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Wednesday, June 12, 2019

अयोघ्या नगर के सिंदूरिया


वर्षों पहले किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था- शादी हो तो मिथिला में. जाहिर है, इस लेख में जानकी और पुरुषोत्तम राम की शादी की चर्चा के साथ मिथिला की मेहमाननवाजी और संस्कृति का जिक्र था. पिछले कुछ दशकों में मिथिला क्षेत्र से भारी मात्रा में विस्थापन और पलायन हुआ है, लेकिन शादी-विवाह के लिए मध्यवर्ग वापस गांव-घर लौटता रहा है.
पिछले दिनों जब ऐसे ही एक शादी में भाग लेने का मौका मिला, तो इस लेख की याद हो आयी. मिथिला की संस्कृति शादी-विवाह के अवसर पर अपनी संपूर्णता में निखरकर आती है. बात गीत-संगीत की हो, मिथिला पेंटिंग-सिक्की कला की हो या खान-पान में विन्यास की. इनमें एक निरंतरता दिखती है, पर ऐसा नहीं है कि इनमें बदलाव नहीं आया है.
अस्सी के दशक में ही कैसेट कल्चरने शादी-विवाह में लाउड स्पीकरऔर तकनीक का प्रचलन बढ़ा दिया था. यही दौर था जब पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा के गाये लोक गीतों की धूम मची थी. आज भी शादी-विवाह का आंगन उनके गाये गीतों से गूंजता रहता है. बात चाहे माय हे अयोध्या नगर के सिंदूरिया सिंदूर बेचे आयल हेकी हो या मोहे लेलखिन सजनी मोर मनवा पहुनवा राघोकी. प्रसंगवश, शारदा सिन्हा अपनी मैथिल पहचानको बार-बार रेखांकित करती रही हैं.
वैसे भोजपुरी भाषा-भाषियों के बीच और हिंदी फिल्मों में गाये चर्चित गीतों के माध्यम से उनकी पहुंच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक तक है. पर ऐसा नहीं है कि नयी पीढ़ी मैथिली लोक-गीतों से विमुख है. पसाहीन¸ कुमरम, लावा भुजाई, सिंदूर दान जैसी रस्मों में यह दिखायी देती है. हां, जहां कहीं इनकी टेक टूटती है, वहां घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं संभाल लेती हैं.
पहले शादी-विवाह के दौरान महिलाओं की उपस्थिति परिवार के अंत:पुर में ही दिखती थी, वहीं पिछले कुछ वर्षों में बारात में भी वे नजर आने लगी हैं. सच तो यह है कि बारात में पुरुष बारातियों से ज्यादा उत्साह इनमें ही दिखता है.
मिथिला में शादी के बाद नवविवाहित वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे कोहबर कहा जाता है. कोहबर की रस्मों के साथ मिथिला पेंटिंग लिपटी हुई है. शादी के अवसर पर जिस कागज में भरकर सिंदूर वर पक्ष की तरफ से वधू के यहां भेजा जाता है, उसमें से दो कोहबर, एक दशावतार, एक कमलदह और एक बांस लिखे होने का रिवाज आज भी है, पर समयाभाव के कारण अब एक दिन के बाद ही द्विरागमन (लड़की की विदाई) की प्रथा चल पड़ी है.
साथ ही शादी-बारात में खान-पान के समय जो रच-रच कर खाने का चलन था, वह भी अब कुछ कम हुआ है. इन वर्षों में शादी के समय बारातियों को जो गाली गीत (डहकन) से नवाजने की परंपरा थी, वह कहीं विलुप्त हो रही है. समाजशास्त्रीय दृष्टि से नये संबंधों के प्रगाढ़ बनाने में यह एक मजबूत आधार का काम करता था. 

(प्रभात खबर, 12 जून 2019 को प्रकाशित)

