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Wednesday, January 10, 2018

संवाद के ठौर

इंडियन कॉफी हाउस, जेएनयू
शहर के साहित्यकारों-पत्रकारों, राजनीतिकों, संस्कृतिकर्मियो के टी-कॉफी हाउसयानी चाय-कॉफी के बहाने मिलने-जुलने के ठिकानों से रिश्तों के बारे में पुरानी पीढ़ी के लोग अक्सर जिक्र करते हैं. पटना में सत्तर के दशक में रेणु, नागार्जुन युवा लेखकों-कलाकारों के साथ यहाँ पाए जाते थे. इलाहाबाद में चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेता और फिराक गोरखपुरी जैसे कवियों का अड्डा जमा करता था. दिल्ली के कॉफी हाउस में भी राजनीतिकों से लेकर साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच बहस-मुबाहिसों के कई किस्से हैं. लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए यह सब बस किस्से ही हैं, इतिहास के पन्नों में कैद. शहरों के बीच स्थित इन कॉफी हाउस के अड्डो पर कई साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलनों के बीज अंकुरित हुए. नवतुरिया लेखको ने अपने वरिष्ठों से बहस-मुबाहिसा का अंदाज सीखा. अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं की तरह ही सार्वजनिक जीवन (पब्लिक स्फीयर) में इन टी-कॉफी हाउस की महत्वपूर्ण भूमिका है. लोकतंत्र में ये राज्य और नागरिक समाज के बीच एक पुल की भूमिका निभाते रहे हैं.

लेकिन पिछले दशकों में साफ नजर आ रहा है कि इन कॉफी हाउसों की संस्कृति शहर के बदलते मिजाज के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है. उदारीकरण के बाद इन सस्ते कॉफी हाउस के बरक्स आधुनिक रंगों में सजे कई बड़े ब्रांड’ माने जाने वाले नामों की ऐसी दुकानें उभरीं. हालांकि दिखनो में आधुनिक और महंगे इन कॉफी हाउसों के साथ हमारा रिश्ता एक उपभोक्ता से ज्यादा नहीं, हम उससे कोई लगाव नहीं महसूस करते. बैठने-उठने के लिए यह महानगरों के युवाओं, विद्यार्थियों के बीच भले लोकप्रिय हों, सामान्य कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों की पहुँच से दूर हैं. अपनी बात कहूँ तो छात्र जीवन में मुझे इससे ज्यादा लगाव तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के गंगाऔर नीलगिरीढाबा से रहा. हालांकि पिछले दिनों जेएनयू में भी इंडियन कॉफी हाउसकी शुरुआत हुई. उम्मीद की जानी चाहिए कि जेएनयू की लोकतांत्रिक संस्कृति में यह कॉफी हाउस एक नया पन्ना जोड़ने में कामयाब होगा. 

इंडियन कॉफी हाउसके करीब 400 रेस्तरां अभी भी पूरे देश के शहरों में चल रहे हैं, जिसे इंडियन कॉफी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसाइटीके माध्यम से चलाया जाता है. यहाँ किफायती दामों में कॉफी और इडली, डोसा, सांभर-बड़ा आदि खाने-पीने की चीजें उपलब्ध रहती हैं. लेकिन आज यह शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवियों का अड्डा नहीं रहा, ना यहाँ वह रौनक रही. बात चाहे शिमला की हो, इलाहाबाद की या दिल्ली की. दिल्ली में कनॉट प्लेस में स्थित कॉफी हाउस में आजकल छत पर बंदरों का उत्पात मचा रहता है, यहाँ भी बुद्धिजीवियों को कम ही देखा जा सकता है. रेस्तरां में गुणवत्ता के स्तर पर भी पहले के मुकाबले काफी कमी आई है. इसकी एक वजह इन कॉफी हाउस में कर्मचारियों की संख्या में आई कमी भी है. ऐसी कई स्थितियाँ सामने हैं और इसलिए अगर इनके घाटे में चलने की बात होती है तो हैरानी नहीं होती. इलाहाबाद से लेकर दिल्ली तक के कुछ गिने-चुने साहित्यकार और पत्रकार अपवाद ही कहे जाएँगे जो गाहे-बगाहे इन पुराने ठौर पर दिखाई पड़ जाते हैं. जो चीज इन कॉफी हाउस को विशिष्ट बनाती रही है, वह है यहाँ पर मौजूद अनौपचारिक माहौल और फक्कड़पन जो आधुनिक तड़क-भड़क  से कोसों दूर है.

