Wednesday, September 21, 2011

टेम्स के किनारे


हम दिन भर पैदल लंदन की सड़कों को नाप चुके थे. विवियन यूँ तो वियना की है पर लंदन की गलियों से उसकी पहचान है. शहर के उन हिस्सों में उसकी दिलचस्पी ज्यादा है जो 'लोनली प्लैनेट' सरीखी किताबों और टूरिस्ट गाइडों में जगह नहीं पाती.
सबेरे टेम्स नदी की खोज में हम निकले. सिटी सेंटर से टेम्स बहुत दूर तो नहीं थी पर इस खोज में हमने कई ऐसी इमारतें देखी जो शायद हम ट्यूब या बस में चढ़ कर नहीं देख सकते थे. वैसे भी शहर की पुरानी गलियों में भटकना नए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से खेलने की तरह होता है. कोई इंजीनियर हमें तकनीकी बारीकियाँ भले समझा दे पर सीखते हम खुद उससे उलझ कर ही है.
किसी भी पुरानी सभ्यता की तरह लंदन में पुराने स्थापत्य और नई इमारतें एक साथ हमजोली की तरह खड़ी नजर आती है. एक तरफ क्रिस्टोफर वारेन की तीन सौ साल पुरानी सेंट पॉल कैथिडरल की अदभुत और दिलकश वास्तुशिल्प है तो दूसरी तरफ कारोबार के दमकते नए भवन हैं जो आधुनिक कला के नजारे दिखाते हैं. शहर के अंदरुनी हिस्सों में मजबूत और विशाल भवन ब्रितानी साम्राज्य के अतीत के गवाक्ष हमारे सामने खोलते हैं.
बहरहाल, थोड़ी दूर पर लंदन टॉवर ब्रिज के दो बुर्ज दिख रहे हैं. आसमान साफ है. सफेद-नीले बादलों का गुच्छा टेम्स नदी पर लटक रहा है. हल्की गुलाबी ठंड है और हवा में खनक. टेम्स नदी के किनारे काफी रौनक और चहल पहल है. नदी के तट पर एक जगह मुझे कुछ कंटीले गुलाबी रंग के फूल दिख रहे हैं मैंने ठहर कर अपने कैमरे में उसे कैद कर लिया. हल्की हवा का स्पर्श पाकर चिनार के हरे-पीले पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं. एक पत्ता उठा कर मैंने अपनी जेब में रख ली.
टेम्स के सम्मोहन में मैं बंधने लगा हूँ. यूरोप की नदियाँ शहरों से इस कदर गुंथी हुई हैं कि आप उसे शहर की संस्कृति से अलगा नहीं सकते. पेरिस में सेन हो, कोलोन में राइन या लिंज में दुना! क्या कभी गंगा, यमुना और पेरियार भी हमारे शहर की संस्कृति का हिस्सा नहीं रही होंगी?
टेम्स के साउथ बैंक पर सेकिंड हैंड किताबों का बाजार सजने लगा है. सामने नेशनल थिएटर की इमारत पर रंग-बिरंगे पोस्टर दिख रहे हैं. दूसरी ओर कुछ फर्लांग की दूरी पर शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर और टेट मार्डन गैलरी है.
लंदन की यात्रा से पहले मेरे बॉस करण (थापर) ने कहा था कि लंदन जाने पर वहाँ के थिएटर मे जरुर जाना और देखना कि किस तरह बिना चीखे-चिल्लाए वे अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं. हमारे बॉलीवुड की तरह नहीं...
शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर के पास पहुँचने पर हमने देखा कि शो छूटने में बस 10 मिनट है. हम पाँच पांउड में खड़े होकर नाटक देखने का टिकट लेकर ‘द गॉड ऑफ सोहो देखने ऑडिटोरियम में घुस गए. खुले आसमान में मंच बना है और दर्शकों के लिए दोनों ओर सामने लकड़ी की दो मंजिला बैठक है. खड़े हो कर देखने वालों के लिए बारिश की बूंदा-बांदी से बचाव का कोई साधन नहीं. जितने लोग दर्शक दीर्घा में बैठे है उतने ही खड़े.
नाटकों में मेरी अभिरुचि रही है पर इस तरह का बेबाक डॉयलॉग और अभिनय पहली बार देखा-सुना. वैसे हमें अगाह कर दिया गया था कि नाटक में अभद्र भाषा (filthy language)’ का प्रयोग है और यह नाटक कमजोर दिलवालों के लिए नहीं है!!
थिएटर के निकल कर हम सोचते रहे कि कैसे नाटक की मुख्य स्त्री पात्र ने मंच पर एक-एक कर अपने कपड़े फेंक दिए...! हमारी संवेदना को झकझोरने के लिए यह एक नया और अलग अनुभव था. वैसे नाटक के कथानक को देखते हुए हम दृश्य संयोजन से अचंभित नहीं थे.
शाम हो रही थी और हमें तय करना था कि अब लंदन के किस कोने में हमें जाना है. किन सड़कों पर भटकना है.

