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Sunday, June 16, 2024

कान फिल्म समारोह में 'मंथन'

 


इस बार प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में पायल कपाड़िया की फिल्म ऑल वी इमेजिन एज लाइट को ग्रां प्री पुरस्कार हासिल हुआ. फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की छात्र रही कपाड़िया को मिला यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इससे पहले उनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग' (2021) को भी कान में पुरस्कृत किया जा चुका है. हालांकि अभी तक भारत में इसे रिलीज नहीं किया गया है. पुरस्कार मिलने के बाद कपाड़िया ने स्वतंत्र फिल्मकारों को फंडिंग और वितरण को लेकर होने वाली परेशानी का जिक्र किया.

इस समारोह में श्याम बेनेगल की चर्चित फिल्म मंथन (1976) को भी क्लासिक खंड में दिखाया गया. इस फिल्म को फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन’ ने निर्देशक के साथ मिल कर संरक्षित किया है.  देश के चुनिंदा सिनेमा घरों में बड़े परदे पर एक बार फिर से दर्शकों के लिए भी इसे रिलीज किया गया, जहाँ दर्शकों का उत्साह देखते बना.

दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित, 89 वर्षीय बेनेगल हिंदुस्तान के सबसे वृद्ध फिल्म निर्देशक हैं, जो आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. पिछले साल उनकी फिल्म मुजीब- -द मेकिंग ऑफ ए नेशन रिलीज हुई थी. इस फिल्म को लेकर हुई बातचीत के दौरान बेनेगल ने मुझसे कहा था- मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोसलोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.

मंथन (1976) फिल्म का निर्माण गुजरात के पांच लाख डेयरी किसानों ने किया था. एक तरह से क्राउड सोर्सिंग के तहत बनी हिंदुस्तान की यह पहली फिल्म हैजो बॉक्स ऑफिस पर भी काफी सफल रही थी. यह फिल्म डेयरी सहकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द रची गई है, जिसमें भारतीय ग्रामीण समाज में जातिगत विभेद भी उभर कर सामने आता है. भारत में दुग्ध क्रांति के जनक रहे डॉक्टर वर्गीज कुरियन इस फिल्म निर्माण के पीछे थे.

श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा है. सत्तर के दशक में अंकुरनिशांतमंथन जैसी फिल्में उन्होंने बनाईफिर बाद के दशक में मुस्लिम स्त्रियों को केंद्र में रख कर मम्मोसरदारी बेगम और जुबैदा फिल्में आई.  महात्मा गाँधी,  सुभाष चंद्र बोस, शेख मुजीबुर्रहमान को लेकर जीवनीपरक फिल्में भी उन्होंने निर्देशित की है.

समांतर सिनेमा के दौर के फिल्मकारों से उनकी फिल्में काफी अलग हैं. मुख्यधारा से अलगसमीक्षकों ने उनकी फिल्मों को मध्यमार्गी कहा है. उनकी फिल्में आर्थिक रूप से भी सफल रही. साथ ही उन्होंने बॉलीवुड को कई बेहतरीन अदाकार दिए हैं. एनएसडीएफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. इस फिल्म में गिरीश कर्नाडनसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, स्मिता पाटिलमोहन अगाशेकुलभूषण खरबंदाअनंत नाग जैसे कलाकारों को एक साथ परदे पर देखना सुखद है. इन कलाकारों की अदाकारी और गोविंद निहलानी के कुशल फिल्मांकन की वजह से करीब पचास साल बाद भी यह फिल्म पुरानी नहीं लगती. असल में बेनेगल की फिल्में पीढ़ियों से संवाद करती है. 


Friday, August 11, 2023

‘जॉयलैंड’ जहाँ पितृसत्ता प्रतिपक्ष की भूमिका में है



दक्षिण एशिया में बॉलीवुड का इतना दबदबा है कि अन्य फिल्म उद्योगों की चर्चा नहीं होती. भूटान की फिल्म ‘लुनानाए यॉक इन द क्लास रूम’ को 94वें ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. यह अलग बात है कि इसे सफलता नहीं मिली पर कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे सम्मानित किया गया है. इसी तरह पाकिस्तान की फिल्म ‘जॉयलैंड’ को पिछले साल95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. यह फिल्म भी ऑस्कर जीतने में सफल नहीं हुईपर प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहाँ ज्यूरी पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के निर्माताओं में  हैदराबाद की अमेरिका में रहने वाली भारतीय अपूर्व गुरु चरण भी शामिल हैं.

