Sunday, September 12, 2021

बीस साल बाद: 9/11

ग्यारह सितंबर को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेंड सेंटर के टॉवरों पर आंतकी हमले की 20वीं बरसी मनाई गई. फिर से टेलीविजन चैनलों पर अगवा किए यात्री विमानों के टकराने से ढहते टॉवरों के दृश्य दिखाए गए. टेलीविजन के इतिहास में इस तरह के हृदय विदारक दृश्य कम ही मिलते हैं. मेरा मन बीस साल पहले लौट गया. वर्ष 2001 में एक महीने पहले ही हम पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली गए थे.  यह दृश्य ऐसा था जैसे कि स्वप्न में कोई हॉलीवुड का सिनेमा चल रहा हो. प्रसंगवश इसी दौर में भारत में चौबसी घंटे टेलीविजन चैनलों ने अपना प्रसारण शुरु किया था. आने वाले दिनों में बार-बार ये दृश्य दिखाए जाते रहे. टीवी स्टूडियो में बहस-मुहाबिसा के नए दौर की यह शुरुआत थी.

इस हमले के बाद इकॉनामिस्ट पत्रिका ने ध्वस्त टॉवरो से बने अपन कवर पेज के नीचे लिखा था- द डे द वर्ल्ड चेंज्ड. निस्संदेह, इस घटना ने पिछले बीस सालों में दुनिया को काफी बदल दिया. हालांकि इस पर कम ही बात की जाती है कि किस तरह इस घटना ने मीडिया और खास कर टेलीविजन समाचार की संस्कृति को बदला.

आतंकी हमलों में करीब तीन हजार लोगों की मौत हुई थी. अमेरिकी समाज में देशभक्ति का ज्वार इस तरह फैला कि मीडिया में तथ्य और सत्य की जगह भावनाओं पर जोर बढ़ा. राज्य सत्ता ने मीडिया पर नकेल कसने शुरु किए. इस बीच बाजार और इंटरनेट के घोड़े पर सवाल भूमंडलीकरण का रथ भी उतरा. भारतीय मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा. पत्रकारिता की शब्दावली में कई नए शब्द जुड़े. वॉर ऑन टेरर’ (आतंक के खिलाफ लडाई) और इस्लामिक टेररिज्म (इस्लामिक आतंकवाद) जैसे शब्द पर्यायवाची बन गए. मीडिया में इस्लाम को हिंसा के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा. मुसलमानों की स्टरियोटाइप छवियों के साथ गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम जैसे खांचे बना कर टीवी स्टूडियो बहस किए जाने लगे. दूसरे शब्दों में, राजनीतिक लड़ाई सांस्कृतिक हथियारों से लड़ी जाने लगी. मीडिया जाने-अनजाने इसमें सहयोग देने लगा, बिना यह पूछे कि आतंकवाद के पीछे क्या राजनीति हैं. शीत युद्ध और सभ्यताओं के संघर्ष के अख्यान की इसमें क्या भूमिका रही है? बाद के सालों में टीवी चैनलों पर राष्ट्रवाद की जो बहस चली उसमें मुसलमानों को अन्य के रूप में देखने पर जोर रहा.

बहरहाल, जैसे-जैसे अफगानिस्तान, इराक में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध फैलता गया, पश्चिमी देशों के कई मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता संदिग्ध होती गई.  सैन्य इकाइयों से जुड़े पत्रकारों- एंबेडेड जर्नलिस्ट, की संख्या बढ़ती गई, ऐसे में उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगे. यहाँ तक कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा (वेपन ऑफ मास डिस्ट्रकशन-सामूहिक विनाश के हथियार) में भाग लिया उसकी काफी आलोचना हुई. इसी बीच संचार की तकनीकी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के उभार से आतंकी समूहों ने भी समाचार संस्थानों का इस्तेमाल शुरु किया. यह प्रवृति बाद के वर्षों में बढ़ती गई.

अफगानिस्तान युद्ध के दौरान कवरेज को लेकर सीएनएन और बीबीसी से इतर अल-जजीरा समाचार चैनल खास तौर से उल्लेखनीय है. हग माइल्स ने अपनी किताब अल जजीरा: हाउ अरब टीवी न्यूज चैलेंज्ड द वर्ल्ड में  सितंबर 11 शीर्षक अध्याय में लिखा है: अमेरिकी प्रशासन की नजर में  9/11 का मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन था. अल जजीरा को ओसामा बिन लादेन का एक फैक्स 16 सितंबर को मिला जिसमें उसने कहा था कि वह अफगानिस्तान में है और सत्ताधारी तालिबान के कानूनों का पालन करेगा. हालांकि उसने अमेरिका में हमले से इंकार किया था. इस तरह के फैक्स अल-जजीरा को बाद के दिनों में भी मिलते रहे. 20 सितंबर को अल-जजीरा ने ओसामा बिन लादेन के वर्ष 1998 में दिए एक इंटरव्यू को फिर से प्रसारित किया था. काबुल पर जब अक्टूबर में अमेरिका ने हमला किया अल जजीरा ने फिर से ओसामा बिन लादेन का एक टेप किया हुआ भाषण प्रसारित किया जिसमें उसने अमेरिका में हुए हमले की जिम्मेदारी नहीं ली थी, पर जिन आतंकवादियों ने इसे अंजाम दिया था उसे अपना सहयोग देने की बात की थी. शुरुआत में अल-जजीरा की आलोचना और भर्त्सना हुई पर पश्चिमी देशों के मीडिया संस्थानों ने बाद में अफगानिस्तान में युद्ध के दौरान इस चैनल के फुटेज का इस्तेमाल अपने कार्यक्रम में किया. अल-जजीरा की ख्याति बढ़ती चली गई. यहाँ यह नोट करना उचित होगा कि बीस साल चले इस युद्ध में हजारों आम नागरिकों, सैनिकों की मौत के साथ-साथ 72 पत्रकारों ने अपनी जान गवाँई.

बीस साल बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैनिक अफगानिस्तान छोड़ कर जा चुके हैं. तालिबान फिर से सत्ता में हैं. पिछले महीने काबुल हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती बम विस्फोट में सैकड़ों लोगों की जान गई. टेलीविजन चैनलों पर विमर्शकारों के बीच तालिबान 1.0 और तालिबान 2.0 की बहस जारी है. आतंकवाद देश-दुनिया से खत्म नहीं हुआ है. अल कायदा ने अपने रूप बदल लिए हैं. आने वाले सालों में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया की क्या भूमिका होगी, यह देखना रोचक होगा.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

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