प्रेम कोशी के साथ
बहरहाल, क्रिसमस के करीब बंगलुरु जाना हुआ. शहर के व्यस्त सेंट मार्क्स रोड पर स्थित एक कॉफी हाउस और रेस्तरां के बारे में हमने काफी कुछ सुना था. इसका इतिहास 75 साल से भी ज्यादा पुराना है. कहते हैं कि इसने नेहरू, ब्रिटेन की महरानी एलिजाबेथ द्वितीय को भी अपनी सेवाएँ दी थी. लेकिन इनका इतिहास राजा-रजवाड़ों से नहीं बना है. सूचना-तकनीक के क्षेत्र में आए उभार ने बंगलुरु की संस्कृति को बदला है, पर शहरी संस्कृति की चर्चा कोशीजकैफे की चर्चा के बिना अधूरी है. एक शाम यहाँ कॉफी पीने हम भी गए. सड़क के एक किनारे पर स्थित मकान की छत से लटके पुराने पंखों और फोम के गद्दे से बनी कुर्सी, मेज के चारों ओर विद्यार्थी, युवा लेखक और कुछ परिवार आपसी चर्चा में मशगूल थे. एक अनौपचारिकता पूरे कमरे में पसरी थी.

जब हम कॉफी पीने की तैयारी कर रहे थे, तब बेहद साधारण कपड़ों में एक सज्जन हमारी मेज पर आए और बातचीत करने लगे. फिर उन्होंने हमें क्रिसमस स्पेशल डिश- प्लम पुडिंगपेश किया. निस्संदेह वह काफ़ी लजीज था और बतौर उपहार था! वह सज्जन रेस्तरां के मालिक प्रेम कोशी थे. उन्होंने बताया कि बंगलुरु के बुद्धिजीवी, विद्यार्थियों, पत्रकारों के बीच दशकों से यह रेस्तरां लोकप्रिय है. रामचंद्र गुहा, गिरीश कर्नाड और दिवंगत पत्रकार गौरी लंकेश आदि का यह पुराना ठौर रहा है.


सेंट मार्क्स रोड के इर्द-गिर्द, अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस कॉफी हाउसों के बीच 'कोशीज' का टिका होना होना किसी आश्चर्य से कम नहीं. लेकिन यह इस बात की ताकीद भी है कि जरूरी नहीं कि जो पुराना है चलन से बाहर ही चला जाए. पुरानेपन का नएपन के साथ कोई बैर नहीं! 

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 10 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

Saturday, March 27, 2010

यात्रा में प्रेम: वियना डायरी


ढलती रात में मेघाच्छन्न आकाश तले, रंग-बिरंगी रौशनियों से नहाए वियना की गलियों में मेरे मन में एक मुग्ध नायिका की छवि उभरी.


बारिश की गंध से भरी सुबह ऐसा लगा कि यह शहर एक नव विवाहिता गृहणी हो. खुशी-खुशी घर के सारे काम निबटा कर जिसे दफ़्तर जाने की जल्दी है, लेकिन काजल जली रात की मधुर स्मृति मन में अब तक रिस रही है और गाहे-बगाहे उसके चेहरे पर स्मित मुस्कुराहट फैल जाती है.

दोपहर भीनी धूप में सड़क पर भटकते हुए मुझे एहसास हुआ कि वह नव विवाहिता एक प्रौढ़ा बन गई जिसके अंदर मोहक स्मृतियों का सुख है और ज़माने का ग़म.

शाम में शहर उस विरहनी नायिका में बदलता दिखा जो बेखुदी में खोई है.

ऐसा लगा जैसे विवियन के शांत और सौम्य चेहरे पर यह शहर अपने सारे भावों सहित रूप बदलता रहता है.

उसकी हँसी में मुझे जाने क्यों विषाद की झलक दिखी. ऐसी झलक अपने प्रेम को खोने के बाद उपजती है. लेकिन उसके चेहेरे पर बदली की तरह आ-जा रही मुस्कुराहट में जीवन को पूरे रंगों में जीने की चाहत थी.

कॉफ़ी पीने के बाद विवियन ने यह कह कर मुझसे विदा ली कि वह अगले दिन शाम को दफ़्तर से आने के बाद फिर मिलेगी और यदि मेरी इच्छा हो तो उसकी दोस्त मुझे दिन में वियना विश्वविद्यालय दिखा सकती है.

विवियन की दोस्त, वेरेना, जर्मन भाषा की छात्र है और दिल्ली में रह चुकी है. हिंदी से उसका लगाव देख मैं चौंक पड़ा.

मैंने देखा मेरे मोबाइल पर एक मैसेज है.

'हेलो जी, मैं विवि की सहेली हूं. अगर आपको वियना मे घूमना पसंद करता तो हमलोग आज दोपहर को मिल सकते. 16.15 शॉटटेनटॉर स्टेशन के पास...'

'शुक्रिया.' मैंने जवाब में लिख भेजा.

