Friday, June 14, 2013

मेहनतकशों का शहर


जिगन को 'मुफस्सिल' तो नहीं कहेंगे पर बर्लिन, बोन, कोलोन की तुलना में यह शहर अपनी शान में छोटा है.  और जैसा कि हर छोटे शहरों या मुफस्सिल में रहने वालों के साथ होता है, वे आस-पास के शहरों की ओर हसरत और कुछ ईर्ष्या से देखते रहते हैं.

तीन वर्ष पहले जब कुछ महीने के लिए आया था तो लोगों को आश्चर्य लगता था कि दिल्ली जैसे विशाल महानगर का आदमी इस छोटे शहर में कैसे खुश रह रहा है. तब रोमानिया मूल की जर्मनी में पली-बढ़ी योआना पूछती थी दिल्ली से कैसे यहाँ! यह शहर तो नहीं जँच रहा होगा ! मैं कहता था- अरे! इसलिए तो जँच रहा है! योआना दिल्ली, कोलकाता देख आई है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के करीब 70 वर्षों के बाद युद्ध की पीड़ा से जर्मनी उबर भले गया हो, उसके भूत ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है. कल जब हम कुछ प्रोफेसर के साथ रात का खाना खा रहे थे तब एक प्रोफेसर ने हँसते हुए पूछा- अच्छा बताइए, एक तो जर्मनी युद्ध के लिए प्रसिद्ध रहा है और दूसरा किस चीज से उसकी खासियत झलकती है. किसी ने कहा, समय की पाबंदी, किसी ने कहा, दक्षता और किसी ने कहा बीयर! पर हँसते हुए फिर उन्होनें ही जवाब दिया- 'गलत, हम युद्ध हारने के लिए भी प्रसिद्ध है!'

असल में करीब सात-आठ सौ साल पुराने इस शहर का अस्सी प्रतिशत हिस्सा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नष्ट हो गया था. इसे इसलिए भी निशाना बनाया गया क्योंकि उत्तरी-राइन वेस्टफेलिया में पड़ने वाला उत्तरी-पश्चिमी यह क्षेत्र लौह-इस्पातों से भरा-पूरा था.  और मुख्यत:  कामगारों का शहर था. नष्ट नीड़ का निर्माण आप कितना भी कीजिए, पर क्या आप पुरानी रौनक को पा सकेंगे? फिर भी मेहनतकशों ने नए सिरे से इस शहर को बुना और आज जर्मनी के किसी भी अन्य शहर की तरह आज उतना ही जर्मन है. छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा, बीचों-बीच बहती जिग नदी ,  बारिश की फुहाड़ और केंद्र में जिगन विश्वविद्यालय. सत्तर के दशक में क्षेत्रीय विकास के लिए सरकार ने इसके केंद्र में विश्वविद्यालय की स्थापना की और आज यह मुख्य रूप से 'यूनिवर्सिटी टाउन' कहलाता है.  किसी भी विश्वविद्यालय में मौसम के बदलने के साथ प्रवासी पक्षियों की तरह विद्यार्थियों का आना-जाना लगा रहता है. लेकिन युवाओं की चहल-पहल, गहमागहमी बरकरार रहती है. भारत अभी युवाओं का देश है , इसके ठीक उलटा जर्मनी में उम्र के आखिरी चरण की ओर बढ़ते लोगों की जनसंख्या काफी अधिक है. और यह यहाँ के लोगों और जर्मनी के सरकार की मूल चिंता है. 

पिछली बार सर्दी से उकताए लोग वसंत के आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे. पर जून महीने में चारों तरफ हरियाली वैसी है जैसे भारत में मानसून के समय होती. नौ साढ़े-नौ बजे अंधेरा होता है, ऐसा लगता है सूरज 'ओवर टाइम' कर रहा हो! 
योआना

भारत और जर्मनी में 'राजनीति, घर्म और मीडिया 'के संबंधों को लेकर यहाँ  एक सेमिनार का आयोजन है और इसी सिलसिले में हम कुछ भारतीय दोस्तों और प्रोफेसरों के साथ आए हैं.  शाम को हम योआना से मिले. योआना मल्टीनेशनल कंपनी के कर्मचारियों को अंग्रेजी पढ़ाने के बाद आई थी. वे कहती है कि भूमंडलीकरण के बाद ऐसे लोगों की माँग बढ़ी है जो अंग्रेजी जानते हो क्योंकि इन कंपनियों का कारोबार भारत और अमेरिका जैसे देशों के साथ है और अंग्रेजी की जरुरत होती है. पर यहाँ लोगों में अंग्रेजी नहीं जानने को लेकर झिझक या विनम्रता से उपजी एक स्वभाविक हया जो हमारे अंदर होती है वह भले हो ,पर शर्म नहीं है जैसा कि हममें आम तौर पर होती है. किताब की दुकानों पर जर्मन में ढेरों किताबें और किसी एक छोटे से खंड में अंग्रेजी की किताबें दिखती हैं. 

योआना शाहरुख खान की जबरदस्त फैन है. पिछली बार वो मुझे अपने घर 'ओम शांति ओम' दिखाने ले गई थी. मैंने पूछा कि क्या 'जब तक है जां', देख ली? उसने कहा अभी नहीं, हां, 'रा वन' देखी थी. मैंने पूछा कि क्या तुम्हारे माता-पिता भी हिंदी फिल्म देखते हैं? अपने हाथों को इस अंदाज में झटका कि क्या बात करते हो. पर साथ ही जोड़ा कि मेरी दादी जरुर देखती थी. रोमानिया में राज कपूर की आवारा और तीसरी कसम काफी चर्चित थी. मेरी दादी इन फिल्मों का जिक्र करती थी और आवारा मुझे भी पसंद है.


(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 22 जून 2013 को प्रकाशित)

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