बातों बातों में मैंने कहा कि कार्ल मार्क्स की कब्र लंदन में ही है.
अच्छा! मुझे पता नहीं था….विवियन ने कहा. हाइड पार्क या मार्क्स की कब्र- दो में एक चुनना था और हमनें हाईगेट कब्रगाह जाने का निश्चय किया.
कब्रगाह शहर से बाहर था. हाईगेट स्टेशन पर ट्यूब से निकल कर हम जिस कॉलोनी से कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे वह पॉश कॉलोनी लग रही थी. ऊँची पहाड़ियों पर खूबसूरत भवन. महंगे कार और करीने से सजे लॉन.
दो-तीन किलोमीटर पैदल चल कर जब हम कब्रगाह पहुँचे शाम के करीब सात बज रहे थे.
चारों तरफ सन्नाटा था और कब्रगाह में ताला लटक रहा था. अगल-बगल हमने नजर दौड़ाई पर वहाँ कोई नहीं दिख रहा था. अलबत्ता कब्रगाह के अंदर एक लोमड़ी टहलती दिख रही थी.
इसी बीच सड़क पर निकले एक व्यक्ति को रोक कर हमने पूछा कि क्या मार्क्स की कब्रगाह यही है?’
भले मानुष ने थोड़ी हताशा भरी स्वर में कहा किबेशक यही है. पर आप देर हो चुके हैं. यह पाँच बजे बंद हो जाती है.
हमारे चेहरे पर आए निराशा के भाव को पढ़ कर उन्होंने पूछा आप कहाँ से आए हैं?
मैं भारत से हूँ और ये ऑस्ट्रिया से आई हैं...
कोई नहीं, आप फिर कल आ जाइएगा...
विवियन ने कहा कि क्यों ना हम मार्क्स के नाम एक संदेश छोड़ जाएँ. मैनें कहा जरूर..
कामरेड मार्क्स, हृदय के अंतकरण से हमारी श्रद्धांजलि! दुनिया बदल गई है पर इस बदली हुई दुनिया में तुम्हारे सिद्धांतों की जरुरत कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई है!’
विवियन ने कपड़े के एक छोटे से टुकड़े में इस संदेश को लपेट कर कब्रगाह के दरवाजे पर बांध दिया...
(चित्र में, टेम्स पर बने मिलेनिएम ब्रिज से सेंट पॉल कैथिडरल का नजारा, हाईगेट सेमिटेरी के गेट पर विवियन. जनसत्ता में समांतर कॉलम के तहत 9 नवंबर 2011 को प्रकाशित)

5 comments:

सुमन केशरी said...

मार्मिक विवरण... हाईगेट चुनना अच्छा लगा...

निरंजन कुमार सामरिया said...

सर, मैं आपके ’ओब्जर्वेशन’ का दूसरी बार कायल हुआ हूं, दूसरी बार इसलिये कि मैंने दूसरी बार ही ’वेब’ पर आपका लिखा हुआ पडा है.

Vishal Yadav said...

Arvind ji, aapka yeh yatra vritant bahut bhaya, sachmuch ek ek shabd us pure drishya ko jiwant kar dete hain jo abhi hum apni khud ki aankho se dekhne se mahrum hain, haan shabdo ka sath bhawnao ne bhi bharpur diya hai, London dikhane ke liye shukriya. Na jane kab Bharat me bhi log weakend par boring movies ki jagah theatre dekhne jayenge. khair isi ummid ke sath ek bar phir aapki kalam ko dhanywad....

Arvind Das said...

@सुमन जी, निरंजन, विशाल आप सभी का शुक्रिया...

Randhir Singh Suman said...

nice