Sunday, November 23, 2008

हमारा क्या है, हारिल हैं हम तो...

नीष कहता है,'यार, शाम होते ही आजकल तुमपे उदासी क्यों छाने लगती है.' नहीं तो, शायद...कह मैं टालने की कोशिश करता हूँ. मैं 'होमसिक' कभी नहीं रहा. लेकिन अक्सर नवंबर-दिसंबर की शाम ढलते-ढलते एक अजीब सी 'नॉस्टैलज़ा' मेरे अंदर घर करने लगती है.

मेरे हॉस्टल के कमरे की बालकनी में ठीक सामने एक बरगद का पेड़ है और टेरस पर एक झुरमुट पीपल. इन पेड़ों पर हर साल की तरह इस साल भी प्रवासी पक्षियों के झुंड आने लगे हैं. जाड़े के आते ही मैं इनका इंतज़ार करने लगता हूँ.

इन्हें देख राजीव कहता है, 'मेहमान आए हैं.' इन हारिलों को वह मेहमान कहता है.

इनसे अभी अपनी पहचान नहीं बनी है. किस देश से आए हैं. वियोग में हैं या प्रेम में. निर्वासन की पीड़ा झेल रहे हैं या सैर सपाटे के मूड में हैं, या किसी सहचर की खोज में भटक रहे हैं?

मुझे कवि नरेश मेहता कि एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है- किस अनामा भूमि का यह भिक्षुजन?/ कौन कुल?/किस ग्राम का?

कैंपस के अंदर पत्रहीन नग्न गाछों का एकाकीपन भी इन पक्षियों से दूर होने लगा है.

कल दीदी पूछ रही थी कि घर कब बसाओगे? मैं कवि उदय प्रकाश की इन पंक्तियों को दुहरा, हँस पड़ा- हमारा क्या है दिदिया री!/ हारिल हैं हम तो/ आएँगे बरस दो बरस में कभी/ दो-चार दिन मेहमान-सा ठहर कर/ फिर उड़ लेंगे.

11 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत भावपूर्ण आलेख है।

Rajiv Ranjan said...

मालिक, बहुत बढ़िया लिखा है.

Unknown said...

bahut badhiya likhe hai sir....

Arvind Das said...

I just read your blog. Its so moving. Me also became nostalgic reading it.
:))) U write so good maalik :))
Tk cr
Swati

Thank you Swati.

Arvind

Unknown said...

adbhut

Manish Tiwari said...

dost,
shaam, udasi, nostelgia, nirvasan, prem, ekakipan, patraheen aur haaril, anubhav hain... koi keywords ya tag nahin ki search karein aur samajh jayein... isliye in par bahas bhi nahi ho sakti... par tumhari abhivyakti yahan par sunder hai...
shukriya tumhara in panktiyoon ke liye.

Manish Tiwari said...

दोस्त,
शाम, उदासी, नोस्टेलगिया, निर्वासन, प्रेम, एककीपन, पत्रहीन और हारील, अनुभव हैं... कोई कीवर्ड्स या टॅग नहीं की सर्च करें और समझ जायें... इसलिए इन पर बहस भी नही हो सकती...
पर तुम्हारी अभिव्यक्ति यहाँ पर सुंदर है...
शुक्रिया तुम्हारा इन पंक्तियो के लिए

लो, यह टूल भी मिल ही गया.. शुक्रिया क्विलपॅड का.

रीतेश said...

सर, रोने लायक है.

Vivekananda Study Circle said...

Once Louis Althusser was very sad. His wife asked him, 'Why do you look so agonized, dear?'. Althusser said, 'Agonized? Agony is a bourgeois luxury...people like us are busy making our future...'
(saroj kehta hai ke capitalism commercializes even pain and suffering)
...my humble submission to a proclaimed marxist...

sujeet kumar said...

wah.....wah.... kya likha hai aapne sir...

Alka Tiwari said...

आसान से शब्दों में इतनी गहन बात कहना ही आपकी कलम कि खूबसूरती है. इसे पढ़कर मुझे भी अपने बचपन कि याद आ गयी जब आना सागर झील में साइबेरिया से अनगिनत सफ़ेद पक्षी आया करते थे. बड़ा अचम्भा होता था कि सिर्फ अपने पंखों के सहारे ये हजारों मील का सफ़र कर लेते हैं...!