भारतीय मीडिया में पाकिस्तान की चर्चा जब भी होती है खबरें आतंकवाद या राजनीतिक उथल-पुथल से ही जुड़ी रहती है. साहित्यसंस्कृति या सिनेमा अमूमन गायब ही रहते आए हैं. फरवरी में पाकिस्तान के चर्चित अदाकार और उर्दू साहित्य को लयात्मक और अपने सस्वर पाठ से चर्चित करने वाले जिया मोहिउद्दीन की जब मौत हुई तब भारतीय मीडिया में उनकी चर्चा बेहद कम हुई जबकि हिंदुस्तान में भी उनके चाहने वाले (खास कर फैज की नज्म पढ़ने की वजह से) बहुत  हैं. प्रसंगवशपाकिस्तान के युवा निर्देशक उमर रियाज की एक डॉक्यूमेंट्री- कोई आशिक किसी महबूब से जिया मोहिउद्दीन को लेकर बनाई हैजिसकी काफी चर्चा भी हुई.

बहरहालविभिन्न फिल्म समारोह में पाकिस्तानी फिल्म ‘जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले महीने अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया. सैम सादिक ने इसे निर्देशित किया हैफिल्म में सलमान पीरसरवत गिलानीरस्ती फारूक और अली जुनैजो सहित ट्रांसजेंडर अभिनेता अलिना खान की प्रमुख भूमिका है.

भले ही यह फिल्म पाकिस्तान में रची-बसी हैलेकिन कहानी भारत समेत दक्षिण एशिया के दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. फिल्म के केंद्र में लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. इस परिवार का मुखिया एक विधुर है जिसके दो बेटे और बहुएँ हैं. परिवार को एक पोते की लालसा है. बड़ी बहु की तीन बेटियाँ हैं. छोटा बेटा (हैदर) जो बेरोजगार है उसकी नौकरी एक ‘इरॉटिक थिएटर कंपनी’ में लग जाती है. वहाँ वह एक ट्रांसजेंडर डांसर (बीबा) का सहयोगी डांसर होता है. धीरे-धीरे वह उसकी तरफ वह आकर्षित होता है. घर में छोटे बेटे की बहु (मुमताज) की नौकरी छुड़वा दी जाती है. घुटन और इच्छाओं के दमन से उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है.

यह फिल्म घर-परिवार के इर्द-गिर्द हैपर किरदारों की इच्छा-आकांक्षा से लिपट कर लैंगिक राजनीतिस्वतंत्रता और पहचान का सवाल उभर कर फिल्म में सामने आता है. चाहे वह घर का मुखिया होउसका बेटा होबहु हो या थिएटर कंपनी की डांसर बीबा. फिल्म में एक संवाद है-मोहब्बत का अंजाम मौत है! सामंती परिवेश में प्रेम एक दुरूह व्यापार हैबेहद संवेदनशीलता के साथ निर्देशक ने इसे फिल्म में दिखाया है.

यह फिल्म अपने विषय-वस्तु का जिस कुशलता से निर्वाह करती है उसी कुशलता से परिवेशभावनाओं और तनाव को भी उकेरती है. ट्रांसजेंडर की पहचान और अधिकार को लेकर मीडिया में बहस होने लगी है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. फिल्म में अलिना खान ने ट्रांसजेंडर डांसरबीबा की भूमिका विश्वसनीय ढंग से निभाई है. सादिक की शॉर्ट फिल्म डार्लिंग (2019) में उन्होंने अभिनय किया था. 'जॉयलैंडएक तरह से ‘डार्लिंग’ का विस्तार है. इस वर्ष मई में लाहौर में अलिना खान को मिस ट्रांस पाकिस्तान’ से सम्मानित किया गया.

फिल्म में कोई विलेन नहीं है. पितृसत्ता यहाँ प्रतिपक्ष की भूमिका में है. सवाल बहुत सारे हैंजवाब कोई नहीं. ऐसे में रास्ता नजर नहीं आता. नाम जॉयलैंड हैपर यहाँ खुशी के क्षण रेगिस्तान में पानी की बूंद की तरह हैं- अप्राप्य. इस बोझिल वातावरण को निर्देशक ने सहजता से बुना है. इसमें उन्हें कलाकारों का काफी सहयोग मिला है. 

