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Friday, March 03, 2023

विनोद कुमार शुक्ल से एक बातचीत

 


इन दिनों दिल्लीमें चल रहे विश्व पुस्तक मेले में विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नए कलेवर में पाठकों के लिए उपस्थित हैं. साथ ही मेले के दौरान इकतारा ट्रस्ट से छपी उनकी बच्चों के लिए लिखी किताबों- ‘एक चुप्पी जगह’ , ‘गोदाम’, ‘एक कहानी’, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘बना बनाया देखा आकाश: बनते कहाँ दिखा आकाश’ (कविता संग्रह) दिखाई देता है. इन सब के बीच उनके बाल साहित्यकार रूप में उनकी चर्चा छूट जाती है, जबकि हाल के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए साहित्य रचने पर जोर दे रहे हैं.

पिछले कुछ सालों में पुस्तक मेले में बाल साहित्य में बच्चों और वयस्कों की दिलचस्पी काफी दिखाई देती रही है, लेकिन हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का लेखन यहाँ नहीं दिखता. सच तो यह है कि हिंदी में साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रख कर बहुत कम लिखा है. प्रकाशकों ने भी इस वर्ग के पाठकों में रुचि नहीं दिखाई. इसके क्या कारण है? जहाँ हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशक बच्चों के लिए किताबें छापने से बचते रहे हैं, वहीं हाल के दशकों में एकलव्य, इकतारा, कथा, प्रथम जैसी संस्थाओं में हिंदी में रचनात्मक और सुरुचिपूर्ण किताबें छापी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट बच्चों के लिए किताबें छापता रहा है, पर बदलते समय के अनुसार विषय-वैविध्य और गुणवत्ता का अभाव है यहाँ. ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल का बाल साहित्यकार रूप अलग से रेखांकित करने की मांग करता है.

 आपने वयस्क पाठकों के लिए ‘नौकर की कमीज’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसी औपन्यासिक कृतियाँ रची हैं, ‘महाविद्यालय’ और ‘पेड़ पर कमरा’ जैसे कहानी संग्रह. ‘वहीं लगभग जय हिंद’, ‘सब कुछ बचा रहेगा’ जैसा कविता संग्रह भी उपलब्ध है. पिछले करीब एक दशक से आप बच्चों के लिए लिख रहे हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों के लिए साहित्य लिखने का आपने कैसे सोचा?

बच्चों के बारे में मैं लिखता नहीं था, पर साइकिल पत्रिका (इकतारा) के संपादक सुशील शुक्ल ने मुझे बच्चों के बारे में लिखने को कहा. मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा नहीं था. मैंने अपने लेखन में कभी नहीं सोचा कि इसका पाठक कौन होगा. मैंने कहा कि अब मुझे सोच करके लिखना पड़ेगा कि मेरे पाठक बच्चे हैं. कितनी उम्र के बच्चे पढ़ेंगे और कैसे पढ़ेंगे. फिर उन्होंने कहा कि किसी भी विषय पर लिखिए-हाथी पर, घोड़े पर, चींटी पर, मछली पर …इसी तरह की उन्होंने बात की.

जब मैं बच्चों के लिए लिखने बैठा तब सबसे पहले यही सोचा कि एक पाठक के रूप में अभी तक मैंने बच्चों के बारे में जो पढ़ा है, ऐसा लगता है कि यह बहुत छोटे बच्चे के लिए लिखा गया है. संभवतः जिसे खुद बच्चे नहीं पढ़ते होंगे कोई दूसरा पढ़ कर सुनाता होगा. मुझे लगा कि बच्चों को स्वयं का एक पाठक वर्ग तैयार होना चाहिए. मैंने मान लिया कि मैं बच्चों के लिए लिखूंगा यह सोच करके कि संभवत: शायद इसे पाँच साल या छह साल या आठ साल के बच्चे समझेंगे. मैं उनसे कहीं ज्यादा उम्र के बच्चों की समझ के अनुसार लिखूंगा. यदि कहीं इसका पाठक कई दस साल का लड़का है जो मैं लिखूंगा वह संभवत: 15 साल के किशोर के उम्र तक की पहुँच का होना चाहिए. इकतारा से दो पत्रिका प्रकाशित होती थी जैसा कि सुशील ने बताया था. मैं ‘प्लूटो’ पत्रिका के लिए लिखता था, बाद में ‘साइकिल’ पत्रिका के लिए लिखा (सुशील साइकिल में चले गए और उनसे एक संपर्क बन गया). ‘प्लूटो’ के लिए मैं छोटे बच्चों के लिए लिखता था पर तब भी यह सोच कर लिखता था कि इनकी समझ कुछ बड़ी होगी.