Monday, October 16, 2017

विद्यापति का प्रासंगिक होना

मेरी मां हमारे बचपन में हमेशा एक गीत गाती थीं, ‘पिया मोरा बालक हम तरुणी गे…’. विद्यापति के लिखे इस गीत का अर्थ मुझे काफी बाद में समझ में आया, जब मैं कुछ बड़ा हुआ और पढ़ने-लिखने लगा. इस गीत की अगली पंक्ति है, ‘कोन तप चूकलहूं भेलहूं जननी गे.हे विधाता, तपस्या में कौन-सी चूक हो गई कि स्त्री होकर जन्म लेना पड़ा. विद्यापति की यह पूरी कविता बेमेल विवाह के विद्रूप को तत्कालीन सामाजिक विडंबनाओं के साथ उजागर करती है. ध्यान रखिए कि मैथिली के कवि और संस्कृत के विद्वान विद्यापति यह बात चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में कह रहे थे यानी अब से छह-सात सौ साल पहले. बाद में जाकर तुलसीदास ने लिखा, ‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं.औपनिवेशिक विमर्शकारों की नजर से देशज आधुनिकताका यह स्वर हमेशा चूक जाता रहा है. देशी, लोक भाषाओं में स्त्रियों की वेदना, पीड़ा और आकांक्षा का इस कदर चित्रण करने वाले उस दौर में गिने-चुने स्वर सुनाई पड़ते हैं.
बहरहाल, वैसे तो पूरे भारतीय समाज में आज भी स्त्री होकरजन्म लेना किसी पीड़ा से कम नहीं, मगर मैथिल समाज के लिए विद्यापति के शब्द आज भी उतने ही सच हैं जितने छह-सात सौ वर्ष पहले थे. इसी तरह हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन ने पिछली सदी में मैथिल स्त्रियों की सामाजिक दशा और पराधीनता को चित्रित करने के लिए एक रूपक बांधा था. तालाब की मछलियां. मैथिल स्त्रियां तालाब की मछलियां हंै जिनका काम लोगों (पुरुषों) की उदर-पिपासा शांत करना है.कहने वाले कहेंगे, ऐसा नहीं है. चीजें बदली हैं. लड़कियां भी खूब पढ़-लिख कर आगे बढ़ रही हैं. बिलकुल बढ़ रही है, देश-विदेश घूम रही हैं. मगर देखिए कि बहुसंख्यक स्त्रियों के लिए आसपास कितने ऐसे साधन या माध्यम हैं जहां उनकी भावनाओं, विचारों और स्वातंत्र्यबोध का सम्मान होता है? खासकर जब बात शादी की होती है, तब यह बोध और भी गहरे उजागर होता है. ज्यादातर मामलों में शादी अरेंजही होती है, जिसमें लड़कियों की सहमति-असहमति का कोई मोल नहीं होता.
अब भी पुरुष ही लड़कियों को देखते हैं; यह देखना ही अपने आप में बुरा है, मैं मिलनाशब्द का इस्तेमाल पसंद करता हूं? क्यों भाई? आपको भी कोई देख सकता है? ऐसा क्या है आप में? कुछ लाख कमा रहे हैं, बस, है पुरुषार्थ आप में, जो मां-बाप की किसी बात को नकार सकें? अपनी कह सकें? दहेज को अस्वीकार करने का है आप में सामर्थ्य?कुछ दिन पहले मूल रूप सेमिथिला की रहने वाली, दिल्ली से पढ़ी-लिखी एक लड़की की शादी की बातचीत हैदराबाद में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे एक लड़के से चली. लड़के के माता-पिता और खुद लड़के ने लड़की से मिलने की इच्छा जाहिर की. और बातचीत के बाद रिंग सेरेमनी वगैरह हो गई. इस रिंग सेरेमनी के दो महीने के बाद एक दिन उस लड़के ने लड़की से कहा कि वह शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह शादी के लिए इच्छुक नहीं है. उसकी जबरदस्ती शादी करवाई जा रही है. वह दबाव में आकर मिलने आया था, वगैरह-वगैरह. फिर कहा कि उसका किसी लड़की के साथ दो साल अफेयर रहा, वह उस मोह से उबर नहीं पाया है. इस पर लड़की ने कहा, ठीक है. और शादी की बातचीत टूट गई. पर सवाल है कि क्या एक जवान, नौकरीपेशा युवक दुधमुंहा बच्चा है, कहां गई उसकी रीढ़? कहां गया उसका पुरुषार्थ?

मिथिला में पोथी-पतरा-पाग पर काफी जोर रहा है. पतरा और पाग से लोग अब भी चिपके हैं, पर पोथी को डबरा-चहबच्चा में डाल दिया है. प्रसंगवश विद्यापति ने संस्कृत में पुरुषपरीक्षानाम से एक किताब लिखी थी (इसका मैथिली और अंग्रेजी अनुवाद भी मौजूद है). इसमें चौवालीस कहानियों के माध्यम से एक आदर्श पुरुष के गुणों को पेश किया गया है. पौरुष या पुरुषार्थ पर संस्कृत में यह अपने ढंग की अनूठी किताब है. विद्यापति के दौर की राजनीतिक व्यवस्था के पितृसतात्मक पहलू को यह किताब सधे ढंग से उजागर करती है. आज स्त्री विमर्श के दौर में यह किताब काफी मौजूं है.विद्यापति शौर्य, विवेक, उत्साह, प्रतिभा, मेधा और विद्या के परिप्रेक्ष्य में पुरुष की कसौटी करते हैं. हमारे दौर में मध्यवर्ग के लिए पुरुषार्थ की कसौटी सिर्फ पैसा है. बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करें तो पैकेज. पूंजीवादी समाज में आधुनिकता का यह बोध दरअसल एक छलावा है, जो ऊपरी चमक-दमक के बावजूद अंदर से खोखला है. इस आधुनिकता में नैतिकता और आचार-व्यवहार के लिए कोई जगह नहीं हैं और न ही पैसे से संचालित यह आधुनिकता-बोध न्याय (विद्यापति के शब्द नय) की ही सीख देता है. जब तक पुरुषों में न्याय-बोध नहीं आएगा, स्त्रियां पिसती रहेंगी और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विद्यापति का कहा प्रासंगिक बना रहेगा.

(जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में 16 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित)