Showing posts with label एनएसडी. Show all posts
Showing posts with label एनएसडी. Show all posts

Sunday, April 02, 2023

फिर से अंधा युग का मंचन


 चर्चित साहित्यकार धर्मवीर भारती रचित काव्य-नाटक अंधा युग’ (1954) क्लासिक का दर्जा पा चुका है. वर्ष 1963 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निर्देशक रहे इब्राहिम अल्काजी ने जिस रूप में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला और फिर 1974 में पुराने किले के खंडहर की पृष्ठभूमि में खुले मंच पर इस नाटक को प्रस्तुत किया, वह भारतीय रंगमंच के लिए एक किंवदंती बन चुका है. पिछले साठ सालों में सैकड़ो बार विभिन्न निर्देशकों ने इसका मंचन किया है, लेकिन आज भी रंगकर्मी इसे एक चुनौती के रूप में लेते हैं.

पिछले दिनों एनएसडी के पूर्व निर्देशक राम गोपाल बजाज के निर्देशन में एनएसडी रंगमंडल ने इसका मंचन किया. महाभारत से प्रेरित इस नाटक में युद्ध के अंतिम दिन को आधार बनाया गया है. आस्था, अनास्था, ईश्वर की मृत्यु जैसे सवाल आज भी दर्शक को मथते हैं.

युद्ध की वीभिषिका, ध्वंस, जय-पराजय के बीच निर्थकता का एक बोध आधुनिक मानव की नियति बन चुका है. नाटक की ये पंक्तियाँ- उस दिन जो अंधा युग अवतरित हुआ जग पर/बीतता नहीं रह-रहकर दोहराता है’, जैसे हमारे समय को लक्ष्य कर लिखी गई है. क्या रूस-यूक्रेन युद्ध को मीडिया के माध्यम से देखते-पढ़ते हुए महाभारत की कहानी को हम नहीं जी रहे? क्या हम राजसत्ता के निर्णय को भोगने को अभिशप्त नहीं है? क्या मानवता प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध से कोई सबक ले सकी है? अश्वत्थामा के पागलपन में क्या हम सब शामिल नहीं हैं, जो प्रतिशोध की आग में झुलस रहा है? इन्हीं सवालों में इस नाटक की प्रासंगिकता है.

नाटक में अंधे राजा घृतराष्ट्र और आँखों पर पट्टी बांधे गांधारी कोई मिथक नहीं है, बल्कि ये आधुनिक राजनीति व्यवस्था के यथार्थ को निरूपित करते हैं. नाटक में दो प्रहरी जिस तरह सत्ता का परिहास उड़ाते हैं वह आम आदमी की वेदना और त्रासदी को उजागर करता है.

राम गोपाल बजाज ने मंच की परिकल्पना बेहद सादगीपूर्ण ढंग से की है. उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि इसे एक ऐसा नाटक बनाने की कोशिश कर रहा हूँ कि यह प्रोसीनियम व अन्य सभी जगहों पर आसानी से खेला जा सके.

 मंच पर गांधारी की भूमिका में पोतशंगबम रीता देवी और अश्वत्थामा की भूमिका में बिक्रम लेप्चा प्रभावी थे. असल में, इस नाटक में हर पात्र के अभिनय के लिए चाहे वह प्रहरी हो, वृद्ध याचक हो या युयुत्सु पर्याप्त जगह है. नाटक में सौति चक्रवर्ती की प्रकाश योजना रेखांकित करने योग्य है, पर संगीत प्रभावी नहीं कहा जा सकता. यह नाटक रंग-योजना में अलग से कुछ भी जोड़ने में नाकाम है.

अल्काजी के नाटकों को हमारी पीढ़ी ने नहीं देखा है, पर हमने बजाज को मंच पर अभिनय करते और उनके निर्देशन में हुए नाटकों को देखा है. बजाज जैसे सिद्ध रंगकर्मी से अपेक्षा थी कि इस क्लासिक नाटक को एक नए रूप में लेकर आते. सवाल है कि इस नाटक की प्रस्तुति में क्यों कोई अभिनव प्रयोग लक्षित नहीं होते? धर्मवीर भारती की रचना से आगे जाकर यह प्रस्तुति कुछ भी नया रचने में क्यों नाकाम रही?

