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Sunday, July 10, 2022

विविध समुदायों के बीच मेल-जोल


पिछले दिनों दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के एक कार्यक्रम में चर्चित गायिका शुभा मुद्गल ने जब ‘गजब ढा गयो तोरे नैना मुरारी/ मैं खो अपनी सुध-बुध दिल-ओ-जान हारी’ गजल गाया, तब वह यह जोड़ना नहीं भूली थी कि इसके लेखक अब्दुल हादी ‘काविश’ हैं. यह कार्यक्रम आजादी के पचहत्तरवें वर्षगांठ के तहत आयोजित किया गया जिसमें करीब दो सौ कलाकारों, कवियों, फोटोग्राफरों की एक प्रदर्शनी ‘हम सब सहमत’ नाम से जवाहर भवन में लगी है.

आज देश में जैसा माहौल है लोग सामाजिक सद्भाव, साहित्य या हिंदुस्तानी संगीत की उस परंपरा को याद नहीं करते, जहाँ पर हिंदू-मुस्लिम का राजनीतिक विभाजन मिट जाता है. विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का ऐसा पहलू है जिस पर बहुत कम बातचीत होती है. सहिष्णुता की भावना इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है.
याद आया कि मिथिला के कर्ण कायस्थों में आषाढ़ के महीने में कुल देवता धर्मराज की पूजा की परंपरा रही है, जिसमें बच्चों का मुंडन संस्कार भी करवाया जाता है. इस पूजा में अनेक देवी-देवताओं का आह्वान होता है. ध्यान देने की बात है कि यहाँ पैगंबर हजरत मोहम्मद और मूसा की भी पूजा होती है. यह बात आज भले लोगों को आश्चर्य लगे पर परंपरा के रूप में यह सैकड़ों वर्षों से जारी है. जैसा कि सब जानते हैं कायस्थ कोर्ट-कचहरी में मुस्लिम शासकों के साथ रहते आए हैं, फारसी-उर्दू भी सीखते रहे. खान-पान, पहनावे के साथ-साथ धर्म और संस्कृति का इससे मेल-जोल हुआ. पूजा के अंत में यह विनती पढ़ी जाती है: हजरत छी हजार छी, पहुमीपुर पाटल छी. ओतय दीअ पीठ, अतय दीअ दृष्टि. बार-बार गुनाह माफ करब.”
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में बिहार में कायस्थों का काफी योगदान रहा है. कहा जाता है कि कर्ण कायस्थों के पूर्वज सैकड़ों वर्ष पहले दक्षिण राज्यों से आए थे. मिथिला के इतिहासकार कर्णाट वंश (1097-1325) के शासन के प्रसंग में कायस्थों का उल्लेख करते हैं. सैकड़ों वर्ष पुरानी ‘पंजी प्रथा’ का मुकम्मल अध्ययन अभी बाकी है. मिथिला पर गियासुद्दीन तुगलक के आक्रमण के साथ कर्णाट शासन का अंत हो गया पर बाद के शताब्दी में भी उनका दबदबा बना रहा.
एक यही दृष्टांत नहीं है जिससे विविध संस्कृतियों के आपसी मेल-जोल की झलक मिलती हो. इस लिहाज से चर्चित लेखक-प्रशासक कुमार सुरेश सिंह का 43 खंडों में प्रकाशित ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ काफी महत्व रखता है. इसमें भारत के कुल 4694 समुदायों का अध्ययन किया गया है.
इस अध्ययन की महत्ता को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है कि ‘भारत देश के विभिन्न समुदायों की विविधता, उनकी एकता और उनकी विशिष्टताओं को दर्शाने वाला ऐसा विराट दूसरा कोई शोध-कार्य नहीं हुआ.’ सिंह ने अपने अध्ययन में विभिन्न समुदायों के बीच साझी प्रवृत्तियों का विस्तार से उल्लेख किया है. आजादी के अमृत महोत्सव में विभिन्न समुदायों के बीच संकीर्णता के बदले आपसी सद्भाव के उन पहलूओं पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे कि संघर्ष मिटे और शांति बहाल हो सके.

