Monday, February 27, 2023

डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से ऑस्कर की कितनी उम्मीद


पिछले वर्षों में भारत में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों ने देश के बाहर खूब सुर्खियाँ बटोरी हैं. इन्हें प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया है. हालांकि देश में इन वृत्तचित्रों को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिलता. असल में फीचर फिल्मों का इतना बोलबाला है कि समीक्षक भी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों पर बात नहीं करते. समस्या यह भी है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्में समारोहों तक ही सीमित रह जाती हैं. इनका प्रदर्शन भी फीचर फिल्मों जैसा नहीं होता.

 एसएस राजामौली की फिल्म आरआरआरके गाने नाटू-नाटूको म्यूजिक (ओरिजनल सांग)की श्रेणी में मार्च में होने वाले ऑस्कर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया है. साथ ही वहीं भारत की दो डॉक्यूमेंट्री फिल्में ऑल दैट ब्रीद्सऔर द एलीफेंट व्हिस्परर्स' भी अंतिम पाँच में शॉर्टलिस्ट (नामित) है. पिछले साल फिल्म निर्देशक शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री ऑल दैट ब्रीद्सको कान में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री के लिए गोल्डेन आईपुरस्कार और सनडांस फिल्म समारोह में विश्व सिनेमा वृत्तचित्र श्रेणी में ग्रांड ज्यूरी पुरस्कार मिल चुका है. प्रसंगवश, वर्ष 2021 में पायल कपाड़िया की ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंगको भी कान फिल्म समारोह में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का पुरस्कार मिला है.

एचबीओ ने पिछले हफ्ते ऑल दैट ब्रिदसका प्रसारण किया, अगले महीने इसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भारत में दिखाए जाने की उम्मीद है. द एलीफेंट व्हिस्परर्सनेटफ्लिक्स प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है.

 ऐसा लगता है कि आनंद पटवर्धन, अमर कंवर, संजय काक, कमल स्वरूप जैसे चर्चित फिल्मकारों के बाद डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की दुनिया में युवा फिल्मकारों का समय आ गया है, जिनकी धमक साफ सुनी जा रही है. ऑल दैट ब्रिदसवृत्तचित्र दो भाइयों सऊद, नदीम और उनके सहयोगी सलीक के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बीस साल से दिल्ली में घायल पक्षियों की देखभाल करते हैं. साथ ही दिल्ली में प्रदूषण की समस्या भी इसमें शामिल है. यह वृत्तचित्र दिल्ली के उदासी भरे आसमान में उजले दिनके इंतजार सदृश है.

जहाँ फीचर फिल्मों में मनोरंजन हावी रहता है, वहीं वृत्तचित्रों में किसी विषय के बारे में विस्तार से जानकारी देना और दर्शकों को शिक्षित करने पर जोर रहता है. एक कुशल फिल्मकार फीचर फिल्मों और डॉक्यूमेंट्री की शैली में फर्क नहीं करते. एक बातचीत में चर्चित फिल्मकार कमल स्वरूप ने मुझसे कहा था- मैं फीचर फिल्म डॉक्यूमेंट्री की शैली में और डॉक्यूमेंट्री फीचर फिल्म की शैली में बनाता हूं.’ ‘ऑल दैट ब्रीदसमें जिस तरह से बिंब और ध्वनि का इस्तेमाल किया गया है, वह इसे फीचर फिल्म के करीब ले जाता है. कुल एक घंटे छत्तीस मिनट की इस वृत्तचित्र में इंसान और आस-पास के जीव-जंतुओं के बीच जो एक बिरादरीका भाव है वह देखने वालों के मन को छू जाता है. आत्म और अन्य का विभेद यहाँ मिट जाता है. फिल्म के शुरुआत मे ही चूहे, चील, मेंढक, कुत्ते, बिल्ली, सूअर दिखाई देते हैं. चील की निरीह आँखे हमसे संवाद करती हुई प्रतीत होती है.

इस डॉक्यूमेंट्री के बैकग्राउंड में नागरिकता कानून (सीएए) की अनुगूंज सुनाई पड़ती है, जिसके तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. जहाँ सत्ताधारी पार्टी का कहना है कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता नहीं जाएगी, वहीं इस कानून  का विरोध करने वालों का कहना है कि धर्म आधारित नागरिकता का यह प्रावधान विभेदकारी और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. इस वृत्तचित्र में एक तरफ शांति और अहिंसा, संविधान को बचाने की लड़ाई की आवाज सुनाई पड़ती है, वहीं धर्म के नाम पर विभेद की राजनीति भी बहसतलब है. दिल्ली की प्रदूषित हवामें न सिर्फ चील बल्कि इंसान भी घुट रहे हैं. यह सब मानव निर्मित है.

कार्तिकी गोंसाल्वेस की द एलीफेंट व्हिस्परर्सके केंद्र में एक हाथी है. इंसान और जानवर के बीच रिश्ते को संवेदनशीलता के साथ यहां दिखाया गया है. चालीस मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री में हाथी (रघु) भी एक प्रमुख किरदार है. साथ ही नीलगिरी का सौंदर्य मनमोहक है. फीचर फिल्मों से इतर वृत्तचित्र में एक फिल्मकार को काफी लंबे समय तक अपने विषय का पीछा करना होता है. इसमें फिल्मकारों के धैर्य की परीक्षा हमेशा होती रहती है. सैकड़ों घंटे के फिल्मांकन के बाद एक मुकम्मल डॉक्यूमेंट्री रिलीज के योग्य बन पाती है. यह बात ऑल दैट ब्रीद्सऔर द एलीफेंट व्हिस्परर्स' देखने पर स्पष्ट है.

हालांकि 21वीं सदी के मीडिया में पर्यावरण का सवाल विचार-विमर्श का हिस्सा बना है. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो फीचर फिल्मों में पर्यावरण एक विषय में रूप में नहीं चित्रित हो रहा है, पर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में जल, जंगल और जमीन का सवाल मौजूद रहा है. शौनक सेन और कार्तिकी गोंसाल्वेस जैसे फिल्मकार इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. इनसे ही ऑस्कर की उम्मीद भी है! 


(नवभारत टाइम्स, 27.02.23)

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