फिल्म के कई दृश्य जेहन में रह जाते हैं. एक ऐसा ही दृश्य फ्लाईओवर पर बीवा का कट-आउट लिएस्कूटर के पीछे सीट पर बैठे हैदर का है.

निर्देशक ने जबरन अपने विचारों को दर्शकों के ऊपर थोपा नहीं है. न ही फिल्म में किसी तरह का उपदेश या प्रवचन ही दिया गया हैजैसा कि आम तौर पर बॉलीवुड की फिल्मों में हम देखते हैं. फिल्म एक प्रवाह में आगे बढ़ती है. बिंबों के सहारे कई बातें मुखरता से कहीं गई है. युवा निर्देशक सादिक की यह पहली फिल्म हैजहाँ वे संभावनाओं से भरे नज़र आते हैं.


Sunday, May 28, 2023

कान में मणिपुरी फिल्म 'इशानो'


मणिपुर के सिनेमा की चर्चा आम तौर पर मुख्यधारा के मीडिया में नहीं होती. मणिपुरी फिल्मों का हालांकि पचास साल पुराना इतिहास है. दुर्भाग्य से पिछले दिनों मीडिया में मणिपुर में हुई जातीय हिंसा की खबरें ही छाई रही. ऐसे में प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह (16-27 मई) में मणिपुर के प्रतिष्ठित फिल्मकार अरिबम स्याम शर्मा की फिल्म इशानो का दिखाया जाना सुखद है. इसे समारोह के क्लासिक खंड’ में दिखाया गया.

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित यह फिल्म वर्ष 1991 में कान समारोह में 'उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित की गई थी. फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन’ और मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सहयोग से इस फिल्म को फिर से संजोया और संरक्षित किया गया है. अरिबम स्याम शर्मा के पोते ध्रुव शर्मा कहते हैं कि इस फिल्म ने खुशी मनाने की हमें एक वजह दी है’.

इस समारोह में भाग लेने अरिबम स्याम शर्मा को जाना थापर अस्वस्थ होने की वजह से वे नहीं गए. ध्रुव कहते हैं कि इस खबर से दादाजी बहुत ही खुश हैं. इस फिल्म के मुख्य अभिनेता कंगबाम तोम्बा बॉलीवुड के अभिनेताओंनिर्देशकों के संग कान में मौजूद थे और वहाँ रेड कारपेट’ पर चहलकदमी करते हुए उनकी तस्वीरें दिखाई दी.

वर्ष 1936 में इंफाल में जन्मे शर्मा मणिपुर सिनेमा के ख्यात निर्देशक के साथ कुशल अभिनेता और संगीतकार भी हैं. इशानो’ के अलावा इमागी निंग्थेम, ‘ओलांगथामी वांगमदुसू, ‘सनाबी’ आदि उनकी चर्चित फिल्में हैं. इन फिल्मों को देश-विदेश में कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया है.

इशानो की कहानी के केंद्र में एक स्त्री थाम्फा (अनुबाम किरणमाला) हैजो मणिपुर के एक गाँव में अपने पति और बेटी के साथ रहती है. अचानक से उसके व्यक्तित्व में बदलाव दिखाई देता है. यह बदलाव उसे माइबी धार्मिक समुदाय की स्त्रियों के पास ले जाता है. वे गुरु की तलाश में अपने परिवार को छोड़ देती है. लोक में व्याप्त विश्वास, अध्यात्म के सहारे प्रेम और वियोग को खूबसूरती से यह फिल्म हमारे सामने लाती है. मैतेई भाषा में बनी इस फिल्म में मणिपुर के जीवन और संस्कृति से हम रू-ब-रू होते हैं. संगीत इस फिल्म का विशिष्ट पहलू है.

मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सचिव और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि इशानो एक बेहद महत्वपूर्ण मणिपुरी फिल्म है जो मणिपुर के जीवन और जटिलताओं को सामने लाती है.’  उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा निर्माण की एक परंपरा रही हैहालांकि उनका बाजार बहुत छोटा है. वर्तमान में कई युवा फिल्मकार मणिपुरी में अच्छी फिल्में बना रहे हैं लेकिन संसाधनों के अभाव से वे जूझ रहे हैं. सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि अत्याधुनिक तकनीक का हमारे पास अभाव है. वे खास कर हाउबम पवन कुमार  और रोमी मैतेई जैसे युवा निर्देशकों की तारीफ करते हैं. पिछले साल गोवा में हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई)  में मणिपुर की फीचर और गैर-फीचर फिल्मों का प्रदर्शन किया गया थाजिसमें इशानो’ भी शामिल थी.