Monday, August 16, 2021

सांस्कृतिक विविधता की विरासत

 


देश के विभिन्न इलाकों में कला और सांस्कृतिक रूपों की आवाजाही होती रही है. कला विदुषी कपिला वात्स्यायन ने ठीक ही नोट किया है कि ‘भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की यह विशेषता है कि इतिहास के किसी विशेष युग में देश के किसी भाग में जन्मे आंदोलन, कलारूप और शैली को देश के किसी सर्वथा दूरस्थ प्रदेश में फलने फूलने का अवसर मिलता है.’ आजादी के बाद सांस्कृतिक विविधता के बीच एकता और देश के विकास के लिए कला और संस्कृति की महत्ती भूमिका को आधुनिक भारत के निर्माताओं ने स्वीकारा था. पं. नेहरू ने भले ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ पर जोर दिया, पर वे कला और सांस्कृतिक संस्थानों के निर्माण को लेकर भी उतने ही तत्पर थे.

इसी का परिणाम था कि आजादी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954), ललित कला अकादमी (1954), राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय (1964) जैसे संस्थानों की स्थापना हुई. प्रदर्शनकारी, दृश्य, पारंपरिक और आधुनिक कला रूपों, साहित्य, सिनेमा के पोषण और संरक्षण में इन संस्थानों का ऐतिहासिक योगदान है. जहाँ संगीत नाटक अकादमी के हिस्से संगीत, नृत्य और नाटक कला को बढ़ावा देने और विविध संस्कृतियों की विरासत को सहेजन की जिम्मेदारी रही, वहीं ललित कला अकादमी के जिम्मे मूर्तिकला, चित्रकला आदि रहे. आधुनिक और समकालीन के साथ साथ लोक, जनजातीय कला और कलाकारों का संरक्षण भी इसमें शामिल है. साहित्य अकादमी विभिन्न भाषाओँ में लिखे गए साहित्य का प्रचार-प्रसार और अनुवाद का काम करता रहा है. देश में साहित्यिक गतिविधियों की देख-रेख में भी इसकी भूमिका रेखांकित करने योग्य है. ये संस्थान देश के प्रमुख कला-सांस्कृतिक संस्थानों के साथ ही साथ विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकार और अकादमियों के साथ समन्वय और मेल-जोल भी करती रही है.

देश की आजादी के समय विभाजन की त्रासदी ने साहित्य, कला और संस्कृति जगत से जुड़े कलाकारों को गहरे प्रभावित किया था, लेकिन राष्ट्र निर्माण की भावना उनके अंदर हिलोरें मार रही थी. यही कारण है कि पचास-साठ के दशक में एक साथ अखिल भारतीय स्तर पर साहित्य, संगीत, सिनेमा, चित्रकला, प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में प्रतिभाओं का विस्फोट दिखाई देता है. इन प्रतिभाओं ने विभिन्न संस्थानों को सहेजा-सवाँरा.

बाद के दशकों में अन्य संस्थानों में आए गिरावट के साथ ही इन संस्थानों में भी भाई-भतीजावाद, अंदरुनी राजनीति और खींचतान के स्वर सुनाई पड़ने लगे. स्वायत्तता होने के बावजूद परोक्ष रूप से सत्ताधारी राजनीतिक दलों का दखल पुरस्कारों, छात्रवृत्तियों से लेकर प्रशासनिक पदों पर नियुक्तियों में देखने को मिला. कई संस्थानों में ऐसे लोग शीर्ष पर पहुँचे जिन्हें कला-संस्कृति से कोई सरोकार नहीं रहा. ऐसे में हर क्षेत्र में प्रतिभाशाली कलाकारों की पहचान मुश्किल हो गई और उनमें कुंठा जन्म लेने लगी. हाल के वर्षों में ऐसा कम ही देखने को मिला है जब साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा के समय वाद-विवाद न हो. फिर भी जहाँ राष्ट्रीय स्तर के इन संस्थानों में कम से कम पारदर्शिता और जवाबदेही की गुंजाइश दिखती है, वहीं हिंदी क्षेत्र में राज्य स्तरों पर कला और संस्कृति के संवर्धन के लिए जो संस्थान अस्तित्व में आए उनमें ज्यातादर पतनशील हैं, उनमें किसी तरह के नवाचार की गुंजाइश नहीं दिखती.