Thursday, February 23, 2023

यथार्थपरक समकालीन नाटकों का अभाव


रंगमंच की दुनिया में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के भारत रंग महोत्सव (भारंगम) का विशिष्ट महत्व है. देश-दुनिया के रंगकर्मियों के बीच विचार-विमर्श और रंग प्रस्तुतियों के जरिए पिछले दो दशक में रंग महोत्सव ने रंगकर्म को काफी संवृद्ध किया है. भारंगम को अंतरराष्ट्रीय थिएटर समारोह के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, हालांकि इस बार एक भी अंतरराष्ट्रीय प्रोडक्शन समारोह में नजर नहीं आए जबकि अंतरराष्ट्रीय नाट्य प्रस्तुतियों को लेकर नाट्य प्रेमियों में अतिरिक्त उत्साह देखने को मिलता रहा है. न ही मंडी हाउस के इर्द-गिर्द में पिछले सालों की तरह गहमागहमी थी. एनएसडी परिसर में फूड स्टॉल, बुक स्टॉल नदारद थे, मिलने-बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी. पिछले तीन साल से इस महोत्सव का दर्शकों को इंतजार था. कोरोना के बाद विधिवत इस वार्षिक महोत्सव का आयोजन किया गया, पर ऐसा लगता है कि नवाचार और दृष्टि का पूरी तरह अभाव था. महोत्सव की समयावधि भी घटा दी गई. संस्थान की तरफ से कहा गया कि कोविड की वजह से इस बार विदेशी नाटकों को शामिल करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई.

महोत्सव शुरू होने के पहले चर्चित नाटककार और अभिनेता उत्पल दत्त द्वारा लिखित ‘तितुमीर’ नाटक के मंचन को लेकर विवाद भी हुआ. दरअसल, महोत्सव में  कोलकाता की नाट्य संस्था परिबर्तक के इस नाटक के मंचन को लेकर दिया निमंत्रण वापस ले लिया गया. इस नाटक के केंद्र में एक मुसलमान किसान तितुमीर है, जो ब्रिटिश राज के दौरान बंगाल में हुए किसान विद्रोह का नायक है. इस बार छात्रों के डिप्लोमा प्रोडक्शन को भी महोत्सव का हिस्सा नहीं बनाया गया था और उनकी प्रस्तुति महोत्सव के समांतर चली. ऐसा क्यों हुआ, यह समझ से परे है. एनएसडी के छात्रों में इसे लेकर रोष भी है.

ऐसा लगता है कि एनएसडी जैसे ख्यात संस्थान में एक स्थायी निदेशक का न होना इस महोत्सव के रंग को फीका किया है. पिछले साल छात्र कलात्मक सूझ-बूझ वाले एक स्थायी निदेशक की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर भी बैठे थे. चार साल से संस्थान को कोई निदेशक नहीं मिल पाया है. वर्ष 2018 में तत्कालीन निदेशक वामन केंद्रे का कार्यकाल समाप्त होने के बाद सुरेश शर्मा को प्रभारी निदेशक बनाया गया था. पिछले साल रमेश चंद्र गौड़ ने अतिरिक्त प्रभार के तौर पर संस्थान के निदेशक का पद संभाला था, हालांकि उनकी विशेषज्ञता लाइब्रेरी साइंस की है. साठ सालों के इतिहास में इब्राहिम अल्काजी, वी बी करांत, रतन थिएम, राम गोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर जैसे रंगकर्मी इस संस्थान के निर्देशक रह चुके हैं, जिन्हें पुराने छात्र आज भी शिद्दत से याद करते हैं.

बेंगलुरु और वाराणसी में जो एनएसडी के क्षेत्रीय संस्थान हैं उसकी भी रंगत ठीक नहीं है. इस साल दिल्ली समेत जयपुर, भोपाल, जम्मू, श्रीनगर, गुवाहाटी, रांची, नासिक, राजमुंदरी  और केवडिया शहर में नाटकों का मंचन हुआ. बहरहाल, दिल्ली में विभिन्न भाषाओं सहित रंजीत कपूर (जॉन एलिया का जिन), राकेश बेदी (जब वी सेपरेटेड), सत्यव्रत राउत (शकुंतला), राज बिसारिया (राज) जैसे निर्देशकों के निर्देशन में जो हिंदी नाटकों का मंचन हुआ उसमें भी कोई विशेष रंगदृष्टि नहीं थी.

