Sunday, October 11, 2020

दर्शकों की तलाश में 'मिथिला मखान'

मैथिली सिनेमा के इतिहास में ‘मिथिला मखान’ एक मात्र ऐसी फिल्म है, जिसे वर्ष 2016 में मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. पर चार साल के बाद भी इस फिल्म को कोई सिनेमा हॉल प्रदर्शन के लिए नहीं मिला. यहाँ तक कि कोरोना काल में कोई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भी इसे प्रदर्शित करने के लिए राजी नहीं हुआ. अंततः पिछले हफ्ते फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा ने इसे अपने ऑनलाइन पोर्टल (बेजोड़ डॉट इन) पर रिलीज किया है.

वे कहते हैं कि ‘मैथिली फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई उत्साह नहीं है. हम सौभाग्यशाली थे जो हमें एक एनआरआई निवेशक मिले.’ नितिन चंद्रा बिहार की भाषाओं में फिल्म बनाने वाले एक उत्साही युवा फिल्मकार हैं. इससे पहले उन्होंने भोजपुरी में ‘देसवा’ फिल्म बनाई थी. 'मिथिला मखान' मिथिला में रोजगार की समस्या, पलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.
जहां मिथिला की साहित्यिक और सांस्कृतिक विशिष्टता आधुनिक समय में भी कायम रही, सिनेमा के क्षेत्र में उसे एक मुकाम हासिल नहीं हो पाया है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि अश्लीलता को अपना कर ही सही, भोजपुरी सिनेमा ने एक मुकाम बना लिया है, पर ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अबतक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ यूँ तो फणि मजूमदार निर्देशित ‘कन्यादान’ (1965) फिल्म को पहली मैथिली फिल्म होने का दर्जा मिला है, इस फिल्म की भाषा हिंदी और मैथिली थी. चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा की प्रसिद्ध रचना ‘कन्यादान’ पर आधारित इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है.

इससे पहले वर्ष 1963-1964 में ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से एक मैथिली फिल्म का निर्माण शुरू किया गया, पर लंबे समय के बाद यह फिल्म पूरी होकर 80 के दशक के मध्य में ‘ममता गाबय गीत’ नाम से रिलीज हुई. इस फिल्म से निर्माता के रूप में जुड़े रहे 84 वर्षीय केदारनाथ चौधरी बताते हैं कि उस जमाने में इस फिल्म को भी वितरक नहीं मिला था. ऐसा लगता है कि इन दशकों में मैथिली सिनेमा एक अपना दर्शक वर्ग तैयार नहीं कर पाया है, एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. भोजपुरी और मैथिली में फिल्म बनाने की शुरुआत एक साथ हुई. पर जैसा कि केदारनाथ चौधरी हताश स्वर में कहते हैं कि ‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’
बीते दशकों में मिथिला में सिनेमा प्रदर्शन को लेकर कोई माहौल नहीं दिखता है. दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर जो सिनेमाघर थे, वे भी लगातार कम होते गए और जो सिनेमाघर बचे हैं, वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली भाषा को शामिल किए जाने के बावजूद लोगों में इस भाषा को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं, वे भी अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर खास उत्साही नहीं हैं.

(प्रभात खबर, 11 अक्टूबर 2020)

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