Friday, September 24, 2021

सद्गति के चालीस साल: परदे पर साहित्य

ओम पुरी (सद्गति)

सत्यजीत रे ने हिंदी में दो फिल्मों का निर्देशन किया है. दोनों ही प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित हैं. सच तो यह है कि बांग्ला में भी सत्यजीत रे की अधिकांश फिल्में साहित्यिक कृतियों पर ही आधारित रही हैं. उनके जन्मशती वर्ष में जहाँ अपू त्रयी (पाथेर पांचाली, अपराजिता, अपूर संसार)’, ‘चारुलता’, ‘शतरंज के खिलाड़ीआदि फिल्मों की चर्चा होती है, वहीं सद्गति फिल्म की चर्चा छूट जाती है. इसकी क्या वजह है?

हर उत्कृष्ट कला की तरह ही सत्यजीत रे की फिल्में समय से साथ नए अर्थ लेकर हमारे सामने उद्धाटित होती है. हाल के वर्षों में हिंदी साहित्य और सिनेमा में जाति का सवाल मुखर रूप से अभिव्यक्त हुआ है, ऐसे में सद्गति की प्रासांगिकता बढ़ जाती है. फिल्मकार और समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता (रे ने चिदानंद दास गुप्ता के साथ मिलकर वर्ष 1947 में कलकत्ता फिल्म सोसाइटी की स्थापना की थी) ने इस फिल्म के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि सद्गति राय की सर्वाधिक आक्रोशपूर्ण फिल्म है जिसमें से हिमशीतल उच्छवास की गुनगुनाहट उभरती रहती है.रे की फिल्मों में उद्धाटित मानवीयता, काव्यात्मक संवेदनशीलता को समीक्षक रेखांकित करते रहे हैं. सद्गतिमें भी यह स्पष्ट है. पर जो चीज इस फिल्म को विशिष्ट बनाती है वह है साहित्य का सिनेमा में सहज रूपांतरण. जिस भाषा में प्रेमचंद ने लिखा था उसे बिंबों के माध्यम से रे ने परदे पर उतारा है, लेकिन दुखी (ओम पुरी) की आँखों में जो आक्रोश दिखता है, लकड़ी चीरते हुए जो उसकी कुल्हाड़ी चलती है वह हमारी चेतना पर ज्यादा चोट करती है.

यह कहानी अछूत दुखी (ओम पुरी) और ब्राह्मण घासीराम (मोहन आगाशे) के इर्द-गिर्द घूमती है. दुखी और घासीराम के माध्यम से भारतीय समाज में जो जाति भेद है, इसके साथ-साथ लिपटी हुई जो अमानवीयता है उसे प्रेमचंद ने निर्दयता से निरूपित किया है. इस कहानी का कालखंड आजादी से पहले का भारत है, जहां जातिवाद सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति का एक अंग था. रे ने जब वर्ष 1981 में इसे निर्देशित किया तब भी जातिवाद का यथार्थ समाज में मौजूद था और आज भी है!

बहरहाल, यदि हम सत्यजीत रे की अन्य चर्चित फिल्म शतरंज के खिलाड़ीके फिल्म रूपांतरण से सद्गतिकी तुलना करें तो पाते हैं कि सद्गतिमें रे ने कहानी में उस तरह से फेर-बदल नहीं किया है जैसा कि शतरंज के खिलाड़ीमें दिखता है. यहाँ पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि कुँवर नारायण जैसे लेखक प्रेमचंद की कहानी शतरंज की खिलाड़ीके साथ फेर-बदल और ग्लैमरसे खुश नहीं थे और उन्होंने दबी जुबान में इसकी आलोचना की थी. सत्यजीत रे ने हालांकि अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचालीमें भी विभूति भूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास को परदे के लिए संगठित कर दिया और कुछ ऐसे दृश्य रचे जो उपन्यास में मौजूद नहीं हैं. यहाँ गालिब याद आते हैं: क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब/ आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की.

शतरंज के खिलाड़ी में ब्रिटिश राज और लखनऊ के नवाबी संस्कृति के विघटन का चित्रण है. यहाँ विलासिता और अपसंस्कृति है. सुरेश जिंदल ने इस फिल्म को प्रोडयूस किया था और रे की यह काफी महंगी फीचर फिल्म रही है. उसके उलट सद्गतिभारत की पहली टेलीफिल्म है, जिसे दूरदर्शन ने प्रोडूयस किया था. यह महज 52 मिनट की फिल्म है. चर्चित अभिनेता मोहन आगाशे कयास लगाते हैं कि संभव है कि इस वजह से भी सद्गति की चर्चा उस रूप में नहीं हुई जिसकी अपेक्षा थी. पर आज यह फिल्म यूट्यूब पर सहज उपलब्ध है.

इस फिल्म का जो अंत है वह कहानी से अलग है. साथ ही फिल्म में कहानी से अलग प्रतीकात्मक रूप में रावण की मूर्ति (बिंब) मौजूद है जिसका इस्तेमाल फिल्म में नहीं होता है. इस संबंध में मोहन आगाशे ने मुझे कहा- असल में इस फिल्म का अंत चिलचिलाती धूप में होना था और रावण को जलना था, लेकिन मौसम बदल गया और बारिश आ गई थी. माणिक दा (सत्यजीत रे) ने फिल्म के अंत को प्रकृति के साथ जोड़ दिया. जब आप फिल्म का अंत देखेंगे तो महसूस करेंगे कि बारिश के दौरान  दलदल में दुखी के लाश को घसीटते घासीराम और रोती हुए स्त्री का दृश्य ऐसा है जैसे कि प्रकृति कुपित हो.याद कीजिए कि पाथेर पांचाली में भी रे ने प्रकृति का कलात्मक इस्तेमाल किया है, जो कि दर्शकों पर एक अलग छाप छोड़ता है.  रे फिल्म निर्माण के दौरान हर पक्ष-पटकथा, संवाद, कैमरा आदि को लेकर बहुत ही सजग रहते थे और सब कुछ पहले से निर्धारित रहता था. इस फिल्म का अंत एक तरह से उनकी फिल्म निर्माण की शैली का अपवाद कहा जाएगा.

इस फिल्म के अंत में जो सिनेमाई बिंब रे ने रचा है उसे एक बार फिर से देखते हुए जाति, दलितों के संघर्ष और सामाजिक न्याय के सवाल को मुखर रूप से रचने वाली अनुभव सिन्हा निर्देशित फिल्म आर्टिकल 15की याद आती है. इस फिल्म में भी बारिश के जो दृश्य हैं वे जाति की अमानवीयता को तीखे ढंग से हमारे सामने लाती है और पीड़ा को घनीभूत करती है. इस अर्थ में आर्टिकल 15’ ‘सद्गतिका विस्तार है.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए, 23.09.21)

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