प्रसंगवश, महाकवि कालिदास के सर्वश्रेष्ठ नाटक शकुंतला (अभिज्ञान शाकुंतलम, अनुवाद मोहन राकेश) का मंचन हैदराबाद विश्वविद्यालय के रंगमंच कला विभाग ने किया, जहाँ पर सत्यव्रत राउत प्रोफेसर हैं. इस नाटक के दृश्य संयोजन अच्छे थे, लेकिन केंद्रीय पात्र दुष्यंत और शकुंतला का अभिनय पक्ष काफी कमजोर था. शकुंतला की दो सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा प्रभावी थीं. इस नाटक में संगीत के लिए ‘कीबोर्ड’ का इस्तेमाल भी खटकता रहा. साथ ही वर्तमान में भारतीय रंगमंच पर बेवजह तकनीक हावी होने लगा है, जिसका असर इस नाटक पर भी था.

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस नाटक के प्रसंग में लिखा है कि, ‘यह मनुष्य और प्रकृति के साथ एकसूत्रता स्थापित करता है और विश्वव्यापी भावचेतना के साथ व्यक्ति की भावचेतना का तादात्मय स्थापित करता है.’ शकुंतला के मंचन के दौरान निर्देशक ने नाटक की मूल भावना, प्रकृति और मनुष्य के बीच सहअस्तित्व, को छेड़े बिना स्त्री स्वातंत्र्य के सवालों को भी घेरे में लिया है. नाटक के आखिर में शकुंतला अपने पिता, भाई-बांधव और पति के सामने अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर उपस्थित है.

भास, कालिदास, भवभूति, शूद्रक केसंस्कृत नाटक राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करते हैं और आज भी दर्शकों को लुभाते हैं. उल्लेखनीय है कि संस्कृत थिएटर के बाद कई सदियों तक देश में थिएटर का अकाल रहा. 18वीं सदी में अंग्रेजी थिएटर के प्रभाव से हिंदुस्तान में आधुनिक थिएटर की शुरुआत होती है.

दिल्ली के अलावे विभिन्न शहरों में महोत्सव के दौरान जो नाटकों का मंचन हुआ उसमें शेक्सपियर (मैकबेथ), प्रेमचंद (बूढ़ी काकी), धर्मवीर भारती (अंधा युग), विजय दान देथा (केंचुली), गिरीश कर्नाड (नागमंडल), महाश्वेता देवी (बायेन) के नाटक ही प्रमुख थे. इन नाटकों की पहले भी कई प्रस्तुतियाँ हो चुकी है. सवाल है कि समकालीन यथार्थ को टटोलने वाली नाट्य प्रस्तुतियों का महोत्सव में अभाव क्यों दिखाई देता है? नाट्य लेखन को लेकर समकालीन साहित्यकार उत्साहित क्यों नहीं है? सवाल यह भी है कि आज पूरे देश में रंगकर्म का फैलाव है, पर इसका व्यावसायिक आधार का क्यों विकसित  नहीं हो पाया है? 

Saturday, March 18, 2017

रंगकर्म में नौटंकी

तमाशा-ए-नौटंकी का एक दृश्य
पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की एक ग्रेजुएट साजिदा के निर्देशन में एक नाटक तमाशा-ए-नौटंकीदेखने का मौका मिला। इसे युवा रंगकर्मी और पत्रकार मोहन जोशी ने लिखा है। यह नाटक लोक नाट्य शैली, नौटंकी के उरूज, अवसान और मौजूदा समय में उसकी बदहाल स्थिति पर एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है। हालांकि यह नाटक दुखांत न होकर सुखांत है। इसमें नाट्यकार नौटंकी की हिंदी समाज में पुनर्वापसी को लेकर यथार्थ के बदले मंच पर एक आदर्श लोक की सृष्टि करता है, जो आश्चर्य में डालता है!

बात चाहे नौटंकी की हो, जात्रा की या भवाई की, आधुनिक समाज में लोक नाट्य विधाओं की जो स्थिति है, वह सुखद नहीं कही जा सकती। जब से पॉपुलर कल्चर और खासतौर पर सिनेमा का प्रचार-प्रसार और मनोरंजन के साधन के रूप में उसकी पहुंच भारतीय समाज में बढ़ी है, लोक में प्रदर्शनकारी कला के जो रूप चलन में थे, वे हाशिये पर आ गए। जाहिर है, सिनेमा के प्रचलन में आने से पहले और बाद के दशकों में भी ये लोक नाट्य विधाएं लोगों की रुचि और प्रोत्साहन की वजह से चलन में रहीं। अगर आज ये दर्शकों या मंच के लिए तरस रही हैं तो इसके लिए हमारा समय और समाज भी जिम्मेदार है।