मैंने फिर बाद में बड़े बच्चों के लिए साइकिल में लिखा. मैंने इस तरह से लिखा कि इसे बड़े लोग या किशोर लोग भी पढ़े तो उनको लगना चाहिए कि उन्होंने भी कुछ पढ़ा और बच्चे तो पढ़ेंगे ही. यही मेरी सोच का हिस्सा रहा.

मैंने अपनी नौ साल की बेटी-कैथी के लिए ‘गोदाम’ किताब खरीदी, पर जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे इस कहानी का कथ्य और संवेदना ने प्रभावित किया. इसमें पेड़-पौधे के प्रति जो लेखक का लगाव है, वहीं मकान मालिक की जो समझ है वह आज के समय को प्रतिबिंबित करता है. आप लिखते है: ‘पेड़ वाले घर मुझे अच्छे लगते है.’ कहानी के आखिर में मकान मालिक पेड़ कटवा कर कहता है: ‘आपका अब यह एक पेड़ वाला घर नहीं है.’ ऐसा लगता है आधुनिक सभ्यता में क्या हम गोदाम में रहने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ यह आपके जीवनानुभवों से पाठकों को जोड़ता है.

जी, मैंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव से लिखा है. मेरा लिखा हुआ मेरी आत्मकथा ही है. मेरा सारा कुछ मेरा जाना-पहचाना रहा है. मैंने जो अनुभव किया- आस-पास के लोगों से, मिलने-जुलने वालों से, जो किताबें मैंने पढ़ी थी, उन किताबों के अनुभव से जो मैंने पाया और जो अनुभव बनाया वही मेरा अनुभव रहा है. वही मेरे लेखन में रहा है.

बड़ों के लिए लेखन और बच्चों के लिए लेखन की भाषा-शैली के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप किस रूप में बच्चों के लिए लेखन की तैयारी करते हैं?

जब मैं बड़ों के लिए लिखता हूँ तब बिलकुल नहीं सोचता हूँ कि कितने बड़ों के लिए लिख रहा हूँ. उसमें ऐसा कोई कारण नहीं है. एक स्थिति में आकर के पुस्तक से, अपने अनुभव के अनुसार से… अपना अनुभव बनाने की उम्र तो कभी भी हासिल हो सकती है. आदमी जब 18-19 या 20 साल का हुआ तो वह किताबों की समझ को अपने में चाहे वह किसी के लिए लिख रहा हो, एक पाठक के रूप में अपनी समझ में एक स्थिति तो बना ही लेता है.

तीसरा दोस्त’ कहानी पढ़ते हुए मैं अपने बचपन में लौटा. आप लिखते हैं: ‘उसी की चप्पल पहनकर मैं उसे ढूंढने निकला. मैं अपने मन से और चप्पल के मन से चल रहा था कि चप्पल मुझे वहाँ तक पहुँचा देगी जहाँ वह जाता है.’ क्या लिखते हुए आप अपने बचपन में लौट रहे हैं इन दिनों?

हां, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. मैं अपने बचपने को याद करता हूँ जो भूला हुआ सा है. इसलिए पास-पड़ोस के जो बच्चे हैं, सड़क पर जो मेरे घर के सामने खेलते हैं जिन्हें आता-जाता मैं देखता है. बच्चों को देख कर मैं अपने बचपने को याद करता हूँ. इस उम्र में वो क्या सोचते हैं? मनुष्य रूप में एक बच्चे का जन्म होता है जिसके पास सोचने समझने की शक्ति होती है. जो नवजात शिशु होता है वह इस संसार का अनुभवहीन एक जीव होता है. उस बच्चा की दुनिया के बारे में कोई खबर नहीं है. लेकिन मैंने देखा कि उनमें एक प्रतिक्रिया का अनुभव जन्म लेते ही बन जाता है. चिड़िया चहचहाती है तो नवजात शिशु की आँख उस ओर मुड़ जाती है, ऐसा मैंने अपने बच्चों के जन्म में महसूस किया था अस्पताल में.

बचपन में पढ़ने-लिखने का कैसा अनुभव रहा है आपका?

घर में एक साहित्यिक वातावरण था, मैं पढ़ता था. मैं नाँदगाँव का हूँ, पदुमलाल बख्शी नाँदगाँव के ही थे. मेरी माँ जो थी उसके बचपन का काफी समय बांग्लादेश के जमालपुर में बीता, वहां क्या स्थिति थी मुझे ठीक से मालूम नहीं. मेरे नाना लोगों का परिवार कानपुर का था, मेरे बाबा भी उत्तर प्रदेश के थे जो नाँदगाँव में बसने आ गए थे. मेरी अम्मा के घर में हम बच्चों पर एक अच्छा प्रभाव पड़ा था, खासकर अपने साथ वह बंगाल के साहित्य का संस्कार भी लेकर आ गई थी. दूसरे भाई-बहन भी लिखने की कोशिश करते थे, पर उनका लिखना रस्ते में ही छूट गया, बढ़ती उम्र के साथ. लेकिन मैंने लिखना जारी रखा.

आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं, जिन्हें आप अभी याद करते हैं?

नाम लेकर के तो बताना नहीं है लेकिन बहुत सी किताब के लेखक मेरे प्रिय रचनाकार रहे हैं. मैं बहुत से बड़े लेखकों के संपर्क में रहा. मेरे लिखने की याद के शुरुआत दिनों में जैनेंद्र भी कुछ सालों तक रहे, मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई. अज्ञेय से मेरी मुलाकात रही. अशोक वाजपेयी से मेरी मुलाकात रही, लंबे समय तक संबंध बना रहा. केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह से भी मेरा लंबे समय तक संबंध बना रहा. तो बड़े लेखकों के संपर्क में एक साधारण छोटे लेखक के रूप में मैं हमेशा उपस्थित रहता रहा.

गद्य के अलावे आपने कविता की पुस्तक भी बच्चों के लिए लिखी है-‘बना बनाया देखा आकाश, ‘बनते कहां दिखा आकाश’ आदि

हां, जैसा मैं बच्चों के पाठक के रूप में अभी देख रहा हूँ, मैंने सोचा कि बच्चे भी इस तरह अपने देखने को सुधारें. उनका देखना भी सुधरना चाहिए और यह महसूस होना चाहिए आकाश कितना अनंत होता है और हम कितना थोड़ा सा देख पाता हैं. यह आकाश है जिसको दूसरों ने जमाने से देखा. इसे ऋषि-महर्षियों ने देखा. उन्होंने सितारों-तारों की गणना की, पंचांग बनाया. जिससे उन्हें नक्षत्रों की क्या स्थिति थी, इस बात की जानकारी मिली. उन्होंने पंचांग को वैज्ञानिकों की मेल खाती स्थिति के रूप में बनाया है, यह बड़ी अद्भुत सी बात है. ये सारी चीजें उस जमाने में कैसे सोचते होंगे. उस सोच का दायरा कितना संपूर्ण था. मनुष्यों की उपस्थिति कितनी कम थी. ऐसी उपस्थिति मनुष्य की नहीं थी, जैसी आज की दिखती है. आज मनुष्य तो केवल भीड़ में ही दिखता है. चाहे वह घर की भीड़ हो या बाहर की भीड़ हो. या चाहे जैसी स्थितियाँ हों.

क्या लिख रहे हैं बच्चों के लिए अभी आप?

अभी मेरी सोच में बच्चों के लिए लिखने का अधिक रहता है. क्योंकि मैं इस उम्र में छोटा लिखता हूँ और कम लिखता हूँ क्योंकि ज्यादा देर तक किसी एक चीज पर कायम रहना बहुत कठिन है, लेखन में भी. ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सकता, बैठ भी नहीं सकता (हंसते हैं)…मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति अब वैसे नहीं है, लेकिन तब भी मैं बच्चों के लिए लिख रहा हूँ. आज ही मैंने बच्चों के लिए एक-डेढ़ पेज की कहानी के रूप में भाजी वाले को सोचा. उस भाजी वाले के संबंध में, कुछ अपनी ही स्थिति के अनुसार एक कहानी पढ़ने का कारण बन जाए ऐसा कुछ लिखूं. एक कहानी जो सात-आठ पेज की हो, ऐसा सोच रहा हूँ.

(समालोचन वेबसाइट के लिए, मधुमती पत्रिका, मई, पेज-56-58)

Tuesday, January 11, 2022

पुस्तक मेले की यादें यानी किताबों से बातें


दिल्ली में होने वाले विश्व पुस्तक मेले की प्रतीक्षा पुस्तक प्रेमी साल भर करते हैं. इसे इसी महीने आठ जनवरी से सोलह जनवरी के बीच होना था. पर पिछले दिनों कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए इसे स्थगित कर दिया गया. पिछले साल भी इसे ऑनलाइन (वर्चुअल) ही मनाया गया था. कोरोना महामारी के दौरान दो सालों में किताबों की खरीद-फरोख्त, प्रकाशकों-लेखकों से मेल-मिलाप आभासी ही रहा, ऐसे में इस वर्ष के दिल्ली पुस्तक मेले का छोटे-बड़े प्रकाशक, लेखक-पाठक, छात्र-अध्यापक बेसब्री से इंतजार कर रहे थे.