उदाहरण के लिए यह नोट करना उचित होगा कि मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के क्षेत्र में विभिन्न कलाकारों का सम्मान हुआ है और देश-विदेश में इस कला की प्रतिष्ठा हुई है, लेकिन पेंटिंग के गढ़ दरभंगा-मधुबनी में एक भी कला-दीर्घा नहीं है जहां पेंटिंग का प्रदर्शन हो सके. यही बात अन्य लोक कलाओं और कलाकारों के बारे में भी सच है. लोक कलाकारों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है. भोपाल में स्थित जनजातीय संग्रहालय अपवाद ही कहे जाएँगे. इसी तरह भारत भवन, भोपाल (1982) ने भी कला के विभिन्न रूपों के संरक्षण और संवर्धन में योगदान दिया है. प्रसंगवश, अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भारत भवन के निदेशक थे, तब भूरीबाई की प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया. इस वर्ष भीली चित्रकला के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

इसी तरह सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सिनेमा को संरक्षित करने के उद्देश्य से पुणे में फिल्म संस्थान की स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद 1964 में संस्थान में ही राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना की गई. अपने आप में देश में यह एक मात्र ऐसा संस्थान है जो फिल्मों के संग्रहण, प्रसार और संरक्षण में जुटा है. भारत में हर साल करीब पंद्रह सौ से ज्यादा फीचर फिल्में बनती है, इस लिहाज से यहां पर जो संग्रहण हो रहे हैं वह बेहद कम है. देश को एक सूत्र में जोड़ने में बॉलीवुड प्रभावी है, पर भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. राज्य स्तरों पर भी फिल्म संग्रहालय की व्यवस्था होनी चाहिए जहाँ विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में संग्रहीत की जा सके.

विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों से जुड़े कलाकारों, अधिकारियों से बात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में ये संस्थान संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, ऐसे में किसी भी तरह की योजनाओं और नई गतिविधियों के लिए बजट का हर वक्त टोटा लगा रहता है. वर्तमान वित्तीय वर्ष (2021-22) के बजट में संस्कृति मंत्रालय के लिए 2687.99 करोड़ रुपए का प्रावधान है जो भारत सरकार के कुल बजट का करीब 0.08 प्रतिशत है जबकि वर्ष 2020-21 में यह 3149.96 करोड़ रुपए था जो कि कुल बजट का लगभग 0.1 प्रतिशत था. इस तरह इस साल बजट में पिछले साल के अनुमानित बजट से करीब 15 प्रतिशत की कटौती की गई.

पिछले दशकों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में ‘सॉफ्ट पावर’ पर जोर बढ़ा है. जरूरत है भारतीय कला और संस्कृति की विविधता का अतंरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार हो. लोकतांत्रिक भारत की पहचान को कला-संस्कृति के रूपों की बहुलता और विविधता पुख्ता करते हैं. साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर आम नागरिकों, स्कूल-कॉलेज के छात्रों का जुड़ाव इन अकादमियों से बढ़े. डिजिटल तकनीक इसमें सहायक हो सकती है. बदलते वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए कला और सांस्कृतिक अकादमियों को आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में नए सिरे से अपनी भूमिका को परिभाषित करने की जरूरत है. इन संस्थानों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा है

