Thursday, December 24, 2020

Glad did I live and gladly die: Obituary

(14.10.1942-15.12.2020)
पापा (अनिरुद्ध दास) चाहते थे कि हम स्कॉलर बने. वे हमेशा अपने नाती-पोते को ऑक्सफोर्ड-कैंब्रिज भेजने की बात करते थे, पर हमारे बारे में ऐसा नहीं कहते थे. वे जानते थे कि उनके पास हमारे लिए साधन नहीं थे. असल में बिहार-झारखंड में बिजली विभाग में अस्टिटेंट इंजीनियर की नौकरी करते हुए बेहद ईमानदार बने रहे. उनके जैसा ईमानदार जीवन में दो-एक लोग ही मुझे अब तक मिले हैं, जो मेरे क़रीब हैं.

बड़े भाई (Navin Das) कहते हैं कि एक बार पापा ने उनसे पूछा था कि तुम बड़े होकर घूस कमाओगे? बचपने में बड़े भाई ने कहा था-हां. पापा का जवाब था कि 'फिर मैं तुम्हारे यहाँ पानी भी नहीं पीऊंगा'.

साहित्य वगैरह नहीं लिखा, पर वे हमेशा रचनात्मक रहे. वे अपनी आत्मकथा लिखना चाहते थे. बचपन में मैं बेहद recalcitrant (हठी और जिद्दी) था. वे माँ से कहते थे कि-इसमें जो destructive urge है उसे constructive urge की तरफ मोड़ दीजिए.

वे अति संवेदनशील और आदर्शवादी थे. इतने कि मनोविज्ञान जिसे मनोविकार कहता है. हमारे लिए वे 'स्पेशल फादर' थे. 23 नवंबर को जब वे अस्पताल में भर्ती थे, तब खाना नहीं खा रहे थे. लाख कोशिश के बावजूद उन्होंने नहीं खाया. रात के तीन बजे मुझे आवाज़ देते हुए पूछा- बेटा, तू खेलैं (तुमने खाया)? मैं रो पड़ा था.

काफी संघर्ष में वे पले-बढ़े थे. बचपन में खाने-पीने की भी दिक्कत रही थी उन्हें. वे कहते थे-खाए-खर्चे जो बचे, सो धन रखिए जोड़.

वे दिल्ली में मेरे खर्च से परेशान रहते थे. मुझे और मेरे मित्रों से बार-बार कहते थे कि इसे बोलिए एक मकान ख़रीदेगा. मैं उन्हें टीज करता था कि स्कॉलर के पास पैसा नहीं रहता मकान के लिए. उन्होंने मुझे जाते-जाते एक मकान खरीद दिया. पर वे उस मकान में रहे नहीं.

वे आध्यात्मिक व्यक्ति थे. ऋत्विक थे. सबसे प्रेम करते थे, पर उनमें मोह नहीं था.

उन्हें विनय पत्रिका का यह पद-मन पछितैहै अवसर बीते, काफी पसंद था, जो उन्होंने अपने पिता से सुना-सीखा था. वे अक्सर गाते थे-सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते/ अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते.

.............

In June evening this year papa was reciting a poem (requiem) . He read it in his school, taught by a teacher named Latif master saheb. I recorded it on my phone. Then I asked him why (?). Now I understand what he was saying:
Under the wide and starry sky/ dig the grave and let me lie/ glad did I live and gladly die/And I laid me down with a will

This be the verse you grave for me: Here he lies where he longed to be;/Home is the sailor, home from sea, / And the hunter home from the hill

1 comment:

Pallavi Prakash said...

सादर नमन।