाँटना उचित न समझा हो। बहरहाल, कविता-कहानी से जुड़ाव छुटपन में ही हो गया था। बड़े भाई साहित्य के छात्र थे। जिस साल मैंने गाँव से दसवीं पास किया उसी साल उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टीयों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

जहाँ से मैं ने एम.ए किया वहाँ कहानी पढ़ाने के नाम पर लीपा-पोती का काम ज्यादा हुआ। वैसे भी कहानी के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है कि कहानी पढ़ाने की नहीं, पढ़ने की चीज है। और छात्रों को खुद पढ़ लेने की ‘नेक’ सलाह अधिकांश शिक्षक दिया करते हैं। कुछ साल पहले जब मैं ने जेएनयू में एम. फिल हिन्दी में दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते हैं कि छात्रों की रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे । विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते हैं। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता है। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते हैं, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते हैं। फिर भी तलवार इस बात को स्वीकार करते हैं कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते हैं। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा।

यहाँ पर एक कहानी ‘कोसी का घटवार’ की चर्चा प्रासांगिक होगा। अदभुत प्रेम कहानी है यह। सच है कि जैसी प्रेम कहानी नई कहानी के दौर में लिखी गई वैसी कहानी हिन्दी साहित्य में दुर्लभ हैं। हां! ‘उसने कहा था’ एक अपवाद कही जाएगी। इस प्रेम में वाचालता नहीं है। पूरी कहानी में प्रेम जैसा कोई शब्द नहीं है। पर स्थायी भाव के रूप में वह पूरी कहानी में व्याप्त है। एक पीड़ा भरी प्रतीक्षा, जिसे नामवर सिंह ने नई कहानी की एक प्रमुख विशेषता कहा है, कहानी पढ़ने-सुनने वालों को देर तक कचोटती रहती है। इस प्रेम में ईर्ष्या नहीं है। द्वेष नहीं है। कोई प्रतिशोध नहीं है। कहानी का पाठ और आलोचना के बाद सवालों का दौर चलता है। छात्रों के सवाल का जबाब आमतौर पर तलवार सीधे नहीं देते। ढूँढों! खोजो! पता लगाओ! उनका प्रिय जुमला है। इस कहानी में एक प्रसंग है –गुसाई ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले ज्वार और तूफान का वहाँ कोई चिह्न नहीं था। यह पूछने पर कि लछमा के चेहरे पर विगत प्रेम प्रसंग की कोई छाप न हो, कोई छाया न उभरे, कोई हलचल न दीखे... यह कैसे संभव है ? अगर प्रेम सच्चा है तो वर्षों बाद भी, एक सीमा में रह कर ही सही, फूटेगा जरूर। कितना ही सामाजिक मान-मर्यादाओं में बँध कर रहे आदमी। तलवार का जवाब था- मैं इस सवाल का जवाब नहीं दूँगा, बेहतर है कहानी के लेखक शेखर जोशी हिन्दी विभाग बुलाये जाएँ और उनसे ही यह सवाल किया जाए।

साहित्य अपने समय और समाज से अलहदा नहीं होता । वह हमें यंत्रवत होने से बचाता है। खुद को टटोलने को मजबूर करता है। अगर यह सच है कि प्रेम करने के बाद आदमी पहले जैसा नहीं रह जाता है, तो सच यह भी है कि आदमी अगर संवेदनशील हो तो एक अच्छी कहानी या कविता पढ़ कर वही आदमी नहीं रह जाता है जो उस कविता कहानी पढ़ने के पहले था। साहित्य के अच्छे लेखक, शिक्षक-आलोचक हमारी संवेदनशीलता को बढ़ाते-बचाते हैं। सर्वग्रासी बाजार के इस दौर में विषय के नाम पर चर्चा अर्थशास्त्र, कंप्यूटर या प्रबंधन जैसे विषयों की ही की जा रही है। साहित्य के विभाग विश्वविद्यालयों में हाशिये पर धकेले जा रहे हैं । साहित्य जैसी विषयों की प्रासांगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है। जबकि मानवीय संवेदनाओं को भोथरा होने से बचाने के लिए साहित्य का पठन-पाठन हर दौर में जरूरी है, वर्तमान में कहीं ज्यादा। युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के कुछ शब्द ले कर कहें तो- समाज के शरीर में/ एपेन्डिक्स की तरह/ अनावश्यक लगते हुए हैं हम/ फिर भी/ न जाने क्यों/ जरूरी से हैं/ एक संपूर्णता के लिए/ वह अर्थ की हो या व्यर्थता की।
(20 सितम्बर 1947 को जन्मे वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार जीवन के साठ साल पूरे कर रहे हैं, चित्र में प्रो. तलवार के साथ लेखक। )