(15 अगस्त 2021, प्रभात खबर)

Wednesday, June 12, 2019

अयोघ्या नगर के सिंदूरिया


वर्षों पहले किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था- शादी हो तो मिथिला में. जाहिर है, इस लेख में जानकी और पुरुषोत्तम राम की शादी की चर्चा के साथ मिथिला की मेहमाननवाजी और संस्कृति का जिक्र था. पिछले कुछ दशकों में मिथिला क्षेत्र से भारी मात्रा में विस्थापन और पलायन हुआ है, लेकिन शादी-विवाह के लिए मध्यवर्ग वापस गांव-घर लौटता रहा है.
पिछले दिनों जब ऐसे ही एक शादी में भाग लेने का मौका मिला, तो इस लेख की याद हो आयी. मिथिला की संस्कृति शादी-विवाह के अवसर पर अपनी संपूर्णता में निखरकर आती है. बात गीत-संगीत की हो, मिथिला पेंटिंग-सिक्की कला की हो या खान-पान में विन्यास की. इनमें एक निरंतरता दिखती है, पर ऐसा नहीं है कि इनमें बदलाव नहीं आया है.
अस्सी के दशक में ही कैसेट कल्चरने शादी-विवाह में लाउड स्पीकरऔर तकनीक का प्रचलन बढ़ा दिया था. यही दौर था जब पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा के गाये लोक गीतों की धूम मची थी. आज भी शादी-विवाह का आंगन उनके गाये गीतों से गूंजता रहता है. बात चाहे माय हे अयोध्या नगर के सिंदूरिया सिंदूर बेचे आयल हेकी हो या मोहे लेलखिन सजनी मोर मनवा पहुनवा राघोकी. प्रसंगवश, शारदा सिन्हा अपनी मैथिल पहचानको बार-बार रेखांकित करती रही हैं.
वैसे भोजपुरी भाषा-भाषियों के बीच और हिंदी फिल्मों में गाये चर्चित गीतों के माध्यम से उनकी पहुंच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक तक है. पर ऐसा नहीं है कि नयी पीढ़ी मैथिली लोक-गीतों से विमुख है. पसाहीन¸ कुमरम, लावा भुजाई, सिंदूर दान जैसी रस्मों में यह दिखायी देती है. हां, जहां कहीं इनकी टेक टूटती है, वहां घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं संभाल लेती हैं.
पहले शादी-विवाह के दौरान महिलाओं की उपस्थिति परिवार के अंत:पुर में ही दिखती थी, वहीं पिछले कुछ वर्षों में बारात में भी वे नजर आने लगी हैं. सच तो यह है कि बारात में पुरुष बारातियों से ज्यादा उत्साह इनमें ही दिखता है.
मिथिला में शादी के बाद नवविवाहित वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे कोहबर कहा जाता है. कोहबर की रस्मों के साथ मिथिला पेंटिंग लिपटी हुई है. शादी के अवसर पर जिस कागज में भरकर सिंदूर वर पक्ष की तरफ से वधू के यहां भेजा जाता है, उसमें से दो कोहबर, एक दशावतार, एक कमलदह और एक बांस लिखे होने का रिवाज आज भी है, पर समयाभाव के कारण अब एक दिन के बाद ही द्विरागमन (लड़की की विदाई) की प्रथा चल पड़ी है.
साथ ही शादी-बारात में खान-पान के समय जो रच-रच कर खाने का चलन था, वह भी अब कुछ कम हुआ है. इन वर्षों में शादी के समय बारातियों को जो गाली गीत (डहकन) से नवाजने की परंपरा थी, वह कहीं विलुप्त हो रही है. समाजशास्त्रीय दृष्टि से नये संबंधों के प्रगाढ़ बनाने में यह एक मजबूत आधार का काम करता था. 

(प्रभात खबर, 12 जून 2019 को प्रकाशित)