उम्मीद करते हैं कि कान समारोह में 'इशानो के प्रदर्शन के बाद दर्शकों की नजर मणिपुर के सिनेमा और समकालीन फिल्मकारों पर जाएगी.


Friday, May 19, 2023

हिंसा की खबर के बीच मणिपुर के फिल्म की कान समारोह में चर्चा

 


पिछले दिनों मणिपुर से लगातार जातीय हिंसा की खबरें आती रही है. ऐसे में प्रतिष्ठित कान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के क्लासिक खंडमें मणिपुर की एक फिल्म का प्रदर्शन होना सुखद है. चर्चित फिल्मकार अरिबम स्याम शर्मा की फिल्म इशानोक्लासिक खंड में दिखाई गई. उल्लेखनीय है वर्ष 1991 में कान समारोह में इसे उन सर्टेन रिगार्डमें प्रदर्शित की गई थी. अरिबम स्याम शर्मा के पोते ध्रुव कहते हैं कि इस फिल्म ने खुशी मनाने की हमें एक वजह दी है’.

इस समारोह में भाग लेने अरिबम स्याम शर्मा को जाना था, पर अस्वस्थ होने की वजह से वे नहीं गए. साथ ही बात करने में भी वे असमर्थ हैं. हालांकि ध्रुव कहते हैं कि इस खबर से दादाजी बहुत ही खुश हैं. इस फिल्म के मुख्य अभिनेता कंगबाम तोम्बा बॉलीवुड के अभिनेताओं, निर्देशकों के संग कान में मौजूद हैं और वहां रेड कारपेटपर चहलकदमी करते हुए उनकी तस्वीरें दिखाई दे रही हैं.

1936 में इंफाल में जन्मे शर्मा मणिपुर सिनेमा के ख्यात निर्देशक के साथ एक संगीतकार भी हैं, जिनकी फिल्में दुनिया भर के फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी हैं. इशानोके अलावा इमागी निंग्थेम’, ‘ओलांगथामी वांगमदुसू’, ‘सनाबीआदि उनकी चर्चित फिल्में हैं. इन फिल्मों को देश-विदेश में कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया है.

इशानोकी कहानी के केंद्र में एक महिला थाम्फा (अनुबाम किरणमाला) है, जो मणिपुर के एक गांव में अपने पति और बेटी के साथ रहती है. अचानक से उसके व्यक्तित्व में बदलाव दिखाई देता है. यह बदलाव उसे माइबी धार्मिक समुदाय की स्त्रियों के पास ले जाता है. वे गुरु की तलाश में अपने परिवार को छोड़ देती है. लोक में व्याप्त विश्वास, तंत्र-मंत्र के सहारे प्रेम और वियोग को खूबसूरती से यह फिल्म हमारे सामने लाती है. मैतेई भाषा में बनी इस फिल्म में मणिपुर के जीवन और संस्कृति से हम रू-ब-रू होते हैं.

फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशनऔर मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सहयोग से इस फिल्म को फिर से संजोया और संरक्षित किया गया है. मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सचिव और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि उनकी संस्था मणिपुर की फिल्म विरासत को संभालने में लगी हैं.

बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि इशानोएक बेहद महत्वपूर्ण मणिपुरी फिल्म है जो मणिपुर के जीवन और जटिलताओं को सामने लाती है.अभी यह फिल्म आम दर्शकों के लिए उपलब्ध नहीं है, लेकिन बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि कान और अन्य फिल्म समारोहों मे दिखाई जाने के बाद यह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी आएगी.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा निर्माण की एक लंबी परंपरा रही है, हालांकि उनका बाजार बहुत छोटा है. यह एक वजह है कि राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में इन फिल्मों की चर्चा नहीं हो पाती. उल्लेखनीय है कि मणिपुर सिनेमा का इतिहास पचास साल पुराना है. वर्ष 1972 में बनी मातमगी मणिपुरपहली फिल्म थी, जिसे देवकुमार बोस ने निर्देशित किया था. प्रसंगवश, इस फिल्म में अरिबम स्याम शर्मा की प्रमुख भूमिका थी. इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म समारोह में राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया. पिछले साल मणिपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती मनाई गई थी. साथ ही गोवा में हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में मणिपुर की फीचर और गैर-फीचर फिल्मों का प्रदर्शन भी किया गया था, जिसमें इशानोभी शामिल थी.