बेशक सिनेमा आधुनिक समय में मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम है जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी शिल्पों को खुद में समेटे हुए है। भरत मुनि ने नाटक को सर्वशिल्प-प्रवर्तकमकहा था, पर यह बात शिल्प-तकनीक और दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता के कारण सिनेमा के बारे में भी कही जा सकती है। प्रसंगवश, सत्तर के दशक में चर्चित फिल्मकार ऋत्विक घटक ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि अगर कल को या दस साल बाद कोई नया माध्यम सामने आता है जो सिनेमा से ज्यादा प्रभावशाली है, तो मैं तुरंत सिनेमा छोड़ कर उस नए माध्यम को अपना लूंगा।किसी भी प्रतिभाशाली कलाकार या रचनाकार के लिए विचार महत्त्वपूर्ण होते हैं, पर नए माध्यम की तलाश भी उन्हें हमेशा रहती है जो उनकी बातों को दूर और एक वृहद समुदाय तक ले जाए। वह लगातार उस माध्यम की तलाश में रहता है जहां उसके मनोभावों की ठीक ढंग से अभिव्यक्ति मिल सके। इसलिए कहा गया है कि प्रतिभा नवोन्मेषशालिनी होती है।


बहरहाल, बात सिर्फ नौटंकी जैसी लोक नाट्य विधाओं की नहीं है, जिसे सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम से चुनौती मिली, बल्कि आधुनिक नाटक के बारे में भी यह सच है। हाल में कई नाटक ऐसे देखने का मौका मिला, जिनसे काफी निराशा हुई। बल्कि कई मशहूर लेखकों के उपन्यासों पर जैसी कमजोर प्रस्तुति हुई, उसे देख कर लगा कि प्रयोग के नाम पर किस तरह का हल्कापन परोसा जा रहा है। कला और मनोरंजन के साथ-साथ बखूबी सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना करने वाले और बीते लंबे समय से मशहूर किसी उपन्यास की प्रस्तुति भी अगर उसे हल्का बना देती है तो यह चिंता की बात है। नाटकों में प्रयोग ने बहुत ऊंचाई हासिल की है। इसलिए ऐसा नहीं कि नाट्य प्रयोग नहीं होना चाहिए। लेकिन उसके लिए जो दृष्टि या तैयारी होनी चाहिए, वह एक सिरे से गायब दिखती है।

हालांकि इसके लिए दोष सिर्फ नाटक के निर्देशक या उससे जुड़े अदाकारों के सिर नहीं मढ़ा जा सकता। सारे कलाकार पेशेवर नहीं कहे जा सकते। कई ऐसे भी कलाकार होते हैं जो शौकिया रंगमंच से जुड़े होते हैं और जिनके लिए रंगमंच रोजी-रोटी का जरिया नहीं है। ऐसे में इनमें पेशेवर उत्कृष्टता देखने को नहीं मिलती। देश के विभिन्न भागों में जो भी कलाकार रंगकर्म से जुड़े हैं, उनमें अधिकतर के बारे में कहा जा सकता है कि वे अपने जुनून के कारण इसे निबाह रहे हैं या उन्हें मुंबई की मायानगरी में अपना भविष्य दिख रहा है। मगर सवाल है कि मुंबई की मायानगरी में भी इन चार-पांच दशकों में नाटक की पृष्ठभूमि वाले बमुश्किल दस-बीस ऐसे अदाकार हैं जिन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा और पैसा मिला है। बाकी लोगों की क्या स्थिति है, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है या एक चुप्पी का आलम है।

पिछले कुछ दशकों के दौरान बाजार के फैलने के बाद कला के कई रूपों को फायदा पहुंचा है। लेकिन लोक नाट्य विधाएं इससे अछूती रहीं। रंगकर्मियों के लिए बाजार नए अवसर लेकर नहीं आया। ऐसे में तमाशा, नौटंकी या जात्रा के लिए बाजार से कोई उम्मीद नहीं। सवाल उठता है कि फिर उम्मीद किससे है? मेरा उत्तर यह होगा कि उम्मीद उसी समाज से, जो अपनी आदिम अभिव्यक्ति के लिए लोक नाट्य शैलियों का सहारा लेता रहा है। लेकिन तेजी से बदलते इस आधुनिक समाज में क्या यह उम्मीद सच के करीब है!

(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 18 मार्च, 2017 को प्रकाशित)