Wednesday, August 03, 2022

अमृतकाल में जनता के कवि आलोकधन्वा


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा जीवन के 75वें वर्ष में हैं. कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच इस कदर मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैंपर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. सच तो यह है कि इस किताब को छपे भी करीब पच्चीस साल हो गए.

वर्ष 1972 में फिलहाल और वाम पत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टर’ और जनता का आदमी प्रकाशित हुई थी. राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर आधारित फिलहाल पत्रिका खुद वर्ष 1972 में ही प्रकाश में आई थी. इस पत्रिका के संपादक वीर भारत तलवार थेजो उन दिनों पटना में रह कर वाम आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट थे. उनकी कविता की भाषा-शैलीआक्रामकता और तेवर को लोगों ने तुरंत नोटिस कर लिया था. 70 का दशक देश और दुनिया में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था.

आजादी के बीस साल बाद देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की गूंज उठी थी. युवाओं में सत्ता और व्यवस्था के प्रति जबरदस्त आक्रोश था. साथ ही सत्ता का दमन भी चरम पर था. सिनेमा में इसकी अभिव्यक्ति मृणाल सेन अपनी कलकत्ता त्रयी फिल्मों में कर रहे थे. भारतीय भाषाओं के साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज पहुँच रही थी. आलोकधन्वापाश (पंजाबी), वरवर राव (तेलुगू) जैसे कवि अपनी धारदार लेखनी से युवाओं का स्वर बन रहे थे. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब नक्सलबाड़ी के दौर में लिखा है: ‘आलोक की कविता में बेचैनी भरी संवेदनशीलता के साथ प्रतिरोध भाव और आक्रामक मुद्रा होती थी. वाणी में ओजस्वितारूप विधान में कुछ भव्यता और शैली में कुछ नाटकीयता होती थी.’ गोली दागो पोस्टर में वे लिखते हैं:

यह कविता नहीं है

यह गोली दागने की समझ है

जो तमाम क़लम चलानेवालों को

तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है.

इसी कम्र में भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते जैसी उनकी कविताएँ काफी चर्चित हुई थी. भागी हुई लड़कियाँ कविता सामंती समाज में प्रेम जैसे कोमल भाव को अपनी पूरी विद्रूपता के साथ उजागर करती है.

आलोकधन्वा की कविताओं में एक तरफ स्पष्ट राजनीतिक स्वर हैजो काफी मुखर है, वहीं प्रेमकरुणास्मृति जैसे भाव हैं जो उनकी कविताओं को जड़ों से जोड़ती हैं. महज चार पंक्तियों की रेल शीर्षक कविता में हर प्रवासी मन की पीड़ा है. एक नॉस्टेलजिया हैजड़ों की ओर लौटने की चाह है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है

जो माँ के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई

धुआँ उड़ाती हुई.

इसी तरह एक और उनकी रचना हैएक जमाने की कविता. आलोकधन्वा ने लिखा है:

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती

गुनगुनाती रहती

हम माँ को तंग करते

उसे दुल्हन कहते

माँ तंग नहीं होती

बल्कि नया गुड़ देती

गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते.

एक ज़माने की कविता’ पढ़ते हुए मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. एक बार मैंने उनसे पूछा था क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थेउन्होंने कहा- "स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थीजिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. अब माँ तो सिर्फ एक मेरी ही नहीं है. भावुकता स्वाभाविक है.

फिर मैंने पूछा कि क्या यह नॉस्टेलजिया नहीं हैतब उन्होंने जवाब दिया कि नहींयह महज नॉस्टेलजिया नहीं है. आलोकधन्वा ने कहा कि जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा हैअपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ मिलता है. चाहे वह विद्यापति होरिल्के हो या नेरुदा.

आलोकधन्वा की कविता में जीवन का राग हैलेकिन यह राग उनके जीवन के अमृत काल में भी विडंबना बोध के साथ उजागर होता है. हाल ही में साहित्य वार्षिकी (इंडिया टुडे) पत्रिका में छपी उनकी ये पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती है:

अगर भारत का विभाजन नहीं होता

तो हम बेहतर कवि होते

बार-बार बारुद से झुलसते कत्लगाहों को पार करते हुए

हम विडंबनाओं के कवि बनकर रह गए.

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. आजादी के साथ देश विभाजन की विभीषिका लिपटी हुई चली आई थीउस त्रासदी का दंश आज भी कवि भोग रहा है.

आलोकधन्वा कविता पाठ करते हुए अक्सर इसरार करते हैं कि ताली मत बजाइएगा’. उनकी कविताएँ मेहनतकश जनता की कविताएँ हैं, यहाँ जीवनसंघर्ष और प्रतिरोध समानार्थक हैं.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

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