वर्ष 1972 में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले की शुरुआत की गई और इस वर्ष स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी थी. वर्ष 1988 में दिल्ली शीर्षक से लिखी एक कविता में मंगलेश डबराल ने हताशा भरे स्वर में लिखा था- सड़कों पर बसों में बैठकघरों में इतनी बड़ी भीड़ में कोई नहीं कहता आज मुझे निराला की कुछ पंक्तियाँ याद आईँ. कोई नहीं कहता मैंने नागार्जुन को पढ़ा. कोई नहीं कहता किस तरह मरे मुक्तिबोध.’ दिल्ली भले ही राजनीतिक सरगर्मियों का केंद्र होसत्ता की उठा-पटक सुर्खियों में रहे, पिछले दशकों में साहित्य-संस्कृति की नगरी के रूप में इसकी प्रतिष्ठा रही  है. वर्तमान में यह साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों का गढ़ है.

किताब के प्रति प्रेम, पठन-पाठन की संस्कृति भले ही कोलकाता जैसी यहाँ नहीं दिखे, पर देश के विश्वविद्यालयों के मौजूद होने से एक अकादमिक माहौल यहाँ हमेशा दिखता रहा है. ऐसे में पुस्तक मेला किताबों के प्रति आम लोगों के प्रेम को दर्शाता है. पिछले वर्षों में बच्चों के लिए लगने वाले स्टॉलों पर भी खूब भीड़ दिखाई देती रही है. स्कूल जाने वाले बच्चे अपने माता-पिता के साथ यहाँ दिखते हैं. प्रसंगवश दिल्ली में स्थित चिल्ड्रेन बुक ट्रस्टजैसी जगह देश में बेहद कम हैजहाँ के पुस्तकालय में केवल बच्चों के लिए किताबें मौजूद हों. कुछ व्यक्तिगत प्रयासों को छोड़ दें तो पूरे देश में बच्चों के लिए सार्वजनिक पुस्तकालय का सर्वथा अभाव दिखता है. यहाँ तक कि बड़ों के लिए जो पुस्तकालय हैंवहाँ भी बच्चों के लिए किताबों का कोई कोना ढूंढ़ने पर ही मिल पाता है. इस बार के मेले में बच्चों के लिए लिखने वालों का एक कोना भी पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) ने प्रस्तावित किया था.

इसी तरह हिंदी के बुक स्टॉलों पर भी अंग्रेजी के मुकाबले पाठकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. जहाँ वर्तमान समय में शहर में पुस्तक संस्कृति और मध्यवर्ग के जीवन में किताबों की अहमियत घटती दिख रही है वहीं हर साल पुस्तक मेले के आंकडें कुछ अलग ही तस्वीर बयां करते हैं. किताबों के पढ़नेखरीदने और लोगों में बांटने का एक अलग समाजशास्त्र होता है. यह सच है कि जिस अनुपात में लोगों के पास पैसा बढ़ा हैपढ़ने की फुर्सत उतनी ही कम हुई है. पर पुस्तक मेले मे आने जाने वालों लोगों को देख कर निसंस्देह कहा जा सकता है कि एक नया पाठक और नव शिक्षित वर्ग उभरा हैजिसमें पढ़ने की भरपूर ललक है.

पुस्तक मेले में उन लेखकों से अनायास मिलना हो जाता है, जिन्हें आप किताबों में पढ़ते रहे हों. करीब दो दशक पहले हिंदी के चर्चित कवि केदारनाथ सिंह मेले में मिलेमैंने पूछा कि आपने लिखा है कि 'यह जानते हुए भी कि लिखने से कुछ नहीं होगामैं लिखना चाहता हूँ'. ऐसा क्यों लिखा है आपनेकेदारजी ने मुस्कुराते हुए,  आत्मीयता से कहा था यहाँ क्या बोलूंघर आइए, वहीं बैठ कर बात करेंगे.’  मेले के दौरान नवोदित, उभरते हुए रचनाकारों को भी सहज मंच मिल जाता है.  इसी तरह वर्ष 2017 में मंगलेश डबराल की प्रतिनिधि कविताएँ का संकलन मेले के आखिरी दिन मुझे राजकमल प्रकाशन के बुक स्टॉल पर दिखी. मैंने एक प्रति ली और हॉल के बाहर कुछ मित्रों के संग बैठे मंगलेश डबराल को दिखाया था. उन्होंने खुद भी सधप्रकाशित किताब की यह प्रति नहीं देखी थी. इस किताब पर प्रेम से मेरे लिए उन्होंने शुभकामनाएँ अपनी सुंदर लिखावट में दर्ज की. अब बस इन दिवंगत कवियों की यादें हैं.

कोरोना के दौरान पठन-पाठन की संस्कृति खूब प्रभावित हुई जिसका लेखा-जोखा मुश्किल है. महानगरों में स्थित कई किताबघर बंद हुए. ऐसे में पुस्तक मेला पढ़ने-लिखने वालों के लिए रोशनदान की तरह है. उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना की तीसरी लहर जैसे ही कम होगी एक बार फिर से पुस्तक प्रेमी किताबों से बातें करने’ के लिए मेले में मिलेंगे.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)