वर्तमान में कई युवा फिल्मकार मणिपुरी में फिल्म बना रहे हैं लेकिन संसाधन के अभाव से वे जूझ रहे हैं. सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि हमारे फिल्म निर्देशक का ध्यान बाहर के बाजार पर नहीं है और इस वजह से वे कई बात उतनी उत्कृष्ट फिल्म नहीं बन पाते हैं. अत्याधुनिक तकनीक का भी हमारे पास अभाव है.फिर भी डिजिटल तकनीक के सहारे पिछले कुछ सालों में युवा फिल्मकार ने अच्छी फिल्में बनाई हैं जिसकी फिल्म समारोहों में चर्चा भी हुई है. वे खास कर हाउबम पवन कुमार (लोकटक लैरेम्बी) और रोमी मैतेई (स्नेक अंडर द बेड) जैसे निर्देशकों की तारीफ करते हैं.

सिनेमा किसी भी समाज की संस्कृति, परंपरा को बिंबो, ध्वनियों के माध्यम से संग्रि‍हत करने और संजोने का काम करता है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की फिल्मों में उत्तर-पूर्व की संस्कृति नहीं दिखती है. साथ ही वहाँ के कलाकार भी गिने-चुने ही जगह बना पाते हैं.

हम उम्मीद करते हैं कि कान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इशानोफिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों की नजर मणिपुर के सिनेमा और समकालीन फिल्मकारों पर जाएगी.

Saturday, October 22, 2022

मैथिली सिनेमा: 'कन्यादान' से कान तक का सफर


दो साल पहले इन्हीं पन्नों पर जब मैंने लिखा था कि मैथिली फिल्में
 ‘देस की तलाश में हैमुझे इस बात का अंदाजा नहीं था वे इतनी जल्दी विदेश पहुँच जाएगी. फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह ने इसी साल 75वीं वर्षगांठ मनायावहाँ भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में अचल मिश्र की मैथिली फिल्म धुइन (धुंध)’ दिखाई गई. यह मैथिली सिनेमा के इतिहास में  एक गौरवपूर्ण और अभूतपूर्व घटना है. समारोह के दौरान मैथिली के अलावे हिंदीमराठीतमिलमलयालम और मिशिंग भाषा की पाँच अन्य फिल्में भी दिखाई गईं. मराठीबांग्लाअसमियातेलुगूतमिलमलयालमभोजपुरीमैथिली सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैंएक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति और सौंदर्यशास्त्र से परिचित होते रहते हैं. लोकतांत्रिक भारत में बहुलतावाद को इससे बढ़ावा मिलता है.

आज मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. वहाँ के निर्देशकों और कलाकारों की अखिल भारतीय लोकप्रियता आश्चर्यचकित करता है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. इस बात से इंकार नहीं कि सबटाइटल’ और ‘डबिंग’ के मार्फत क्षेत्रीय सिनेमा के प्रसार से देश में जो भाषाई विभाजन हैवह मिटने लगा है. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता हैपर मैथिली सिनेमा भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जिस पर कहीं कोई बातचीत नहीं होती. मैथिली सिनेमा के इतिहास और वर्तमान से दूसरी भाषाओं के दर्शकों के साथ-साथ सिनेमा उद्योग से जुड़े निर्माता-निर्देशक और वितरक भी सर्वथा अपरिचित ही हैं.

मैथिली सिनेमा का अतीत

मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:

रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज

(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)

मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)

हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे,  जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा थालेकिन मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक ‘द्विरागमन’ के समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में पहली मैथिली फिल्म बनीजो वर्ष 1971 में 'कन्यादान' नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं हैहालांकि बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई. असल में पिछले दशकों में हमने भारत की सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) के तौर पर बॉलीवुड को ही देखा-समझा!

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी ‘कन्यादान फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं हैजैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. पिछली पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थी, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए.  ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.

इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ सी परमानंद के निर्देशन में भी बन रही थीजो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर वर्ष 1982 में रिलीज हुई. अस्सी के दशक के मध्य में हमने दूरदर्शन पर इस फिल्म को देखा था. इस फिल्म के निर्माता रहे केदारनाथ चौधरी ने अपनी मैथिली किताब ‘अबारा नहितन’ में फिल्म निर्माण से जुड़े प्रसंगों और संघर्ष को खूबसूरती से पंक्तिबद्ध किया है.

