Thursday, February 23, 2023

यथार्थपरक समकालीन नाटकों का अभाव


रंगमंच की दुनिया में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के भारत रंग महोत्सव (भारंगम) का विशिष्ट महत्व है. देश-दुनिया के रंगकर्मियों के बीच विचार-विमर्श और रंग प्रस्तुतियों के जरिए पिछले दो दशक में रंग महोत्सव ने रंगकर्म को काफी संवृद्ध किया है. भारंगम को अंतरराष्ट्रीय थिएटर समारोह के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, हालांकि इस बार एक भी अंतरराष्ट्रीय प्रोडक्शन समारोह में नजर नहीं आए जबकि अंतरराष्ट्रीय नाट्य प्रस्तुतियों को लेकर नाट्य प्रेमियों में अतिरिक्त उत्साह देखने को मिलता रहा है. न ही मंडी हाउस के इर्द-गिर्द में पिछले सालों की तरह गहमागहमी थी. एनएसडी परिसर में फूड स्टॉल, बुक स्टॉल नदारद थे, मिलने-बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी. पिछले तीन साल से इस महोत्सव का दर्शकों को इंतजार था. कोरोना के बाद विधिवत इस वार्षिक महोत्सव का आयोजन किया गया, पर ऐसा लगता है कि नवाचार और दृष्टि का पूरी तरह अभाव था. महोत्सव की समयावधि भी घटा दी गई. संस्थान की तरफ से कहा गया कि कोविड की वजह से इस बार विदेशी नाटकों को शामिल करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई.

महोत्सव शुरू होने के पहले चर्चित नाटककार और अभिनेता उत्पल दत्त द्वारा लिखित ‘तितुमीर’ नाटक के मंचन को लेकर विवाद भी हुआ. दरअसल, महोत्सव में  कोलकाता की नाट्य संस्था परिबर्तक के इस नाटक के मंचन को लेकर दिया निमंत्रण वापस ले लिया गया. इस नाटक के केंद्र में एक मुसलमान किसान तितुमीर है, जो ब्रिटिश राज के दौरान बंगाल में हुए किसान विद्रोह का नायक है. इस बार छात्रों के डिप्लोमा प्रोडक्शन को भी महोत्सव का हिस्सा नहीं बनाया गया था और उनकी प्रस्तुति महोत्सव के समांतर चली. ऐसा क्यों हुआ, यह समझ से परे है. एनएसडी के छात्रों में इसे लेकर रोष भी है.

ऐसा लगता है कि एनएसडी जैसे ख्यात संस्थान में एक स्थायी निदेशक का न होना इस महोत्सव के रंग को फीका किया है. पिछले साल छात्र कलात्मक सूझ-बूझ वाले एक स्थायी निदेशक की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर भी बैठे थे. चार साल से संस्थान को कोई निदेशक नहीं मिल पाया है. वर्ष 2018 में तत्कालीन निदेशक वामन केंद्रे का कार्यकाल समाप्त होने के बाद सुरेश शर्मा को प्रभारी निदेशक बनाया गया था. पिछले साल रमेश चंद्र गौड़ ने अतिरिक्त प्रभार के तौर पर संस्थान के निदेशक का पद संभाला था, हालांकि उनकी विशेषज्ञता लाइब्रेरी साइंस की है. साठ सालों के इतिहास में इब्राहिम अल्काजी, वी बी करांत, रतन थिएम, राम गोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर जैसे रंगकर्मी इस संस्थान के निर्देशक रह चुके हैं, जिन्हें पुराने छात्र आज भी शिद्दत से याद करते हैं.

बेंगलुरु और वाराणसी में जो एनएसडी के क्षेत्रीय संस्थान हैं उसकी भी रंगत ठीक नहीं है. इस साल दिल्ली समेत जयपुर, भोपाल, जम्मू, श्रीनगर, गुवाहाटी, रांची, नासिक, राजमुंदरी  और केवडिया शहर में नाटकों का मंचन हुआ. बहरहाल, दिल्ली में विभिन्न भाषाओं सहित रंजीत कपूर (जॉन एलिया का जिन), राकेश बेदी (जब वी सेपरेटेड), सत्यव्रत राउत (शकुंतला), राज बिसारिया (राज) जैसे निर्देशकों के निर्देशन में जो हिंदी नाटकों का मंचन हुआ उसमें भी कोई विशेष रंगदृष्टि नहीं थी.

प्रसंगवश, महाकवि कालिदास के सर्वश्रेष्ठ नाटक शकुंतला (अभिज्ञान शाकुंतलम, अनुवाद मोहन राकेश) का मंचन हैदराबाद विश्वविद्यालय के रंगमंच कला विभाग ने किया, जहाँ पर सत्यव्रत राउत प्रोफेसर हैं. इस नाटक के दृश्य संयोजन अच्छे थे, लेकिन केंद्रीय पात्र दुष्यंत और शकुंतला का अभिनय पक्ष काफी कमजोर था. शकुंतला की दो सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा प्रभावी थीं. इस नाटक में संगीत के लिए ‘कीबोर्ड’ का इस्तेमाल भी खटकता रहा. साथ ही वर्तमान में भारतीय रंगमंच पर बेवजह तकनीक हावी होने लगा है, जिसका असर इस नाटक पर भी था.

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस नाटक के प्रसंग में लिखा है कि, ‘यह मनुष्य और प्रकृति के साथ एकसूत्रता स्थापित करता है और विश्वव्यापी भावचेतना के साथ व्यक्ति की भावचेतना का तादात्मय स्थापित करता है.’ शकुंतला के मंचन के दौरान निर्देशक ने नाटक की मूल भावना, प्रकृति और मनुष्य के बीच सहअस्तित्व, को छेड़े बिना स्त्री स्वातंत्र्य के सवालों को भी घेरे में लिया है. नाटक के आखिर में शकुंतला अपने पिता, भाई-बांधव और पति के सामने अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर उपस्थित है.

भास, कालिदास, भवभूति, शूद्रक केसंस्कृत नाटक राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करते हैं और आज भी दर्शकों को लुभाते हैं. उल्लेखनीय है कि संस्कृत थिएटर के बाद कई सदियों तक देश में थिएटर का अकाल रहा. 18वीं सदी में अंग्रेजी थिएटर के प्रभाव से हिंदुस्तान में आधुनिक थिएटर की शुरुआत होती है.

दिल्ली के अलावे विभिन्न शहरों में महोत्सव के दौरान जो नाटकों का मंचन हुआ उसमें शेक्सपियर (मैकबेथ), प्रेमचंद (बूढ़ी काकी), धर्मवीर भारती (अंधा युग), विजय दान देथा (केंचुली), गिरीश कर्नाड (नागमंडल), महाश्वेता देवी (बायेन) के नाटक ही प्रमुख थे. इन नाटकों की पहले भी कई प्रस्तुतियाँ हो चुकी है. सवाल है कि समकालीन यथार्थ को टटोलने वाली नाट्य प्रस्तुतियों का महोत्सव में अभाव क्यों दिखाई देता है? नाट्य लेखन को लेकर समकालीन साहित्यकार उत्साहित क्यों नहीं है? सवाल यह भी है कि आज पूरे देश में रंगकर्म का फैलाव है, पर इसका व्यावसायिक आधार का क्यों विकसित  नहीं हो पाया है? 

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