जब मैंने शॉटटेनटॉर स्टेशन के लिए ट्यूब ली, तो एक और मैसेज दिखा. अब मैं यू 2 के प्लेटफ़ॉर्म पर हूं...छोटी सूरत, नीली टोपी और काला कोट!'

मैसेज पढ़ कर मैं मुस्कुरा उठा.

सैकड़ों साल (वर्ष 1365 में स्थापित) पुराने वियना विश्वविद्यालय का यह वर्तमान ऐतिहासिक भवन क़रीब सवा सौ साल पुराना है.

छात्रों की गहमागहमी चारों तरफ़ है. मैंने नोट किया कि यूरोप में छात्र लाइब्रेरी में काफ़ी वक्त गुज़ारते हैं. छुट्टी के दिनों में भी लाइब्रेरी में भीड़ दिखती है.

विश्वविद्यालय में घूमते हुए अनायास मुझे अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक की बात याद हो आई कि 'यूरोप में जहाँ सैकड़ों वर्ष पुराने विश्वविद्यालय आज भी दमक रहे हैं, वहीं भारत के विश्वविद्यालय अपने यौवन काल में ही चरमरा गए.'

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर, शीशे के बने पाए पर उन प्रोफ़ेसरों की पोर्ट्रेट साइज़ की तस्वीरें लगी हुई हैं जिन्हें प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं. उनके साथ एक तस्वीर ऐसी भी है जिसके चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा है.

वेरेना ने बताया कि यह प्रश्नवाचक चिह्न इंगित करता है कि दूसरे विश्वयुद्द के दौरान नाजियों ने यहूदियों को उनके शोध से रोका और प्रताड़ित किया. उनको देश से बाहर जाना पड़ा और यदि ऐसा नहीं होता तो यह प्रतिमा उनमें से किसी की हो सकती थी.

वेरेना ने बताया कि विश्वविद्यालय के फ़ंड में कटौती की बात को लेकर छात्रों का विरोध चल रहा है.

विश्वविद्यालय में घूमते हुए शाम हो चली. शहर के एक पुराने कॉफ़ी हाउस में विवियन हमारा इंतज़ार कर रही थी.

कॉफ़ी हाउस का हर कोना भरा हुआ था. बीयर, कॉफ़ी और सिगरेट की मिली-जुली गंध, हँसी के कहकहे और शोर.

विवियन और वेरेना ने कॉफ़ी ली और मैंने निर्मल वर्मा की याद में बीयर का एक छोटा मग लिया.
वेरेना ने कहा कि कॉफ़ी के प्यालों के साथ चीयर्स कहना अच्छा शगुन नहीं होता.

'कोई बात नहीं हम पहल करें तो शायद बात बदल जाए.'

चीयर्स!!!

हमारी मेज से सटे एक मेज पर कुछ लड़के-लड़कियाँ ज़ोर-ज़ोर से गा बजा रहे थे.

आपकी अपेक्षा के विपरीत जब बच्चा अतिथि के सामने विचित्र व्यवहार करता है तब जिस तरह का भाव आपके चेहरे पर होता है, कुछ-कुछ ऐसा ही भाव विवियन के चेहरे पर दिखा.

विवियन ने बस इतना कहा, 'वियनावासियों की एक तस्वीर ये भी है.'

'मुझे पसंद है.'

विवियन के चेहरे पर थकान झलक रही थी. उसकी अंगुलियों को मैंने अपने हाथों में ले लिया.

मैंने गौर किया कि उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कुराहट उभर रही है और थकान कम होने का भाव है.

काफ़ी ज़िद के बावजूद विवियन और वेरेना ने मुझे बिल का भुगतान नहीं करने दिया.

मैंने वेरेना से साथ डिनर करने का आग्रह किया लेकिन उसे कहीं जाना था और उसने हमसे विदा ली.

एक चीनी कहावत है कि 'यात्रा के दौरान प्रेम में नहीं पड़ना चाहिए.' इसे निर्मल वर्मा ने अपने यात्रा संस्मरण में कहीं नोट किया है.

लेकिन वियना एक ऐसा शहर है जिसके प्रेम में पड़े बिना आप रह भी नहीं सकते.

दिन में लियोपोल्ड म्यूजियम में घूमते हुए मैंने प्रसिद्ध चित्रकार गुस्ताव क्लिम्ट की कुछ पेंटिंग ख़रीदी थी.

'कार्डस में से जो भी तुम्हे पसंद है चुन लो, मैं उस पर तुम्हारा नाम लिख दूँगा.'

'नहीं, भारत पहुँच कर मुझे ये कार्ड तुम भेजना.' विवियन ने कहा.

(तस्वीर में , वियना विश्वविद्यालय और कॉफ़ी हाउस, जनसत्ता, 'समांतर' स्तंभ में 7 मई 2011 को प्रकाशित)