कन्यादान’ की तरह ही ‘ममता गाबए गीत फिल्म के प्रिंट भी दुर्लभ हैं. इस फिल्म को लोग गीत-संगीत के लिए आज भी याद करते हैं. महेंद्र कपूरगीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खोछोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोरबौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी फिल्म में शामिल था. मैथिली भाषा अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध है. संवाद के लिए यह फिल्म खास तौर पर उल्लेखनीय है.

कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखे थे. हम जानते हैं कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही बिहार का वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती हैवहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. इसकी क्या वजह है? 

इस फिल्म में स्त्रियों के हास-परिहाससभागाछीशादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेलागोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदीउर्दूबंगलामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदीउर्दूबांग्लामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह मैथिली से भिन्न भाषा के लोगों ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.

सवाल उठता है कि क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुएजबकि बिहार में सिनेमा के प्रदर्शन और देखने की परंपरा मूक फिल्मों के दौर से रही हैयहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनींजिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. सवाल यह भी है क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थीजब मैंने यह सवाल केदारनाथ चौधरी से पूछा तब उन्होंने कहा- ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता. सी परमानंद की इस फिल्म में छोटी भूमिका थीजहाँ वे अपने संवाद मैथिली में बोलते हैं. यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘न्यू थिएटर्स स्टूडियो' की देवकी बोस के निर्देशन में हिंदी और बांग्ला में बनी ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? इस फिल्म में एक भी गीत विद्यापति के नहीं थे!

मैथिली सिनेमा का वर्तमान

कन्यादान’ और ‘ममता गाबए गीत’ के बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुईलेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है. इन फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कखन हरब दुख मोरजैसी फिल्में बाद के दशक में आई पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई. ये फिल्में पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों को समेटे हुई थी. फिल्मांकन और कहानी कहने का ढंग (नैरेटिव) हिंदी सिनेमा से ही प्रेरित रहा.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015)रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018) रिलीज हुई. इन दोनों फिल्मों पर भी बॉलीवुड का स्पष्ट प्रभाव है. प्रसंगवश, ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.

अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (2019) फिल्म समारोहों में सराही गई और पुरस्कृत हुई है. मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई. पिछले दिनों इस फिल्म को म्यूजियम ऑफ मार्डन आर्ट, न्यूयॉर्क में भी समकालीन भारतीय सिनेमा के तहत प्रदर्शित किया गया. इससे पहले फिल्म को ऑनलाइन ‘मूबी’ प्लेटफार्म पर रिलीज किया गया थासंक्षेप में, ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म हैजिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. अचल मिश्र मैथिली सिनेमा के युवा स्वर हैंजिनसे काफी उम्मीदें हैं. ‘गामक घर’ की तरह ही धुइन’ भी प्रतिष्ठित मुंबई फिल्म समारोह में इस वर्ष दिखाई गई थी. जहाँ गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती हैवहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है. 

कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली कमर्शियल फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन और ‘स्टार’ तत्व हावी रहा है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालममराठीअसमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. 'धुइन' फिल्म इसी कड़ी में शामिल है. धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज हैजो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना हैपर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैंपर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने बेरोजगारी को लेकर उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.


इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता हैतब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’ ‘धुइन देखते हुए सत्यजीत रे की फिल्म प्रतिद्वंदी’ (1970) की याद आती है. ‘प्रतिद्वंदी’ कलकत्ता (कोलकाता) में अवस्थित है. फिल्म का नायक सिद्धार्थ (धृतमन चटर्जी) एक शिक्षित बेरोजगार युवक है, जिसे नौकरी की तलाश हैलेकिन वाम विचारधारा के कारण उसे बार-बार असफलता हाथ लगती है. देश-काल के बदलते यथार्थ की वजह से उसका व्यक्तित्व अशांत और अस्थिर है. इस फिल्म में रे ने उन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है जिसमें मृणाल सेन सिद्धहस्त थे. हिंदी के आलोचक  प्रोफेसर वीर भारत तलवार बातचीत में अक्सर कहते हैं कि 'रे की फिल्मों में कलात्मक संयम दिखाई देता है'. सिनेमा तकनीक आधारित कला है जो समय के साथ पुरानी पड़ जाती है. ‘प्रतिद्वंदी’ फिल्म अपनी विषय-वस्तु की वजह से पचास साल बाद भी मौजूं हैभले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया हो. इस वर्ष कान फिल्म समारोह में 'प्रतिद्वंदीभी दिखाई गई थी. सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के ऐसे पुरोधा है जिनसे फिल्मकार हमेशा प्रेरणा ग्रहण करते हैंअचल मिश्र अपवाद नहीं हैं. ‘गामक घर’ के एक दृश्य के माध्यम से उन्होंने उनकी फिल्म पाथेर पांचाली’ को याद किया है. अचल मिश्र की फिल्मों में बिंब और ध्वनि के संयोजन में कलात्मकता है. यहाँ कोई ताम-झाम नहीं है, एक सादगी है.

 

बहरहालजहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर थावहीं ‘धुइन’ में हराही पोखर’ हैदरभंगा राज का किला हैहवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता हैपर वहाँ रह रहे कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी हैजो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र ने बातचीत में मुझसे कहा भी कि उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय हैजहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं. कम बजट की ये फिल्में लोकेशन पर शूट की गई है.

 

मैथिली सिनेमा का भविष्य


आधुनिक समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा सिनेमा का प्रभाव बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. पिछले पचास वर्षों में मैथिली में साठ से ज्यादा फिल्में बनी हैंलेकिन इन दशकों में मैथिली फिल्मों को लेकर निर्माताओं-वितरकों में कोई  उत्साह नहीं रहा. जहाँ भोजपुरी सिनेमा का एक बाजार हैवहीं मैथिली सिनेमा एक बाजार विकिसित करने में नाकाम रहा है, जबकि दोनों ही भाषाओं में सिनेमा निर्माण एक साथ ही पिछली सदी के साठ के दशक में शुरु हुआ था. भोजपुरी और मैथिली फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा इन दिनों  मैथिली में जैक्शन हॉल्ट’ के निर्माण में लगे हैं और लोगों से फिल्म पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता (क्राउडफंडिंग) की मांग कर रहे हैंताकि वे इस साल फिल्म रिलीज कर सकें. उन्हें आम जनता से हालांकि उत्साहवर्धक सहायता नहीं मिल रही है. उन्होंने ‘मिथिला मखान’ के लिए भी लोगों से सहायता की अपील की थी. मिथिला मखान’ को जब नेटफ्लिक्सअमेजन प्राइमहॉटस्टार आदि ओटीटी प्लेटफॉर्म प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे चार साल बादवर्ष 2020 में एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्मबेजोड़पर रिलीज करने का फैसला किया. 'मिथिला मखानमिथिला में रोजगार की समस्यापलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैंभले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. इस भाषा पर एक जाति विशेष का दबदबा हमेशा रहा है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्यक जनता के सरोकार मैथिली साहित्य और सिनेमा से नहीं जुड़ पाए हैं. साथ ही मैथिली फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्लेटफार्म’ का अभाव भी एक बड़ी समस्या रही है. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली ने मुझे बताया कि केरल सरकार ने हाल में एक ओटीटी प्लेटफॉ़र्म चालू किया हैजिस पर मलयालम की मुख्यधारा से अलग फिल्में दिखाई जाएंगी. यह वैसी फिल्में होंगीजिन्हें आलोचकों ने सराहा है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने ध्यान खींचा है. इस मामले में केरल ने नेतृत्व किया हैदूसरे राज्यों को उसका पालन करना चाहिए.” क्या बिहार सरकार कसारावल्ली के सुझाव पर अमल करेगी?

आखिर मेंपिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकीमल्टीप्लेक्स सिनेमाघरओटीटी प्लेटफॉर्म और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता के बल पर कम लागत में फिल्में बनाई जा रही हैं. अचल मिश्र की फिल्में इसका खूबसूरत उदाहरण है. जाहिर है मैथिली सिनेमा के भविष्य का सफर संघर्षों से भरा हैलेकिन सफलता भी इन्हीं पगडंडियों से होकर जाती है. कान इस सफर में एक अहम मुकाम है, जो युवा फिल्मकारों को मैथिली में फिल्म निर्माण-निर्देशन के लिए प्रोत्साहित करेगा


(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2022)